असुरक्षित व्यंग्य का मेमोरेन्डम

उर्मिल कुमार थपलियाल

पता नहीं क्यूं मैं इधर व्यंग्य में मुलायम हो रहा हू फिर भी जाने क्यूं लुगदी साहित्य में तेल पिये दमामे की तरह बज रहा हूं। मुझे टूटियों की आवाज सुनाई नहीं दे रही। मेरे मित्र मुझसे जलन के कारण कांग्रेसी हुए जा रहे हैं। जो साहित्य में मोदी होता है वही राजनीति में मनोविनोदी हो जाता है। जन्म से सवर्ण होते हुए भी मैं अपने कर्म से निठल्ला हूं। मेरा चिंतन गरीबी की रेखा से नीचे है। मैं गरीब साहित्य की नहीं सुनता। मैं यूपी की पुलिस हूं। मैं किसी की प्रशंसा में व्यंग्य नहीं लिख पाता।
व्यंग्य एक फजीहत है जो दूसरों को जलील करने के काम आती है। व्यंग्य तो ऐसी कटखनी विद्या है जो विडम्बना, विसंगतियों और विपद्रूप की परखनली से पैदा होती है। व्यंग्य में छुपी चिकोटी और चुटकी उसे पत्रकारिता के निकट लाती है। व्यंग्य के कारण ही साहित्य में न्यूसेंसे वैल्यू विकसित होती है। नेता अपने भाषणों में जन जनता के हित की बात करते हैं तो किसे हसी नहीं। राजनीति में तो मसखरों के लिए आरक्षण की व्यवस्था भी है। व्यंग्य अखबारों में साप्ताहिक भविष्य की तरह छपता है।
दरअसल, आपका भविष्य ही व्यंग्य होता है। व्यंग्य विज्ञापनों से नहीं डरता वो सूखे संपादकीय से डरता है। जिस सर्कस में जोकर नहीं होते वह नहीं चलता। आवश्यक मुद्दे तो संसद में लटके रहने के काम आते हैं। आप यूपी में शांति से रहना चाहते हैं यह मजाक से ज्यादा व्यंग्य है।
साहित्य में व्यंग्य को विकृति कहते हैं। गूढ़ व्यंग्य विद्धानों का क्षेत्र है। अगूढ़ व्यंग्य मूर्खों का। इस राजनीति तो बकुआ गजबै डरामा है। इससे एक दूसरे को लतियाने वाले- तुम साले कुत्ते हो जैसी भाषा छोड़की कहने लगो कि श्रीमान आप नीच है। दृष्ट हैं तो समझिये राजनीति सुस्कृत हो रही है। वैसे बिना एक दूसरे पर शक किये आजकल राजनीति नहीं की जा सकती। गर्दन मरोड़ने से पहले गले मिलना जरूरी होता है।
आप दुराचारी हो तब भी राजनीति ज्वाइन कर सकते हैं। आखिर अंगूरों को सड़ा कर ही तो शराब बनती है। राजनीति की मंडी में चाहे कितना सड़ा गला माल हो शाम तक औने पौने दामों पर बिके ही जाता है। बोली लगाने वाले में दम होना चाहिए। राजनीति में तो दलाल मलाई चाटते हैं। छुटभइयों को तो खुरचन ही मिलती है। राजनीति में आजकल कोई भरत गद्दी नहीं छोड़ता। बड़े आदमी अपनी जेब में रोजगारी नहीं रखते।
अब मैं व्यंग्य बिल्कुल नहीं कर रहा हूं कि महंगाई वो चरित्रहीन दुलहन है जो मायके से अपने साथ महंगाई भत्ता भी लाती है। बाजार की भाषा में कहूं तो महंगाई का पेट कभी नहीं भरता। कहा भी गया है कि अपने सैया तो मौत ही कमात हैं। महंगाई डायन खाये जात है।
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