पंजाब में सरहदी गांवों तक नहीं पहुंच पाई विकास की रोशनी, पढ़ें पूरी खबर

हर बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान सीमांत क्षेत्र की मुश्किलों को लेकर आवाज उठती है, लेकिन हर बार लोग चुनाव के बाद खुद को ठगा सा महसूस करते हैं। यहा कारण है कि बरसों बाद लोग मुश्किल भरे हालात में जीवन बसर करने को मजबूर हैं। रोजगार यहां सबसे बड़ा मुद्दा है। सरहदी इलाके में एक भी उद्योग नहीं लग पाया।

लोगों की मांग है कि अगर बड़े उद्योग शुरू नहीं किए जा सकते तो लघु उद्योग ही शुरू किए जाएं। यहां लघु उद्योग शुरू करने की असीम संभावनाएं हैं। क्षेत्र के युवाओं के रोजगार के लिए सरकारों की ओर से कभी भी कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं लगाया गया, जिससे वह आत्मनिर्भर बन सकें और वे तस्करी या अन्य गैर कानूनी कार्यों को छोड़ कर बढ़िया जीवन व्यतीत कर सकें।

सीमांत इलाकों में सेहत सेवाओं की हालत काफी दयनीय है। मौजूदा सरकार ग्रामीण सेहत केंद्रों की हालत सुधारने की बात कर रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर यहां कोई बदलाव नजर नहीं आता। सीमांत क्षेत्र में कोई बड़ा अस्पताल नहीं है। छोटे सेहत केंद्रों में इमरजेंसी सेहत सेवाएं 24 घंटे के लिए उपलब्ध नहीं हैं।

ये हैं मुख्य परेशानियां…
-एक भी बड़ा उद्योग न होने के कारण बेरोजगारी की समस्या बहुत है। युवा नशा तस्करी में शामिल हैं।
-बड़े शिक्षण संस्थान और अस्पताल भी नहीं है। लोग इलाज के लिए कस्बों या जिला मुख्यालय पर निर्भर हैं।
-कंटीली तार पार के किसानों को कभी रेगुलर मुआवजा नहीं मिलता। जो मिलता भी है, वो भी बहुत कम है।
-न तो कोई बड़ा शिक्षण संस्थान है और न ही तकनीकी संस्थान है, जहां युवा ट्रेनिंग लेकर काम शुरू कर सकें।
-सीमांत इलाके में कृषि आधारित कोई बड़ा प्रोजेक्ट नहीं लगने से लोगों का खेती से भी मोह भंग हो रहा है।
-नहरी पानी सरहद के आखिरी गांवों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इससे कृषि घाटे का सौदा साबित हो रही है।

नशा तस्करी सबसे बड़ा मुद्दा
नशा व हथियारों की तस्करी सीमांत इलाके में सबसे बड़ा मुद्दा है। नशा तस्करी पर कंट्रोल करने के लिए भारतीय सुरक्षा एजेंसियों, बीएसएफ, पुलिस और सेना ने काफी सख्ती अपनाई है। इससे नशे की कई बड़ी खेप पकड़ भी जा चुकी हैं। कई बड़े तस्कर भी काबू किए गए हैं। बावजूद इसके नशा तस्करी पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई है। नशा तस्करों, गैंगस्टरों और आतंकियों के गठजोड़ ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। पैसों के लालच में युवा भी इससे जुड़ रहे हैं।

22 सरहदी गांवों के लिए डाकखाना न बैंक, सिर्फ एक सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल
हुसैनीवाला बॉर्डर से सटे गांवों के ग्रामीणों से भारत-पाकिस्तान के बीच हुए वर्ष 1965-71 के युद्ध की बात करें तो उनके चेहरों पर डर साफ दिखाई देने लगता है। उक्त दोनों युद्धों में ये लोग अपना बहुत कुछ खो बैठे हैं। पड़ोसी दुश्मन देश पाकिस्तान की गोलियां चलने से यहां के ग्रामीणों की सांसें रुक जाती हैं। कारगिल युद्ध व सर्जिकल स्ट्राइक दौरान सीमा पर पैदा हुए तनाव के दौरान ये लोग घर से बेघर हो गए थे। बंटवारे के बाद से इन गांवों में न तो डाकखाना और न ही बैंक है।

पाक के कसूर में बनी चमड़ा फैक्ट्रियों से सतलुज दरिया का पानी दूषित होने से यहां के गांवों का भू-जल जहरीला हो चुका है। वर्ल्ड बैंक की योजना तहत वर्ष 2014 में गांव रहिमेके में एक वाटर वर्क्स लगा है, कुल तीन वाटर वर्क्स हैं, तकरीबन 22 सरहदी गांवों की लगभग सोलह हजार से ज्यादा की आबादी है। इन लोगों को सरकारी परिवहन सुविधा तक नहीं है। यहां के नौजवानों को प्लस-टू करना लगभग वर्ष 2016 में नसीब हुआ है, जब सीमावर्ती गांव गट्टी राजोके स्थित सरकारी स्कूल को अपग्रेड कर सीनियर सेकेंडरी स्कूल में तबदील किया। सीमांत गांव भाने वाला, कालू वाला, टिंडी वाला, जल्लोके, गट्टी राजोके, चांदीवाला व ग्यारह पंचायतों के ग्रामीण कहते हैं बंटवारे के बाद पंजाब में जो भी सरकार आई, लेकिन किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली है।

क्या कहते हैं ग्रामीण
एक-दो शिक्षकों के सहारे प्राइमरी स्कूल
सीमावर्ती गांव भानेवाला निवासी गुरदेव सिंह का कहना है कि यहां के ज्यादातर लोगों का अनपढ़ रहना एक मुख्य कारण ये भी है कि यहां पर वर्ष 1973 में सरकारी स्कूल बनाया गया। आज भी ग्यारह पंचायत के 22 गांवों के लगभग 2022 परिवारों के बच्चों के लिए सात सरकारी प्राइमरी स्कूल, एक हाई स्कूल व एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल है, इनमें भी अध्यापकों की भारी कमी है। कई ऐसे प्राइमरी स्कूल हैं, जहां एक या दो टीचर हैं। जब शिक्षक स्कूल नहीं आते तो बच्चे छुट्टी कर लेते हैं। इन गांवों में दस हजार से ज्यादा वोटर हैं। फिर भी किसी नेता का इन गांवों में विकास की तरफ ध्यान नहीं है। बंटवारे के बाद वर्ष 1999 में उक्त गांवों को आपस में जोड़ने के लिए सड़क का निर्माण हुआ था।

दूषित पानी पीने को मजबूर हैं लोग
गांवों में सरकारी परिवहन व्यवस्था तक नहीं है। 22 गांवों में न तो डाकखाना है और न ही बैंक है। गांव टेंडी वाला, हजारा सिंह वाला, भखड़ा, गट्टी राजोके, गट्टी रहिमेेके, चांदी वाला व खुंदर गट्टी में प्राइमरी स्कूल है, लेकिन शिक्षकों का अभाव है। खुंदर गट्टी में एक हाई स्कूल है और गट्टी राजोके में सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल है। ग्रामीणों का कहना है कि उक्त गांवों वास्ते एक डिस्पेंसरी है, स्टाफ भी लगभग पूरा है। कुछ माह से दवाइयां भी मिल रही हैं, जो कोई ज्यादा बीमार होता है, उसे फिरोजपुर सिविल अस्पताल रेफर कर देते हैं, लेकिन यहां पर सरकारी लैब नहीं है, जिस कारण प्राइवेट लैब में महंगे टेस्ट करवाने पड़ते हैं। यहां के लोग दूषित पानी के चलते चमड़ी रोग, शूगर, दांत व हड्डियों की बीमारियों से ग्रस्त है। उक्त गांवों में एक लाइब्रेरी तक नहीं है, ताकि नौजवानों को पढ़ने-लिखने की सुविधा हो सके।

1971 के युद्ध के बाद बिगड़े हालात
गट्टी रहिमेके निवासी बुजुर्ग बलवीर सिंह का कहना है कि वर्ष 1971 में पाकिस्तान ने दो दिसंबर शाम छह बजे धोखे से युद्ध कर दिया था। ये चौदह दिन तक चला था। इन गांवों के लोगों को अपना सामान उठाने का मौका तक नहीं मिला था। कपड़े और पैसे लेकर किसी तरह नाव के जरिए दरिया पार कर सुरक्षित जगहों पर पहुंचे थे। इस युद्ध में पाक फौज ने उनके गांवों पर कब्जा कर लिया था। जब दोनों देशों का समझौता हुआ तो पाक फौज यहां से सभी पेड़, घरों की ईंटें व उनका सामान तक ले गई थी। यही नहीं शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव के बुत तक उखाड़कर ले गए थे। दोनों देशों के बीच बिछी रेल पटरी उखाड़ ले गए थे। सतलुज दरिया पर बना पुल न तोड़ते तो फिरोजपुर पर पाक फौज कब्जा कर लेती।

यही हाल वर्ष 1965 के युद्ध में हुआ है। इसके बाद कारगिल, सर्जिकल स्ट्राइक व 1984 में सीमा पर तनाव की स्थिति पैदा होने पर यहां के लोग घर से बेघर हुए हैं। इतना दुख यहां के लोगों ने झेला है, पर किसी राजनीतिक पार्टी ने उनकी तरक्की वास्ते नहीं सोचा है। पंजाब में मालवा से 18 मुख्यमंत्री बने किसी ने भी पंजाब से सटी साढ़े पांच सौ किलोमीटर लंबी पट्टी भारत-पाक सरहद पर बसे गांवों के ग्रामीणों की कभी किसी ने खोज खबर नहीं ली है। आज भी उनके बच्चे रोजगार के लिए तरस रहे हैं। रोजगार मिल जाए तो नशे से भी नौजवानों को छुटकारा मिल सकता है।

कीड़ी पत्तन पर लोगों को पुल का इंतजार, पालकी पर ले जाते हैं मरीज
पंजाब-हिमाचल बार्डर पर सटे नीम पहाड़ी क्षेत्र कटोरी बंगला की ग्राम पंचायत घाड़ के गांव टीका ढेर सकेरनी के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। आज भी लोग महिलाओं को डिलीवरी के लिए पालकी पर लेकर जाते हैं। सड़कों का बुरा हाल है। ढेर सकेरनी गांव के बच्चे हिमाचल के स्कूलों में पढ़ने जा रहे हैं। इसी तरह धार ब्लॉक के अधीन आते गांव भंगूड़ी की सड़क खस्ता हालत में हैं, जिससे किसी भी समय जानी नुकसान हो सकता है। कीड़ी पत्तन पर 70 वर्षों से आज भी लोग पुल का इंतजार कर रहे हैं। लोग जान जोखिम में डाल रावी नदी को बेड़ी के जरिए पार करते हैं। ऐसे में किसी भी समय बड़ा हादसा हो सकता है। कई बड़े नेता इस रावी दरिया पर पुल बनवाने का वादा कर चुके हैं। आसपास के 25 गांव पुल न होने के चलते प्रभावित हो रहे हैं।

अस्पतालों में न डॉक्टर, न उपकरण
अबोहर में बहाववाला व रामसरा में तीन सरकारी अस्पताल तो बने हैं, लेकिन तीनों में ही सुविधाओं का अभाव है। न पूरे डाॅक्टर, न पूरे उपकरण मौजूद हैं। शिक्षा की बात करें तो दो साल पहले सरकारी कॉलेज तो खोला गया, लेकिन पूरा स्टाफ और प्राध्यापकों की नियुक्तियां नहीं हो पाईं। सिर्फ बीए की कक्षाएं शुरू हुईं। अन्य कोर्स शुरू नहीं हुए।

स्पिनिंग व जिनिंग मिलें बंद
एक दशक पूर्व स्पिनिंग मिल बंद हो गई थी। अन्य जिनिंग मिलें भी बंद हो चुकी हैं। नई इंडस्ट्री किसी भी सरकार ने शुरू नहीं की। अबोहर किन्नू उत्पादन में अव्वल तो बना, लेकिन किन्नू से संबंधित प्रोडेक्ट्स तैयार करने वाली कोई इंडस्ट्री सरकार ने नहीं लगाई। पंजाब एग्रो की एक जूस फैक्टरी लगी, लेकिन वो बागबानों के लिए हितकारी साबित नहीं हुई। हाल यह है कि रोजगार का कोई प्रबंध नहीं हो सका और लोग शहर छोड़ बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

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