शास्त्रों की इन बातों का रखें हमेशा ध्यान, कभी नहीं घुलेगा पर्यावरण में तबाही का जहर

l_rishi-1465093325एजेंसी/ घास का तिनका कैसे उगता है? एक सात वर्षीय बालक को इसका उत्तर देना विद्वानों के लिए भी मुश्किल है। एक घास के तिनके को उगाने के लिए पूरी सृष्टि अपना अतुलनीय योगदान देती है। मिट्टी या पृथ्वी में फूटा अंकुर, जल से सिंचित होकर सूर्य की रोशनी से परिपक्व होता अंकुर, प्राणवायु के सहयोग से आकाश की ओर बढ़ता है। समूचे पंच महाभूतों के योगदान से एक तिनका उगता है। इस एक तिनके को अनुपम ईश्वरीय कृति मानकर उसका संरक्षण करना ही हमारी जिम्मेदारी और परंपरा है।   

पर्यावरण का प्रभावी संरक्षण और उसे कदापि हानि न पहुंचाने का सम्पूर्ण विवरण हमारे प्राचीन ग्रंथों में समझाया गया है। ऋग्वेद का सन्देश है,’मित्रस्यहम चक्षुषा सर्वानि भूतानि समीक्षेÓ अर्थात हम प्रकृति की समूची कृतियों को मित्र की दृष्टि से देखें। ऋग्वेद में अश्विन से प्रार्थना में उनका आभार जताते हुए कहा गया है कि हमें सूर्य की अत्यंत घातक हानिकारक किरणों तथा ताप से बचाने के लिए आपने जो संरक्षण प्रदान किया, उसके हम ऋणी हैं। 

यह वर्तमान ओजोन परत के सिद्धांत से जुड़ता प्रतीत होता है। चारों वेदों में मनुष्यों द्वारा प्रकृति से की गई छेड़छाड़ के कारण बिगड़ते ऋतु चक्र का वर्णन है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में ‘मां भूमि: पुत्रोहम पृथ्विया:Ó अर्थात मैं पृथ्वी माता का पुत्र हूं और समस्त वन और वनस्पति माता का उपहार है। पर्वतों के संरक्षण, जल के विवेकपूर्ण उपयोग, मृदा संरक्षण पर वेदों में प्रार्थनाएं हैं।  

पंचवटी से संवारें पर्यावरण 

भगवान श्रीराम ने वनवास के चौदह वर्ष पूर्ण स्वस्थ और निरोग रहते हुए बिताए, इसका मूल मंत्र भी पर्यावरण के वैज्ञानिक सिद्धांतों की श्रेष्ठ क्रियान्वति थी। स्कन्द पुराण के हिमाद्रीय व्रत खंड के अनुसार पंचवटी अर्थात सुनिश्चित दूरी पर लगाए गए पांच वृक्षों का समूह का विशिष्ट वैज्ञानिक औषधीय और पौराणिक महत्त्व है। 

पूर्व दिशा में पीपल, पश्चिम में बरगद, दक्षिण में आंवला, उत्तर में बेल और दक्षिण-पूर्व में अशोक के वृक्ष लगाने की वैज्ञानिक क्रिया ही पंचवटी है। सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोध के अनुसार पीपल 1800 किलोग्राम ऑक्सीजन प्रति घंटे की दर से उत्सर्जित करता है। बरगद प्राकृतिक वातानुकूलन का कार्य करता है। विटामिन-सी से भरपूर आंवला रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। बेल पाचन तंत्र सुधारता है,अशोक वृक्ष महिलाओं को निरोग रखता है।  

जीवन में अपरिग्रह जरूरी

पर्यावरण संरक्षण के साथ सस्टेनेबल डवलपमेंट (संपोषणीय विकास) की चर्चा वर्तमान में होती रही है। सस्टेनेबल डवलपमेंट का उद्भव और विकास भारत में ही हुआ है। हमारे गौरवशाली देश ने कभी भी भोगवादी संस्कृति को श्रेष्ठ नहीं माना। प्रत्येक वस्तु का त्यागपूर्वक उपभोग करना हमारे देश की परंपरा है, जितना मुझे चाहिए। मैं प्रकृति से उतना ही लूं और शेष प्रकृति को लौटा दूं। यह हमारी जीवन शैली है।

वर्तमान भौतिक युग में उपभोक्तावाद की संस्कृति हावी है जो अत्यधिक मात्रा में संग्रहण, अथाह धन के खर्च, आवश्यक ना होने पर भी खरीद और बिना बात ही पुरानी वस्तु को त्याग नई वस्तु खरीदने को प्रेरित करती है। ऐसा करने पर पुरानी वस्तुओं का कबाड़ इकट्ठा होता जाता है, उनके निर्माण में लगा श्रम व्यर्थ जाता है और पर्यावरण को हानि होती है। हमारी वैदिक संस्कृति अपरिग्रह अर्थात आवश्यकता से अधिक का संग्रह न करने और जितना प्राप्त हो, उससे ज्यादा लौटाने में विश्वास करती है। 

जीवन प्रबंधन और वृक्ष

मनुष्यों को वृक्षों की मति अर्थात सीख लेने को कहा गया है। जितना बड़ा वृक्ष उतनी ज्यादा छाया अर्थात समाज में उच्च स्थान मिल जाने पर भी जगत कल्याण का भाव। वृक्ष सभी को समान छाया देता है और लिंग, जाति, सम्प्रदाय से परे है। मनुष्य भी परोपकारी भाव से सभी का हित करे। वृक्ष पर जितने ज्यादा फल उतना ही नीचे की ओर झुकाव अर्थात अहंकार के भाव को त्यागना और समाज के अंतिम व्यक्ति का विकास।

वृक्षों पर फलों के लिए मारे जाने वाले पत्थर का भी प्रेम से स्वागत कर मीठे फल देने की प्रकृति अर्थात निंदकों और आलोचकों का भी हित करने का भाव। वृक्षों द्वारा पतझड़ के बाद नए पत्तों का उगना अर्थात पुराने विचारों को त्यागकर नए और आधुनिक विचारों को जीवन में स्थान देना व रूढि़वादी नहीं होना। यही तो चेंज मैनेजमेंट है। यही तो जीवन का मर्म है। वृक्षों से सीख ले लेवें तो हमारा जीवन सफल होना निश्चित है। 

सकारात्मक सोच से मिलेगा सहारा 

पर्यावरण प्रेम का सर्वोकृष्ट उदाहरण हमारे प्राचीन इतिहास में चोल राजा परिवल्लाल का है। राजा अपने कुशल नेतृत्व, पारदर्शिता और बेहतरीन निर्णय क्षमता के लिए विख्यात थे। एक दिन वन में अपने रथ को एक स्थान पर छोड़कर किसी संन्यासी से मिलने पहुंचे। वापस लौटने पर उन्होंने देखा कि दो छोटी लताएं, उनके रथ के पहिए से सर्पिलाकार आकार में जुड़ गई। रथ चलने से दोनों लताएं टूट जाती यह सोचकर राजा रथ को वहीं छोड़कर, वहां से पैदल ही लौट गए।

उन्होंने सारथी से कहा कि वृक्ष, फूल और लताएं ईश्वर का अंश हैं, जीवन देने वाली संपत्ति हैं और इनका संरक्षण प्रत्येक राजा का कर्तव्य है। यह निर्णय सही है या नहीं, मूल बात यह नहीं है। मूल विषय राजा परिवल्लाल का पर्यावरण प्रेम, कर्तव्यपरायणता और संस्कार है जो हमें सोच को नई दिशा देता है। यह घटना हमारे राष्ट्र नायक की सोच और दूरदृष्टि को दर्शाती है। 

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