सेक्स रेशियो में सबसे पीछे था झूंझनू, अब बदल रहे हालात

सुशीला थाकन के लिए आठ साल पहले अपनी बड़ी बेटी मनुश्री को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजना एक सपना था. बेटी को जन्म देने पर उसे नैतिक रूप से पति का साथ तो मिला, लेकिन परिवार के अन्य लोग बेटी होने से खुश नहीं थे. 32 वर्षीय गृहिणी सुशीला ने बताया, “हर कोई बेटा होने की उम्मीद में था, इसलिए बेटी का पैदा होना परिवार में किसी अपशकुन से कम नहीं था.”

2011 में सबसे कम लिंगानुपात था झूंझनू में

भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार, राजस्थान के झुंझनू जिले में लिंगानुपात की स्थिति सबसे खराब थी, जहां 1,000 लड़कों पर 863 लड़कियां थीं. इससे न सिर्फ आधिकारिक तौर इसे सामाजिक रूप से पिछड़ा जिला करार दिया गया, बल्कि यह उन बुराइयों का छोटा संसार बन गया, जो भारतीय समाज को रुग्न बनाती हैं. 2011 की जनगणना में देश में सबसे कम बाल लिंगानुपात राजस्थान में था, जहां 1,000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 888 थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 1,000 लड़कों के मुकाबले 919 लड़कियां थीं.

भेदभाव कम हुआ तो बेहतर हुए हालात

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक बार कहा था कि भारत में 4 करोड़ महिलाएं कम हैं और इस लिंगानुपात की कमी में जिला दर जिला सुधार आ रहा है. सुशीला का दावा है कि झुंझनू में भी तेजी से बदलाव आ रहा है. उन्होंने बताया कि बाद में उनको एक बेटा भी हुआ, लेकिन अब परिवार में उनकी बेटी को सबसे ज्यादा लाड़-प्यार मिलता है, जो इस बात का सूचक है कि समाज बदल रहा है. आज जिले में 1000 लड़कों के तुलना में 951 लड़कियां हैं और यह देश में बाल लिंगानुपात में सुधार के मामले में एक मिसाल है. सुशीला ने कहा, “लड़कियों के महत्व के संबंध में क्षेत्र में जागरूकता और शिक्षा के प्रभाव के कारण यह सब हुआ है. प्रदेश सरकार ने लड़कियों के लिए कई योजनाएं शुरू कीं और लिंगानुपात समान बनाने पर जोर दिया. अब भेदभाव बिल्कुल समाप्त हो गया है.”

लोगों को समझाना था मुश्किल

हालांकि राजस्थान के इस जिले के लिए लिंगानुपात में सुधार लाने में कामयाबी हासिल करना आसान नहीं था. इस संबंध में जिलाधिकारी दिनेश कुमार यादव ने बताया, “यह सुधार रातोंरात नहीं आया. सतत प्रक्रिया व सामूहिक प्रयास से यह सफलता मिली है, जिसमें पूर्व जिलाधिकारियों के साथ-साथ महिला कल्याण व स्वास्थ्य विभागों, गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) आदि का बड़ा योगदान रहा है.”

झुंझनू में यादव का पदस्थापन पिछले ही साल हुआ है. उन्होंने बताया कि लोगों की मानसिकता बदलना कठिन कार्य था. यादव ने कहा, “काम बहुत कठिन था. हमें घर-घर जाकर लोगों को अपनी योजनाओं में शामिल करने के लिए उन्हें तैयार करना था और उदाहरणों के माध्यम से उन्हें समझाना था.” यादव ने बताया, “झुंझनू की कई लड़कियां सेना में भर्ती हुई हैं और सरकारी अधिकारी बनी हैं. इसके अलावा कई लड़कियां दिल्ली जैसे महानगरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करती हैं. हमने खासतौर से उन लोगों को सफलता की ये मिसालें दीं जिनके परिवार में बेटियां हैं.”

परंपराएं बदली, शिक्षा पर जोर

पहले जहां बेटे के जन्म पर कुआं पूजन की प्रथा थी, वहां प्रशासन ने बेटी के जन्म पर इस प्रथा को बढ़ावा दिया. उन्होंने बताया, “हमने बेटियों को लेकर लोगों की गलतफहमी दूर की. उन्हें बताया कि बेटियां भी परिवार को चलाने में मदद कर सकती हैं.” झुंझनू में महिला साक्षरता दर भी कम थी. जिला प्रशासन ने परीक्षाओं में लड़कों से बेहतर परिणाम लाने वाली मेधावी लड़कियों को सम्मानित करना शुरू किया. यादव ने बताया, “हमने ‘झुंझनू गौरव सम्मान’ शुरू किया है, जिसके तहत विद्यालयों को मेधावी छात्राओं की तस्वीरें लगाने को कहा गया है. हमने ऐसी मेधावी छात्राओं के सम्मान में रैलियां भी निकालीं.”

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आसपास के जिलों में भी असर

झुंझनू ही नहीं, पास के सीकर जिले में भी 2011 में बाल लिंगानुपात की स्थिति खराब थी. वहां 1,000 लड़कों के मुकाबले 885 लड़कियां थीं, जिसमें सुधार के बाद अब 1,000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 944 हो गई हैं. सीकर के जिलाधिकारी नरेश ठकराल ने बतया, “हमें लगता था कि स्थानीय लोगों को शामिल करने से ही बदलाव आएगा. हमने समाज में खुद की पहचान बनाने वाली महिलाओं का चयन कर उन्हें समुदाय का ब्रांड अबेंसडर बनाया.” आंगनबाड़ी केंद्रों और एनजीओ द्वारा आयोजित जागरूकता शिविरों में महिलाएं जाने लगीं. ठकराल ने बताया, “धीरे-धीरे महिलाएं बेटा-बेटी में भेदभाव और लड़कियों की आबादी बढ़ाने में आ रही दिक्कतों को लेकर आवाजें उठाने लगीं. वे लिंगानुपात में संतुलन लाने की जरूरत और बेटियों की महत्ता को लेकर अपनी आवाज मुखर करने लगी हैं.” दोनों जिलों में बालिका भ्रूणहत्या को रोकना बड़ी चुनौती थी, जिसका सामना करने में महिला कार्यकर्ताओं ने बड़ी भूमिका निभाई.

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की भी अहम भूमिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की अपनी प्रमुख योजना जो 2015 में हरियाणा के पानीपत में शुरू की थी, वह अब झुंझनू पहुंच चुकी है. यादव ने बाताया, “हर साल करीब एक करोड़ रुपये हमें इस योजना के तहत मिलते हैं, जिससे अभियान चलाने में मदद मिलती है.” मोदी ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस साल इस योजना का विस्तार करते हुए इसे देश के सभी 640 जिलों में लागू किया और इसकी शुरुआत उन्होंने झुंझनू से करने का फैसला किया. उन्होंने महिलाओं का दर्जा ऊपर उठाने के लिए कार्य करने वाले कई अधिकारियों को सम्मानित किया.

 
 
 
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