अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का खेल : भारत के लिए चुनौतीयों के बीच अवसर भी हैं

योगेश बंधु

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई है। 1991 को पहला खाड़ी युद्ध शुरू होने के बाद कच्चे तेल की कीमतों में यह सबसे बड़ी गिरावट है। दुनियाभर में कोरोना वायरस के चलते कच्चे तेल की कीमतों में हो रही लगातार गिरावट को थामने के लिए ओपेक और सहयोगी देश तेल उत्पादन में रोजाना करीब डेढ़ मिलियन मिलियन बैरल कटौती की योजना बना रहे थे लेकिन, रूस ने इस पर अपनी सहमति नहीं दी।

इसके बाद विश्व के सबसे बड़े तेल उत्पादक देश सऊदी अरब ने कच्चे तेल की कीमतों में कटौती की घोषणा कर दी। कीमतों में इस कमी के बावजूद, दुनिया के दूसरे देशों में फैलाव के साथ सभी कमोबेश सभी देशों में आर्थिक गतिविधियो में कमी आई और उसके अनुरूप तेल की माँग भी भारी गिरावट देखें को मिली।

इन परिस्थितियों के चलते रूस और सऊदी अरब का आयल प्राईस वार थोड़ी देर के लिए थम तो गया और तेल निर्यातक देशों के समूह ओपेक और उसके सहयोगियों ने 10 फीसदी तेल उत्पादन घटाने का फैसला किया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और आज तेल उत्पादन में कमी करने के बावजूद दुनिया के पास इस्तेमाल की जरूरत से अधिक कच्चा तेल उपलब्ध है।

इस बीच दुनिया में नंबर एक तेल उत्पादक अमेरिका ने अपने तेल उत्पादन को ना घटाने का फैसला लिया, लेकिन कोरोना के चलते विश्व अर्थव्यवस्था में भविष्य के लिए तेल की माँग लगातार कम होती जा रही है, परिणाम स्वरूप अब अमेरिका के पास उत्पादन किए गए तेल के लिए भंडारण की जगह भी नही रह गयी है। नतीजतन अमेरिकी तेल मार्केट क्रैश हो गई और अब वहाँ फ्री में तेल आफर किया जा रहा है और मई के लिए वायदा कारोबार में क़ीमत माईंनस 35 डालर प्रति बैरल पहुँच गयी है।

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भारत में भी वायदा बाजार में क्रूड ऑयल के दाम में अभी तक 33 फीसदी की भारी गिरावट देखी गयी है। जिससे क्रूड ऑयल केदाम 963 रुपए प्रति बैरल (159 लीटर ) पर पहुंच चुका है। जो कि अब तक का सबसे निचला स्तर है। अगर इसे लीटर के हिसाब से देखें तो क्रूड ऑयल का भाव 6 रुपए प्रति लीटर के स्तर पर आ चुका है।

अंतराष्ट्रीय बाजार में इन बदली हुई परिस्थितियाँ में भारत के लिए अनेक अवसर भी छुपे हुए हैं। कोरोना के प्रभाव से इतर भारत दुनिया की उभरती हुई बड़ी अथ्र्व्यवस्थाओं में से एक है। जाहिर है इसकी ऊर्जा आवश्यकताएँ भी अन्य देशों से ज्यादा हैं जिसके लिए तेल आयात पर हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है। ऊर्जा की ये खपत आर्थिक विकास की एक आवश्यक शर्त भी है और इसका एक परिणाम भी। अतरू आज भारत की ऊर्जा सुरक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण चुनौतियों को स्वीकार करना आवश्यक है ।

समेकित ऊर्जा नीति के अनुसार भारत को अगले 25 वर्षों के दौरान 8-10 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर बनाए रखनी होगी जिससे कि भारत गरीबी का उन्मूलन करने और अपनी समन्वित विकास आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ हो सके। इसके लिए वर्ष 2030-31 तक प्राथमिक ऊर्जा आपूर्तियों में 4-5 गुनी वृद्धि करने की आवश्यकता पड़ेगी।

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फिलहाल भारत में प्रतिदिन लगभग 3.1 मिलियन बैरल तेल की खपत होती है और इसमें लगभग 2 मिलियन बैरल की वृद्धि होने की आशा है जिसके उपरान्त भारत तेल की खपत करने वाला एशिया में तीसरा सबसे बड़ा देश और विश्व में चौथा सबसे बड़ा देश बन जाएगा। 21वीं सदी के वैश्विक यथार्थ ने राष्ट्रीय सुरक्षा की विचारधारा को बल दिया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा एक समग्र विचारधारा है जबकि ऊर्जा सुरक्षा इसके महत्वपूर्ण घटकों में से एक है। सुरक्षा की समग्र विचारधारा में स्थायी आर्थिक विकास के लिए आर्थिक एवं व्यवसायिक गतिविधियों को समर्थन प्रदान करने हेतु ऊर्जा की अबाध आपूर्ति सुनिश्चित करना शामिल है। ऊर्जा आपूर्ति की निरंतरता में बाधा देश के आर्थिक विकास के साथ-साथ, सामरिकि नजरिए से भी चिंताजनक है।

चाणक्य नीति कहती है कि ‘किसी समस्या का उपाय नहीं, निदान ढूंढो’ और इसी नीति का पालन करते हुए मुश्किल घड़ी में ऊर्जा सुरक्षा के लिए दुनिया के तमाम देशों ने भूमिगत तेल भंडार बनाने शुरू किए, जिसकी शुरुआत 1973 में अमेरिका ने की, हालांकि 1973 में अमरीका में जो तेल संकट आया था, वो किसी हमले की वजह से नहीं था, बल्कि अरब देशों ने पश्चिम में तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था, क्योंकि अमरीका और दूसरे देश इसराइल को समर्थन दे रहे थे. इस तेल प्रतिबंध से स्थितियां काफी बिगड़ गई थीं। इससे अमरीका पर भी असर पड़ा था।आपातकालीन स्थिति में बाजार में स्थिरता बनाए रखने की इस व्यवस्था को स्ट्रैटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व (एसपीआर) कहा गया।

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अक्तूबर 1973 में सीरिया और मिस्र, इसराइल के ख़िलाफ एक परोक्ष युद्ध लड़ रहे थे. जिसमें इसराइल को अमरीका और नीदरलैंड्स जैसे दूसरे देशों का समर्थन मिला। अरब देशों ने इसके जवाब में पश्चिम में तेल निर्यात में कटौती करने का फैसला किया। ये युद्ध तो सिर्फ तीन हफ्ते चला, लेकिन प्रतिबंध मार्च 1974 तक जारी रहे, जिसकी वजह से दुनियाभर में तेल की क़ीमतें चार गुनी हो गईं. क़ीमत प्रति बैरल 3 अमरीकी डॉलर से कऱीब 12 अमरीकी डॉलर तक पहुंच गई, ये दुनिया का पहला तेल संकट था।

वैश्विक अर्थव्यवस्था इससे बुरी तरह प्रभावित हुई और अमरीका भी इससे अछूता नहीं रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो शहर बने थे और अभी भी विकसित हो रहे थे, वहां जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया।

बाद के सालों में भी इसका असर दिखता रहा और 1975 में क्रिसमस से तीन दिन पहले, तबके राष्ट्रपति जेरल्ड फोर्ड ने एक क़ानून पर हस्ताक्षर किया, जिसके तहत अमरीका के कच्चे तेल के संचय के लिए पहला आपातकालीन भंडार बनाने का फैसला लिया गया।

उसके बाद ये रणनीतिक भंडार बनाए गए, जिनका महत्व ये है कि सिर्फ अमरीका के राष्ट्रपति के पास ही इसमें जमा तेल का इस्तेमाल करने की इजाजत देने का अधिकार है।

1991 में पहले खाड़ी युद्ध के दौरान यहां से तेल का इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद 2005 में कैटरीना तूफान और 2011 में लीबिया के साथ संबंध खराब होने के बाद एसपीआर का इस्तेमाल किया गया था। आधिकारिक आँकड़ो के मुताबिक़, 2018 में अमरीकियों ने हर दिन औसतन 2.05 करोड़ बैरल तेल इस्तेमाल किया. इसका मतलब इस भंडार से देश को कऱीब 31 दिन चलाया जा सकता है। कालांतर में अमेरिका के बाद चीन और जापान ने अपने आर्थिक और सामरिक हितों के लिए तेल भंडार बनाने शुरू किए।

नीति में बदलाव की जरूरत

अटल बिहारी बाजपेयी के शासन काल में पहली बार भारत ने रणनीतिक तेल भंडार बनाने पर विचार किया, लेकिन परिस्थितिवश ये योजना परवान नही चढ़ पायी और बाद के किसी भी प्रधानमंत्री ने सामरिक हितो से जुड़े इस गम्भीर मुद्दे पर ध्यान देना जरूरी नही समझा।

एक बार फिर 2006 में तत्कालीन योजना आयोग द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने तेल भंडारण बनाए रखने के लिए, ष्स्ट्रैटेजिक-कम-बफरष् भण्डार के लिए 90 दिनों के बराबर तेल आयात करने का सुझाव दिया था। जिसकी अनुमानित लागत 2397 करोड़ थी, पर 2013 तक इसपर कार्य प्रारंभ नहीं हुआ और इतना समय बीत जाने के कारण अनुमानित लागत बढ़ कर 3958 करोड़ हो गई।ये अनदेखी तब हुई जबकि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए यह जरूरी था।

दरअसल, 1990 में खाड़ी देशों के युद्ध के दौरान भारत ने आर्थिक संकट का सामना किया था। भारत अपने खनिज तेल की जरुरत का बड़ा भाग इराक और कुवैत से आयात करता था लेकिन 1990 के इराक-कुवैत युद्ध से भारत को तेल आयात संकट का सामना करना पड़ा। युद्ध के चलते तेल की कीमतों में जबरदस्त उछाल देखने को मिला और भारत भी इसकी चपेट में आने से बच नहीं सका।

अन्य देशों से ऊंचे दामों पर आयात करने से विदेशी मुद्रा कोष में तेजी से कमी आई ऐसी स्थिति में भारत के पास उस समय केवल 3 दिनों तक के लिए तेल भंडार बचा था। इन वर्षों में भारत 1947 के बाद पहली बार भुगतान संतुलन संकट से जूझ रहा था. भारत ऊंची कीमतों का तेल खरीदने को मजबूर था और ऐसे में अप्रैल 1991 के अंत तक भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भारी कमी आई और जो विदेशी मुद्रा भंडार आज 476.475 अरब डॉलर है वो 1991 में 11.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया था जिसके चलते भारत को आई एम एफ की अनेक शर्तों को मानने के लिए बाध्य होना पड़ा।

आवंटन 31 मार्च 2015 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने कच्चे तेल के भंडारण के लिए भारतीय सामरिक भंडारण कार्यक्रम को मंजूरी दे दी। इसके साथ ही भारत सरकार ने 3 स्थानों विशाखापट्टनम (1.33 एमएमटी), मंगलौर (1.5 एमएमटी) और पादुर (2.5 एमएमटी) में कुल 5.33 मिलियन मीट्रिक टन (डडज्) की कुल क्षमता के साथ स्ट्रेटेजिक पेट्रोलियम रिजर्व (ैच्त्) सुविधाओं की स्थापना की।

2017-18 के खपत पैटर्न के अनुसार, यह क्षमता 9.5 दिनों के कच्चे तेल की आवश्यकता पूरी करने में समर्थ था। इसके बाद 2017-18 में सरकार ने दो स्थानों ओडिशा के चंदीखोल में (4 एमएमटी) और कर्नाटक के पादुर में (2.5 एमएमटी) पर 6.5 एमएमटी की कुल भंडारण क्षमता के साथ दो अतिरिक्त एसपीआर सुविधाएं स्थापित करने के लिए सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी जो, भारत के कच्चे तेल की आवश्यकता के अतिरिक्त यह क्षमता 11.57 दिनों के कच्चे तेल की आवश्यकता पूरी करेगी।

इसी क्रम में सरकार ने द्वितीय चरण के लिए सार्वजनिक निजी भागीदारी मॉडल की खोज के लिए सैद्धांतिक रूप से स्वीकृति भी दे दी है। जिसके बाद भारत के पास अपने कुल उपभोग के कम से कम 87 दिनों की तेल भंडारण क्षमता होगी। भारतीय तेल कंपनियां रिफाइनरी के लिए अपना अलग भंडार रखती हैं।

इनकी कुल भंडार क्षमता देश के 65 दिन के तेल खपत के लिए पर्याप्त है। हालांकि, इनकी गिनती रणनीतिक तेल भंडार के रूप में नहीं होती है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के मानकों के मुताबिक उसके सदस्य देशों के पास तीन माह की खपत के बराबर भंडार होना चाहिए। रणनीतिक तेल भंडारण सुविधा के क्षेत्र में विस्तारके लिए ही सरकार ने 2019 में सउदी अरब को भारत में वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी और पेट्रोकेमिकल परियोजना में निवेश के लिये आमंत्रित किया। समझौते के अंतरगत इसे महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में स्थापित किया जाना है, जो दुनिया की सबसे बड़ी ग्रीनफील्ड रिफाइनरी होगी।

ऐसे समय में हो रही है जब दुनिया के सारे देश करोना संक्रमण से संघर्ष करते हुए सामने खड़ी आर्थिक मंदी मंदी की चुनौतियों का सामना करने की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं। तेल की कीमतों में वर्तमान कमी वित्तीय घाटे को कम करने के साथ साथ, महँगाई में कमी और भारत के विदेश व्यापार घाटे को कम करने में सहायक होगी।

पेट्रोलियम मंत्रालय की योजना, विश्व बाजार में कच्चे तेल के सस्ते दाम का लाभ उठाते हुये मई की शुरुआत तक अपने भूमिगत रणनीतिक आरक्षित तेल भंडारों को भर देना है। इस तरह कोरोना के चलते विश्व अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलती परिस्थितियों में तेल संकट से भारत को रणनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर दोहरा लाभ हो रहा ही। उम्मीद की जाती है कि़ आने वाले समय में बदली परिस्थितियों में भारत चुनौतियों के बीच उभरते अवसरों का लाभ उठाने में सफल होगा।

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