जानें मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जन्म कुण्डली

महर्षिवाल्मीकि जी ने अपने वाल्मीकीय रामायण मे प्रभु श्रीरामलला के जन्म की पावन गाथा का वर्णन करते हुए वाल्काण्ड केअ0१८के८\९श्लोक मे कहते है (ततो यज्ञ समाप्ते तु ऋतूना’षट समत्ययु:।ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ । नक्षत्रे$दिते दैवत्यै स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्व लोक नमस्कृतम।कौशल्या जनयदरामं दिव्य लक्षणसंयुतम।।उपरोक्त वर्णनानुसार चैत्रमास नवमी तिथि पुनर्वसु नक्षत्र कर्क लग्न मध्यान्ह मे प्रभु का अवतरण हुआ उस समय सभी ग्रह अपने परमोच्च स्थान मे विराजमान थे महर्षि के अनुसार भगवान श्री राम ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य करते रहे (दश वर्ष सहस्राणि दश वर्ष शतानि च ।रामो राज्यमुपासित्वा व्रह्मलोकं प्रयास्यति।वा0रा0१अ0श्लो0९७पञ्च ग्रहो का परमोच्च होना ज्योतिषीय दृष्टि से महाराजाधिराज का योग वनाता हैसाथ साथ मितायु (दीर्घायू) योग भी वनाता है यहा मंगल उच्च का है चन्द्र वृहश्पति से दृष्ट भी है फिर भी सप्तम मे होने से मंगली दोष के कारण स्त्री वियोग जन्य कष्ट सर्व विदित ही है पुनर्वसु नक्षत्र मे जन्म होने से कर्क राशि का चन्द्र अर्थात कर्क राशि हुई पुनर्वषु के चतुर्थ चरण के कारण वृहश्पति की महादशा उस समय चल रही थी अन्तिम चरण होने से लगभग ४वर्ष शेष रहा होगा उसके वाद १९वर्ष शनि की दशा का प्रवेश अर्थात २३वर्ष तक तदन्तर १७ वर्ष वुध की दशा का आगमन होता है

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यह वुध तृतीय और व्ययेश होकर शुक्र क्षेत्री होकर ११वै भाव मे वैठा है इसी की दशा मे वनवास जाना पडता है यह सम्पूर्ण दशा कष्टकारी रही २३+१७=४० २७वर्ष की आयु मे वनगमन ४१वर्ष मे अवध आगमन होता है इस तरह ग्रहो के वला वल का प्रभाव प्रभु श्री राम के जीवन मे दृष्टगोचर हो रहा है यद्यपि वै अखिल व्राह्माण्ड नायक है फिर भी जगतीतल पर अवतीर्ण होकर ग्रह जन्य परिस्थित स्वीकार करके श्रुतिसेतुपालक की भूमिका का निर्वहन करते है ज्योतिष प्रेमी वुध जन मेरे।इस तुच्क्ष प्रयास को स्वीकृति देकर अनुग्रहीत करेगै यही प्रार्थना उनके श्री चरणो मे है आपका ही अकिञ्चन रघुनाथ दास त्रिपाठी श्री अवध धाम ।

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