कैसा होगा सियासी लक्ष्मी पूजन का कैलेंडर?

-प्रकाश भटनागर
मायावती को लग रहा है कि गठबंधन की सूरत में उनके हिस्से में अगर सम्मानजनक सीटें नहीं आती हैं, तो भविष्य की उनकी राजनीति प्रभावित होगी। इसलिए उन्होंने कांग्रेस से मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सीटों का सम्मानजनक बंटवारा मांग लिया।
देवी लक्ष्मी, कमल का फूल, हाथी और उल्लू, ये लक्ष्मी पूजन के लिए छपने वाले चित्रों में ही साथ-साथ दिखाई देते हैं। इस पूजन का पर्व दीपावली इस साल जब तक आएगा, तब तक मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव का कोलाहल चरम पर रहेगा। अगले साल के दीप पर्व के पहले तक देश आम चुनाव के नतीजों का भी साक्षी बन चुका होगा। सत्ता रूपी लक्ष्मी का वरण हर किसी दल का सपना है। दलों की संख्या के लिहाज से स्वाभाविक रूप से आम चुनाव के लिए यह सपना देखने वाली आंखों का आंकड़ा बड़ा है। इनमें कमल का फूल यानी भाजपा है। हाथी अर्थात बहुजन समाज पार्टी है। तो क्या सन 2018 की दीपावली के ऐन पहले या बाद कमल का फूल और हाथी एक साथ लक्ष्मी यानी सत्ता की चरणवंदना करते दिख सकते हैं?
ऐसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मायावती ने कांग्रेस को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में झटका देने का पहला अध्याय लिख दिया है। मध्यप्रदेश में उन्होंने 22 उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। छत्तीसगढ़ में उनकी पार्टी अजीत जोगी की जनता कांग्रेस से हाथ मिला चुकी है। दरअसल, मायावती की राजनीति और मायावती दोनों को उनके नाम के अनुरूप समझना कठिन है। कुछ समय पहले तक भाजपा को हराने के लिए किसी भी हद जाने को तैयार दिख रहीं बहनजी ने महागठबंधन की तैयारी कर रहे क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस दोनों को झटका पहले ही दे दिया था।
यह संकेत देकर कि उनकी पार्टी पूरे देश में अकेले अपने दम पर भी चुनाव लड़ सकती है। असल में मायावती को लग रहा है कि गठबंधन की सूरत में उनके हिस्से में अगर सम्मानजनक सीटें नहीं आती हैं, तो भविष्य की उनकी राजनीति प्रभावित होगी। इसलिए उन्होंने कांग्रेस से मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सीटों का सम्मानजनक बंटवारा मांग लिया। यह वे राज्य हैं, जहां सीधा मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच होना है। जाहिर है कि अधिक सीट लेकर मायावती इन प्रदेशों में भी बसपा की प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास कर रही हैं।
मायावती ने हाल ही में पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों को लेकर जो बयान दिया, उसमें उन्होंने मोदी सरकार के साथ पूर्ववर्ती कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को भी बराबरी से कोसा। मायावती ने कहा कि यूपीए सरकार ने जिस जनविरोधी नीति की शुरुआत की थी, भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार उसी को आगे बढ़ा रही है। उनका यह बयान 2019 में नरेंद्र मोदी को हराने का सपना देख रही कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है। भाजपा भी जब चौतरफा मुसीबत से जूझ रही है। ऐसे में क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि भाजपा, मायावती को अपने साथ लाने की कोशिश कर सकती है। आखिर पहले भी मायावती और भाजपा उत्तर प्रदेश में साथ रह चुके हैं। अभी तो मायावती को अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ रहा है।
2019 का चुनाव जीतने के लिए भाजपा क्या ऐसी किसी रणनीति पर अमल कर सकती है, जिसमें देश के बड़े और असरदार दलित नेता उसके पाले में नजर आएं। आखिरकार 2014 में भी भाजपा ने उदित राज जैसे अपने विरोधी नेता को अपने पाले में शामिल कर ही लिया था। बिहार से रामविलास पासवान और महाराष्ट्र से रामदास अठावले जैसे असरदार दलित नेता उसके सहयोगी अभी हैं ही। अगर मायावती और यूपी में ताजा उभरे दलित नेता भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण भाजपा के पाले में आते हैं, तो पूरे उत्तर भारत में भाजपा एक बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर फिर उभर सकती है।
भाजपा का शीर्ष नेतृत्व एक ऐसे महागठबंधन की गोटियां सजा रहा है, जिसमें देश के सभी बड़े दलित नेता भाजपा की छतरी के नीचे जमा हों। ऐसा करना भाजपा की मजबूरी है। यही वजह है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अब ऐसे दल और दोस्त की तलाश में है जो अपने या अपनी पार्टी के वोट उसे ट्रांसफर कर सके। उत्तर प्रदेश में एक मात्र मायावती ऐसी नेता हैं, जिनमें यह करिश्मा करने की कुव्वत है। यूपी में भाजपा की पिछले चुनाव में सहयोगियों सहित 73 सीटें थी। इस परिणाम को दोहराना भाजपा के लिए इस बार मुश्किल है। लेकिन अगर मायावती का साथ लेने में भाजपा कामयाब होती है, तो उसे एक बार फिर बड़ी सफलता मिल सकती है। फायदा मायावती के हिस्से भी आएगा। अभी बसपा यूपी में शून्य पर है, लेकिन भाजपा से गठबंधन में उसकी तस्वीर बदल सकती है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने जिस तरह अचानक सहारनपुर हिंसा के आरोपी चंद्रशेखर रावण को रिहा करने का फैसला लिया, वह भी इसी रणनीति का एक बड़ा अहम हिस्सा है। मायावती की स्थिति सबसे नाजुक है। लोकसभा में उनके पास एक भी सांसद नहीं हैं। राज्यसभा से वे खुद इस्तीफा दे चुकी हैं। यूपी की विधानसभा में उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर है और उनके पास इतने विधायक भी नहीं हैं कि बसपा अपने दम पर राज्यसभा की एक सीट भी जीत सके। यानी 2019 का चुनाव मायावती के लिए सबसे निर्णायक चुनाव होगा।
इसलिए मायावती भी कुछ ऐसा करेंगी जिससे वे केंद्र की सत्ता में धुरी बन सकें और एक साथ कई राज्यों में अपनी पार्टी को जिंदा करने का सपना देख सके। यह संभावना अभी दूर की कौड़ी दिख रही है, लेकिन राजनीति में क्या संभव नहीं हो सकता? आरम्भ में देवी लक्ष्मी, कमल और हाथी सहित उल्लू की बात भी की गई थी। देश के सियासी लक्ष्मी पूजन का कैलेंडर इसी तरह दिखाई दिया, तो उसमें उल्लू होना भी लाजमी है। वह मतदाता सहित कोई सियासी दल का प्रतीक भी हो सकता है। फिलहाल उसकी व्याख्या करना जल्दबाजी ही होगी।

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