जानें क्या है नोटा? आखिर चुनावी प्रक्रिया में ‘NOTA’ का विकल्प क्यों लाया गया

नई दिल्ली। अगर आपको किसी पार्टी का कोई उम्मीदवार पसंद नही है। तो आप उनमें से किसी को भी अपना वोट देना नहीं चाहते हैं तो फिर आप क्या करेंगे? इसलिए निर्वाचन आयोग ने ऐसी व्यवस्था की कि वोटिंग प्रणाली में एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाए ताकि यह दर्ज हो सके कि कितने फीसदी लोगों ने किसी को भी वोट देना उचित नहीं समझा है। यानी अब चुनावों में आपके पास एक और विकल्प होता है कि आप इनमें से कोई नहीं का भी बटन दबा सकते हैं। यानी आपको इनमें से कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं है। ईवीम  में NONE OF THE ABOVE यानी NOTA का गुलाबी बटन होता है।
निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में ईवीम में NOTA बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश 
बता दें कि भारत निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में इनमें से कोई नहीं अर्थात नोटा (None of the above, or NOTA ) बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए। नोटा उम्मीदवारों को खारिज करने का एक विकल्प देता है। ऐसा नहीं है कि वोटों की गिनती की समय उनके वोटों को नहीं गिना जाता है। बल्कि नोटा में कितने लोगों ने वोट किया, इसका भी आंकलन किया जाता है। चुनाव के माध्यम से पब्लिक का किसी भी उम्मीदवार के अपात्र, अविश्वसनीय और अयोग्य अथवा नापसन्द होने का यह मत केवल यह सन्देश मात्र होता है कि कितने प्रतिशत मतदाता किसी भी प्रत्याशी को नहीं चाहते हैं।
भारत, ग्रीस, युक्रेन, स्पेन, कोलंबिया और रूस समेत कई देशों में नोटा का विकल्प है लागू 
जब नोटा की व्यवस्था हमारे देश में नहीं थी, तब चुनाव में अगर किसी को लगता था कि उनके अनुसार कोई भी उम्मीदवार योग्य नहीं है, तो वह वोट नहीं करता था और इस तरह से उनका वोट जाया हो जाता था। ऐसे में मतदान के अधिकार से लोग वंचित हो जाते थे। यही वजह है कि नोटा के विकल्प पर गौर फरमाया गया ताकि चुनाव प्रक्रिया और राजनीति में शुचिता कायम हो सके। बता दें कि भारत, ग्रीस, युक्रेन, स्पेन, कोलंबिया और रूस समेत कई देशों में नोटा का विकल्प लागू है।
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नागरिक अधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने भी नोटा के समर्थन में एक जनहित याचिका दायर की थी
साल 2009 में चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने संबंधी अपनी मंशा से अवगत कराया था। बाद में नागरिक अधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ ने भी नोटा के समर्थन में एक जनहित याचिका दायर की। जिस पर 2013 को न्यायालय ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प देने का निर्णय किया था। हालांकि बाद में चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि नोटा के मत गिने तो जाएंगे पर इसे रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा। इस तरह से स्पष्ट ही था कि इसका चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
अगर 2019 में अगर एक बार फिर उनकी सरकार बनी तो फिर 50 वर्षों तक देश पर भाजपा का ही होगा राज 
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दावा किया है कि अगर 2019 में अगर एक बार फिर उनकी सरकार बनी तो फिर 50 वर्षों तक देश पर भाजपा का ही राज होगा। वहीं, विपक्षी दल मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के लिए एकजुट होने की कोशिश में हैं। माना जा रहा है कि अगले चुनाव में यदि विपक्ष एक साथ आने में सफल हो जाता है तो इससे पार पाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी।
अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून ( एससी-एसटी एक्ट)  पर मोदी सरकार के रुख के खिलाफ वे 2019 के चुनाव में नोटा  बटन दबाएंगे
इस बीच, भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती खुद उसके सवर्ण समर्थकों ने पैदा कर दी है। उनके एक वर्ग का कहना है कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून यानी एससी-एसटी एक्ट पर मोदी सरकार के रुख के खिलाफ वे 2019 के चुनाव में नोटा (किसी उम्मीदवार को वोट नहीं) बटन दबाएंगे। यानी वे विपक्षी दलों के उम्मीदवार का तो समर्थन नहीं करेंगे लेकिन, भाजपा को भी वोट नहीं देंगे। इसके अलावा सोशल मीडिया पर यह अपील भी वायरल हो रही है कि सवर्ण संसदीय चुनाव में एससी और एसटी के लिए आरक्षित कुल 131 सीटों पर भी इस विकल्प के जरिए अपनी नाराजगी दर्ज करवाएं। मोदी सरकार ने एक विधेयक के जरिये सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला पलट दिया था जिसमें एससी-एसटी एक्ट के तहत फौरन गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी।
सवर्ण समर्थकों के इस रुख ने भाजपा के माथे पर बल डाल दिए
माना जा रहा है कि सवर्ण समर्थकों के इस रुख ने भाजपा के माथे पर बल डाल दिए हैं। वहीं, दूसरी ओर, विपक्ष के लिए भी यह मुश्किल में डालने वाली बात साबित हो सकती है। यानी जो सत्ता विरोधी वोट इस विकल्प के न रहने पर विपक्ष के खाते में दर्ज होते, अब वे नोटा के खाते में दर्ज होंगे। सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि यह राजनीतिक व्यवस्था को साफ करने की दिशा में अहम फैसला होगा। इससे पहले चुनाव से संबंधित नियमों की संहिता-1961 के तहत मतदाताओं को अलग से फॉर्म भरकर सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार दिया गया था। इसके बाद भी इस बारे में जानकारी के अभाव और मतदाता की पहचान उजागर होने की वजह से इसका न के बराबर इस्तेमाल किया जाता था।
नोटा का अब तक क्या असर रहा है?
साल 2013 में जब मतदाताओं को नोटा का अधिकार मिला था तो यह माना गया कि इसका इस्तेमाल शहरों में शिक्षित मतदाताओं द्वारा अधिक किया जाएगा। यह भी कि वे आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों के खिलाफ इस विकल्प जमकर इस्तेमाल करेंगे। इन बातों के साथ यह भी माना गया कि इससे मतदाता पहले की तुलना में अधिक संख्या में पोलिंग बूथ पर पहुंचेंगे।
शोध रिपोर्ट इससे जुड़ी एक बड़ी धारणा को भी तोड़ती हुई दिखती है
एक शोध रिपोर्ट की मानें तो नोटा से ऐसा होता हुआ नहीं दिखता। साथ ही यह रिपोर्ट इससे जुड़ी एक बड़ी धारणा को भी तोड़ती हुई दिखती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक अक्टूबर, 2013 से लेकर मई, 2016 तक हुए एक लोकसभा और 20 विधानसभा चुनावों में नोटा का इस्तेमाल आदिवासी बहुल और नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में अधिक हुआ है। उदाहरण के लिए, 2014 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र के नक्सलवाद प्रभावित गढ़चिरौली सीट पर 24,248 मतदाताओं (2.38 फीसदी) ने नोटा का इस्तेमाल किया। वहीं, करीब पांच महीने बाद अक्टूबर, 2014 में गढ़चिरौली विधानसभा सीट पर 17,510 (10 फीसदी) मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज कर दिया। गढ़चिरौली के साथ छत्तीसगढ़ के बस्तर में बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे में नोटा तीसरे पायदान पर था। इस सीट पर वोट देने वाले मतदाताओं में से 38,772 (पांच फीसदी) ने नोटा का बटन दबाया।
शहरी दिल्ली की जनता ने सबसे कम उम्मीदवारों को खारिज किया
बीते लोक सभा चुनाव में नोटा का सबसे ज्यादा इस्तेमाल तमिलनाडु की नीलगिरी और ओडिशा की नबरंगपुर संसदीय सीट पर हुआ। यहां के 46,559 मतदाताओं (पांच फीसदी) और 44,408 (4.3 फीसदी) मतदाताओं ने इस विकल्प का चयन किया। वहीं विधानसभा चुनावों की बात करें तो छत्तीसगढ़ (2013) चुनाव में नोटा का वोट शेयर सबसे अधिक यानी तीन फीसदी रहा है। दूसरी ओर, दिल्ली (2015) में यह आंकड़ा सबसे कम 0.4 फीसदी रहा। यानी अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक शिक्षित और शहरी दिल्ली की जनता ने सबसे कम उम्मीदवारों को खारिज किया है।
नोटा के जरिए लोकतंत्र को मजबूत करने की जगह कमजोर करने की जा रही है कोशिश की
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक उन सीटों पर जहां आदिवासियों की आबादी 50 फीसदी से अधिक है, कुल मतों में 2.4 फीसदी हिस्सेदारी नोटा की रही है। वहीं, इनकी आबादी 10 फीसदी से कम होने पर यह आंकड़ा घटकर एक फीसदी रह गया। इन बातों से साफ दिखता है कि अपने हितों को ध्यान में रखकर नोटा के जरिए लोकतंत्र को मजबूत करने की जगह कमजोर करने की कोशिश की जा रही है।
वहीं, इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो सुप्रीम कोर्ट की उम्मीदों से भी मेल खाता हुआ दिखता है। माना जाता है कि मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग जो सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष से भी नाराज है, उसे नोटा के जरिये इसे जाहिर करने और साथ ही इस बात को राजनीतिक दलों तक पहुंचाने का मौका मिला है। इस बात की अधिक संभावना है कि 2019 में यदि बड़ी संख्या में मतदाता ईवीएम पर नोटा का बटन दबाते हैं तो यह लोकतांत्रिक प्रणाली में इसकी उपयोगिता पर एक बड़ी बहस को जन्म दे सकता है। साथ ही, इसे इस प्रणाली को और बेहतर बनाने की दिशा में शुभ संकेत भी माना जा सकता है। यानी इस लिहाज से नोटा एक खरा विकल्प साबित हो सकता है।
बीते लोकसभा चुनाव में करीब 60 लाख मतदाताओं ने किया था नोटा का चुनाव 
हालांकि, नोटा को लेकर अभी जो प्रावधान है उसके मुताबिक मतदाता इसके जरिए अपनी नाराजगी तो दर्ज कर देता है लेकिन, इसका चुनावी नतीजों पर अधिक असर पड़ता हुआ नहीं दिखता। माना जाता है कि इस वजह से अधिकांश मतदाता उम्मीदवारों के खिलाफ होने के बाद भी उनमें से किसी एक का चुनाव करने के लिए मजबूर दिखते हैं। बीते लोकसभा चुनाव में करीब 60 लाख (1.08 फीसदी) मतदाताओं ने नोटा का चुनाव किया था। मतों की यह संख्या 21 पार्टियों को अलग-अलग मिले वोटों से अधिक थी। इन पार्टियों में जदयू, सीपीआई, जेडीएस और शिरोमणि अकाली दल भी शामिल हैं।
भाजपा और कांग्रेस पर नोटा का असर
नोटा से संबंधित आंकड़ों का अध्ययन करने यह बात सामने आती है कि इस विकल्प का उन सीटों पर अधिक इस्तेमाल किया गया जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी। यानी माना जा सकता है कि अधिकांश मामलों में इन सीटों पर मजबूत विकल्प के रूप में किसी तीसरी पार्टी की कमी ने मतदाताओं को इसका इस्तेमाल करने को मजबूर किया। इस लिहाज से यदि 2019 के चुनाव में मतदाता नोटा का इस्तेमाल 2014 की तुलना में अधिक करते हैं तो इससे भाजपा को अधिक नुकसान होता हुआ दिखता है। बीते लोक सभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेसनीत यूपीए-2 सरकार से नाराज मतदाताओं से भाजपा ने अच्छे दिनों का वादा किया था। साथ ही, देश के अधिकांश हिस्सों खासकर हिंदी पट्टी के राज्यों में भाजपा को भारी समर्थन मिला था। इस चुनौती को भांपते हुए ही पार्टी ने नोटा के इस्तेमाल से बचने की सलाह देनी शुरू कर दी है। इसके लिए सोशल मीडिया पर अभियान भी चलाया जा रहा है।
नोटा के जरिये मोदी सरकार से नाराजगी जताते हैं तो इससे कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को भी उठाना पड़ सकता है नुकसान 
वहीं, यदि मतदाता नोटा के जरिये मोदी सरकार से नाराजगी जताते हैं तो इससे कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। माना जाता है कि चुनाव में यदि सत्ता विरोधी लहर पैदा होती है तो इससे विपक्ष को फायदा होता है। लेकिन, नोटा विपक्ष की इस उम्मीद को ढहाने का काम करता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती होगी कि वह सत्ता विरोधी लहर को नोटा की तरफ न जाने देकर अपनी ओर खीचे।
बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं कि नोटा की संख्या बढ़ने के साथ-साथ कांग्रेस और भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। उत्तर प्रदेश में 80 में से 19 सीटों पर नोटा को 10,000 से अधिक वोट मिले थे। वहीं, गुजरात की 26 में से 23, राजस्थान की 25 में से 16, बिहार की 40 में से 15 और मध्य प्रदेश की 29 में से 19 सीटों पर 10,000 से अधिक मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज किया था। 2014 में नोटा वोट हासिल करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार शीर्ष पर थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि 2019 में अगर इस तरह की सीटों पर नोटा का आंकड़ा बढ़ता है तो यह राजनीतिक दलों के लिए परेशानी की बात हो सकती है।
छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनावों में नोटा के पक्ष में 3.06 प्रतिशत मतदान का राष्ट्रीय रिकार्ड बना
भारत निर्वाचन आयोग के आकड़ों के आधार पर छत्तीसगढ़ में नोटा को कुल डाले गए मतों का 2 प्रतिशत (282744 मत) प्राप्त हुए है जो कि इन पांच राज्यों के परिणामों में सबसे ज्यादा है। मत प्राप्त करने के मामले में नोटा छठे स्थान पर है और 7 राजनैतिक दलों से आगे है।छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनावों में नोटा के पक्ष में 3.06 प्रतिशत (401058 मत) मतदान का राष्ट्रीय रिकार्ड बना था और नोटा तीसरे स्थान पर था. मत प्रतिशत के आधार पर यह रिकॉर्ड अभी तक अछूता है और यह दिखाता है की छत्तीसगढ़ में नोटा के पक्ष मे वोटिंग पहले भी अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा हुई है।
नोटा ने कई उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ा

पांच विधानसभा चुनावों में कई उम्मीदवारों की हार-जीत में नोटा (उपरोक्त उम्मीदवारों में से कोई नहीं) भी एक बड़ा कारक बनकर उभरा है।
पांचों राज्यों में नोटा पर बटन दबाने वालों की संख्या जहां सीपीआई जैसी पार्टियों को मिले वोटों से भी अधिक रही है, वहीं कई सीटों पर यह संख्या जीत के अंतर से भी ज़्यादा रही।
मणिपुर की चर्चित मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला को जहां महज 90 वोट मिले, वहीं नोटा दबाने वालों की संख्या 143 थी।
वोट प्रतिशत के लिहाज से भी नोटा को पसंद करने वालों की संख्या अहम रही थी।

उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत हुई है। यहां इस पार्टी को तीन-चौथाई बहुमत प्राप्त हुआ।
यहां नोटा को 0.9 प्रतिशत यानी करीब 7.58 लाख वोट मिले। इनकी तादाद सीपीआई, एआईएमआईएम और बीएमयूपी को कुल जितने वोट पड़े उससे भी ज़्यादा रही।
जिन जगहों पर नोटा ने हार-जीत को संभवतः प्रभावित किया उनमें यहां की मटेरा विधानसभा सीट है जहां समाजवादी पार्टी के यासर शाह ने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार पर 1,595 वोटों से जीत दर्ज की, जबकि नोटा पर 2,717 वोट पड़े।
पूर्वी उत्तर प्रदेश की मोहम्मदाबाद गोहना की सुरक्षित सीट पर भाजपा के उम्मीदवार ने बसपा के उम्मीदवार को मात्र 538 वोटों से हराया। यहां नोटा पर वोट देने वालों की संख्या 1,945 थी।
मुबारकपुर में बसपा ने अपने प्रतिद्वंद्वी को महज 688 वोटों से हराया जबकि यहां नोटा पर 1,628 वोट पड़े।
इसी तरह श्रावस्ती में जीत का अंतर 445 था जबकि नोटा पर 4,289 वोट पड़े।
उत्तराखंड
उत्तराखंड में तो एक प्रतिशत वोट हासिल करते हुए नोटा बीजेपी, कांग्रेस और बीएसपी के बाद तीसरे नंबर पर रहा। यहां नोटा को 50,408 लोगों ने पसंद किया।
यहां की सोमेश्वर सुरक्षित सीट पर जीत का अंतर 710 था और नोटा को 1,089 वोट पड़े।
जागेश्वर भी ऐसा ही इलाक़ा है जहां जीत का अंतर 399 था और नोटा पर पड़े वोटों की संख्या 896 थी।
पंजाब
पंजाब में नोटा को 0.7 प्रतिशत यानी कुल एक लाख 84 हज़ार लोगों ने पसंद किया और यहां भी सीपीआई समेत सबसे कम वोट पाने वाली तीन पार्टियों के बराबर इसे वोट मिले.
मणिपुर
मणिपुर जहां बीजेपी ने अपनी वोट हिस्सेदारी में जबरदस्त इजाफ़ा किया, वहां भी नोटा को पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं रही।
यहां 0.5 प्रतिशत यानी 9,062 लोगों ने नोटा को प्राथमिकता दी।
गोवा
गोवा का भी कमोबेश यही हाल रहा।
यहां इसका वोट शेयर 1.2 प्रतिशत रहा, जोकि जीएसएम, यूजीपी, जीएसआरपी और जीवीपी जैसी पार्टियों से भी ज़्यादा।
नोटा को पसंद करने वालों की संख्या 10,919 रही।
कोंकोलिम विधानसभा क्षेत्र में दो प्रत्याशियों के बीच जीत का अंतर 33 था, यहां नोटा पर 247 वोट पड़े।
कई ने चुना ‘इनमें से कोई नहीं’
पांच विधानसभा चुनावों में नोटा पर कुल 9,36,503 वोट पड़े।
 

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