एक पाठ जो पढ़ाया जाता है भूलने के लिए

-चुनाव सुधार को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग गंभीर, लेकिन राजनीतिक दल पर असर नहीं-विशेष अदालतें गठन के बावजूद सांसदों- विधायकों के खिलाफ मामलों के निपटारे में लग रही देर

ज्ञानेन्द्र शर्मा
सालों से एक सिलसिला बदस्तूर चल रहा है। चुनाव सुधारों से सम्बंधित कुछ पहलुओं पर सर्वोच्च न्यायालय चुनाव आयोग को बार-बार निर्देशित करता है और चुनाव आयोग सरकार की ओर ताकता है, फिर-फिर ताकता है। लेकिन, न तो ये निर्देश बंद हो पाते हैं और ना ही ताकना खत्म हो पाता है।
पिछली 17 सितम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर इस मामले में पहल की और इस बार उच्च न्यायालयों को एक सप्ताह में यह बताने का निर्देश दिया कि वर्तमान व पूर्व सांसदों/विधायकों और मुख्यमंत्रियों के खिलाफ आपराधिक व भ्रष्टाचार सम्बंधी मामलों के जो 4,442 मामले लम्बित हैं, उनकी शीघ्रता से सुनवाई पूरी करने के लिए क्या एक्शन प्लान हैं? इनमें से 2,556 आपराधिक मामले वर्तमान व पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ लम्बित हैं और इनमें से कमोबेश 413 मामले ऐसे हैं, जिनमें वे आपराधिक धाराएं लागू होती हैं, जिनमें अधिकतम दण्ड में आजीवन कैद की सजा के प्रावधान हैं। इन 413 में से 174 वर्तमान सांसद/विधायक अभियुक्त हैं। यह बात भी ध्यान में लाई गई कि 352 मामले ऐसे हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के आदेश से स्थगन आदेश लागू हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों के प्रधान न्यायाधीशों को स्मरण कराया है कि 2018 में एक आदेश जारी किया गया था, यदि किसी मामले में उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश छह महीने से अधिक अवधि से लागू है तो स्थगन आदेशों को दरकिनार करते हुए सुनवाई प्रारम्भ की जा सकती है।
उच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय को जो विवरण भेजे हैं, उनके अनुसार जिन मुख्यमंत्रियों पर आपराधिक मुकदमे लम्बित हैं, उनमें सबसे पहला नाम तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव का है, जिन पर 64 आपराधिक केस दर्ज हैं। इसके बाद आते हैं आन्ध्र के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, जिन पर 38 मामले दर्ज हैं।
उत्तर प्रदेश में  वर्तमान सांसदों व विधायकों के खिलाफ 446 मामले दर्ज हैं। 310 मामलों के साथ दूसरे नम्बर पर केरल आता है, जबकि बिहार में 256 और महाराष्ट्र में ऐसे 222 मामले दर्ज हैं। उत्तर प्रदेश का नाम एक और मामले में भी सबसे शीर्ष पर है। यहां ऐसे वर्तमान कानून निर्माताओं की संख्या 35 है, जिन्हें कि अधिकतम आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है। प्रदेश के विभिन्न जिलों में 1,217 मुकदमे दर्ज हैं, जिनमें से 10 भ्रष्टाचार निरोधक कानून से जुड़े हुए हैं। चार मामले तो ऐसे हैं जो 1990 से लम्बित हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 में भी निर्देशित किया था कि एक साल में सुनवाई पूरी हो और 2017 में ये निर्देश दिए गए थे कि सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित की जाएं। फिर भी कई मामले वर्षों से ऐसे लम्बित हैं जिनमें चार्जशीट तक दाखिल नहीं हुई है। नेताओं के खिलाफ मुकदमे निरंतर रूप से चलते रहने से वे न केवल अपने पदों पर बने रहते हैं बल्कि दुबारा भी चुनकर आ जाते हैं। कभी न खत्म होने वाला यह सिलसिला सारे नियम-कानून किनारे लगा देता है।
चुनाव आयोग को भी न्यायालय समय-समय पर निर्देशित करता रहा है, लेकिन आयोग के पास कानून बनाने की शक्ति न होने के कारण मामला राजनीतिक नेतृत्व के पास चला जाता है, जहां इन मामलों पर विभिन्न दलों में आम सहमति नहीं बन पाती और बात वहीं अटक जाती है। चुनाव आयोग ने 30 जुलाई 2004 को चुनाव सुधारों के बारे में विस्तृत सुझाव दिए थे। उनके कुछ सुझावों की चर्चा सर्वथा उचित होगी। आयोग का कहना था- 1. ऐसे व्यक्तियों को चुनाव मैदान से बाहर रखा जाना चाहिए जिन पर गंभीर किस्म के अपराधों के मुकदमे दायर हों तथा अदालत उनकी इनमें संलिप्तता के बारे में आश्वस्त हो और उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर दिया गया हो। 2. सत्तारूढ़ दल द्वारा किसी व्यक्ति के खिलाफ झूठा मुकदमा दायर करा दिए जाने की संभावनाओं को देखते हुए, यह उचित होगा कि केवल उन मुकदमों का ही इस मामले में संज्ञान लिया जाये जो चुनाव के छह महीने पहले दर्ज किए गए हों। 3. ऐसे व्यक्ति चुनाव लड़ने से वंचित कर दिए जाने चाहिए, जिन्हें किसी जांच आयोग ने दोषी करार दिया हो।
नरेन्द्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने 11 जून 2014 को राज्यसभा में कहा था कि अपराधीकरण के कलंक को दोनों सदनों से मुक्त करने के लिए और इस कलंक को समाप्त करने के लिए सब मिलकर काम करें और जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हो उस पर एक साल में फैसला हो। इसके लिए एक ज्यूडिशियल मैकेनिज्म तैयार हो ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाये। श्री मोदी ने कहा था कि कम से कम 2015 के अंदर ऐसा हो जाये कि लोकसभा या राज्यसभा में कोई भी व्यक्ति ऐसा न हो कि उस पर दाग लगा हो। फिर इस प्रक्रिया को धीरे-धीरे विधानसभा और नगरपालिका स्तर पर ले जाएं।
लेकिन, हुआ क्या, जरा गौर करिए। 2014 से 2019 की तुलना करिए। एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अपनी एक रिपार्ट में कहा कि 2014 की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक रिकार्ड वाले निर्वाचित सदस्यों की संख्या 26 प्रतिशत बढ़ गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में 43 प्रतिशत यानी लगभग आधे ऐसे नवनिर्वाचित सांसद चुने गए जिन पर आपराधिक केस दर्ज थे। 29 प्रतिशत ऐसे थे, जिन पर गंभीर अपराधों के मुकदमे दर्ज थे। गंभीर मुकदमों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, महिलाओं के खिलाफ अपराध शामिल थे। इस विश्लेषण में बताया गया कि 2009 के चुनाव के बाद से अब तक ऐसे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक की वृद्धि हुई है।
अभी हाल में चुनाव आयोग ने फिर से राजनीतिक दलों को स्मरण कराया है कि जिन उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हों, उनका पूरा विवरण सम्बंधित दल सार्वजनिक करे, लेकिन सच्चाई यह है कि चुनाव आयोग ऐसे आदेश पहले भी दे चुका है। हैरत की बात यह कि विभिन्न दलों पर उनका कोई असर नहीं हुआ। अब कुछ वर्गों से यह सुझाव आया है कि प्रत्याशियों के आपराधिक मामलों के विवरण खुद आयोग को सार्वजनिक करना चाहिए और राजनीतिक दलों पर निर्भरता त्याग देनी चाहिए।
अब इस पूरे मामले में कम से कम एक सप्ताह का इंतजार और करना पड़ेगा क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उच्च न्यायालयों को मामलों के जल्द से जल्द निपटारे के लिए एक्शन प्लान बताने होंगे।
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