क्‍यों र‍िश्‍ते में गलत पार्टनर चुन लेते हैं हम? द‍िल का नहीं, द‍िमाग का है कसूर

क्‍या आपने फिल्‍म ‘कबीर स‍िंह’ देखी है? कबीर का गुस्‍सा, उसका ऑवर पावर‍िंग नेचर या कहें ऑवर पजेस‍िवनेस ये सब कुछ प्रीति को साफ द‍िखती थी. लेकिन फिर भी प्रीति को उस र‍िश्‍ते में रहना अच्‍छा लगा. ये तो फिल्‍म थी, मनोरंजन के लि‍ए बनी थी. लेकिन क्‍या आपने गौर क‍िया है, आपको अपने दोस्‍तों में या आस-पास कई ऐसे र‍िश्‍ते द‍िख जाएंगे, ज‍िन्‍हें देखते ही आप बड़ी आसानी से कह देते हैं, ‘क्‍या देखा इसने इसमें? या ये इस जैसी लड़की/लड़के के साथ क्‍यों रहा है? कभी आपने सोचा है कि इस र‍िश्‍ते की जो बात आपको बाहर से नजर आ जाती है, उस र‍िश्‍ते में रहकर भी वो दो लोग क्‍यों नहीं समझ पाते? पुराने जमाने में अक्‍सर ऐसे र‍िश्‍तों के बारे में कहा जाता था, ‘उसकी अक्‍ल पर पत्‍थर पड़े हैं…’ काफी हद तक ये बात सही भी है. दरअसल इस सब का आपकी अक्‍ल या कहें आपके मस्‍त‍िष्‍क से भी संबंध है. आइए जानते हैं मुंबई के प्रस‍िद्ध मनोरोग व‍िशेषज्ञ और सेक्‍शुअल हेल्‍थ एक्‍सपर्ट डॉ. सागर मुंदड़ा से इसके बारे में.

बचपन की चीजों को ही र‍िश्‍तों में ढूंढते हैं हम
डा. सागर मुंदड़ा बताते हैं कि इसे आप ऐसे समझें कि जैसे मान लीज‍िए बचपन में आपने बस डारावनी फिल्‍में ही देखी हैं. अब आप बड़े हुए और आपको पता चला कि फिल्‍मों में एक्‍शन, रोमांट‍िक, कॉमेडी, ड्रामा फिल्‍में भी हैं. लेकिन क्‍योंकि आपने बचपन से हॉरर फिल्‍में ही देखी हैं और आपका द‍िमाग ऐसी फिल्‍मों से ज्‍यादा फैमील‍ियर है तो बड़े होकर भी आप उसी तरह की फिल्‍मों की तरफ ख‍िंचे चले जाएंगे. यहीं हमारे र‍िश्‍तों में भी होता है. उसी तरह अगर बचपन में आपको अपने र‍िश्‍तों में इग्‍नोर महसूस हुआ है, आपको समय नहीं द‍िया गया है, आपकी भावनाओं को महत्‍व नहीं द‍िया गया है, तो धीरे-धीरे आप इसके प्रति फैमील‍ियर हो जाते हैं.

द‍िमाग सही को नहीं, फैमील‍ियर को चुनता है
बड़े होकर भले ही आपको एक मेच्‍योर या केयर‍िंग पार्टनर म‍िल जाए, फिर भी आप उसी तरह की ब‍िहेव करते हैं. क्‍योंकि आपका द‍िमाग ऐसी चीजों के प्रति ही फैमील‍ियर है. आप ज‍िस तरह के र‍िश्‍ते बचपन में अपने आस-पास देखते हैं, आगे चलकर आप भी उसी तरह का र‍िश्‍ता तैयार करते हैं क्‍योंकि आपका मस्‍त‍िष्‍क उसे ही अपना मानता है. ऐसे में कोई भी बाहर से देखकर बता सकता है कि आप एक गलत र‍िश्‍ते में है, पर फिर भी हम उसी तरह के र‍िश्‍ते में बने रहते हैं. दरअसल मस्‍तिष्‍क की बात करें तो याद रखिए कि मानव का ब्रेन हमेशा उन चीजों के प्रति आकर्षित होता है, जो उसे जानी-पहचानी लगती हैं न कि उनके प्रति जो उसके ल‍िए सही होती हैं.

डॉ. सागर मुंदड़ा बताते हैं कि इसील‍िए कहा जाता है कि बच्‍चों का मन बड़ा कोमल है, उसे सही माहौल म‍िलना बहुत जरूरी है. क्‍योंकि यही चीजें आगे चलकर उसकी पर्सनेल‍िटी बनाती हैं.

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