स्तन हमारे शरीर का एक अंग ही तो है, इस पोस्ट को दिमाग खोलकर पढ़ोगे तभी समझ पाओगे…

मैं एक मोटी बच्ची थी इसलिए शायद मेरे स्तन मेरी उम्र की लड़कियों से ज्यादा तेजी से विकसित हुए. 11 साल की उम्र में मुझे साधारण कॉटन पेटीकोट से कॉनिकल आकार के ब्रा को अपनाना पड़ा. मेरी मां ने हमेशा इसे पहनने पर जोर दिया. यहां तक कि अभी भी घर पर वह यही करती हैं. वह मुझे कड़े स्वर में कहती थी, ‘शेप खराब हो जाएगा.’
क्या शेप? ईमानदारी से कहूं तो मेरे स्तन हमेशा से एक जैसे ही दिखते हैं.
महिला के शरीर के एक हिस्से को बांधने के लिए -ब्रा- मुझे लगता है एक भ्रामक रूप से प्रचारित परिधान है- जिसके लिए अक्सर ‘सेक्सी’ कहा जाता है.
हमारे स्तन कभी हमारे नहीं रहे हैं, सच-हमेशा पवित्रता, पाप या शर्म का कारण. मेरे स्तनों को हमेशा मेरी मां की इजाजत की जरूरत रही, मेरे पिता और कजिन्स की मौजूदगी में हमेशा ब्रा पहनने की जरूरत रही, जिनके सामने मैं कभी तौलिए में नहीं आ सकती. मेरे स्तनों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट में उन पुरुषों से सुरक्षा की जरूरत रहती है जो मुझे अपमानित करना चाहते हैं.  मेरे सभी प्रेमी, जोकि मुझे और मेरी बंगाली जाति के लिए हमेशा तारीफों के पुल बांधते थे, मेर स्तनों के प्रति दीवाने थे. मैं कल्पना करती थी कि मेरा बच्चा कैसा होगा, जब मेरा बच्चा हुआ, मेरे वक्षों से जुड़ा, मेरे स्तनों से दूध पिया, उन्हें ढीला बना दिया और उस पर काटने के निशान छोड़ दिए. क्या स्तनों के बारे में पुरुषों की कल्पना उनकी मां के साथ जुड़ाव से शुरू नहीं होती है?
सभी महिलाओं के स्तन सिर्फ पुरुषों की जरूरत और उनकी इच्छाओं के लिए होते हैं?
शरीर और आत्मा
हर लड़की के नारीत्व की दर्दभरी यात्रा की शुरुआत का प्रतीक, हमारे स्तनों को क्यों सिर्फ शारीरिक नजर से देखा जाता है और जो है?
क्यों हर कोई शरीर के इस एक हिस्से पर दावा करना चाहता है?
मुझे यह बात समझ में नहीं आती जब यहां तक कि एक महिला कहती है, ‘तुम्हारे पास बहुत खूबसूरत स्तन हैं. ‘या उत्साह से दूसरे के स्तनों को देखकर चिल्लाती हैं, ‘वाह, देखो वे कितने सख्त हैं.’ ठीक वैसे ही जैसे सिलिकॉन इम्प्लांट्स को हम सिर्फ पोर्न स्टार या एक्ट्रेस के काम की चीज समझते हैं.   क्यों फ्लैट छाती वाली महिलाओं को ‘मैनचेस्टर’ कहा जाता है? या उन्हें ‘शादी के लायक’ नहीं माना जाता है? ऐसे देश में जहां हर महिला पतली और गोरी दिखना चाहती है, हम बिना अच्छे स्तनों वाली महिला से पीछा छुड़ाना चाहते हैं.
अच्छी ब्रैंडिंगः
हाल ही में एक स्वीडिश कंपनी रिबेटल ने भारत में अनलिमिटेड कॉल करने की एक स्कीम लॉन्च की. इस स्कीम को प्रमोट करने के लिए उसने न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कवॉयर के बीच में पूरे शरीर पर पेंट लगाए चार टॉपलेस महिलाओं को डांस करते हुए दिखाया.
चारों महिलाएं ‘छम्मक छल्लो’ पर थिरक रही थीं. कंपनी के इस कदम को सेक्सिस्ट करार दिया गया. कंपनी ने अपने बचाव में कहा कि उसकी यह मार्केटिंग रणनीति ‘अनलिमिटेड कॉलिंग और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच लिंक’ को दिखाती है और उसका यह स्टंट ‘खुद को विद्रोही ब्रैंड’ के रूप में दिखाना था.
टॉपलेस महिलाएं इतना बड़ा मुद्दा क्यों है? बॉलीवुड हीरोइनों को आइटम नंबर करते हुए कैमरे को उनके सीने पर जूम करने की दीवानगी क्यों है? क्यों हमारा राष्ट्रीय मीडिया ‘OMG, दीपिका पादुकोण का क्लीवेज’ जैसी चीजें दिखाता है और राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले फिल्ममेकर मधुर भंडारकर अपनी नई फिल्म कैलेंडर गर्ल्स के लिए महिलाओं की बिकनी वाले पोस्टर जारी करते हैं? क्यों हम अपने स्तनों को किसी प्राकृतिक चीज की तरह स्वीकर क्यों नहीं कर सकते?
अतीत में कभी विशेषज्ञ थे
नग्नता भारतीय संस्कृति के लिए शर्म के तौर पर एक नई अवधारणा है. अतीत में इसे कला और संस्कृति में उत्साह के साथ लिया जाता था.
वास्तव में यह कहा जाता है कि भारत में ब्लाउज के प्रचलन में आने से पहले महिलाएं ऊपरी कपड़े नहीं पहनती थीं और इसके लिए वे कभी अपने शरीर को लेकर शर्म भी नहीं करती थीं. कोणार्क और खजुराहो की प्राचीन मूर्तियों पर एक नजर डालिए और आप समझ जाएंगे कि मैं क्या कहना चाहती हूं.
18वीं और 19वीं शताब्दी में केरल में महिलाओं को उनके स्तनों को ढंक कर रखने की मनाही थी. ब्राह्मणों को छोड़कर हिंदू महिलाओं में से कोई भी अपने स्तन ढंकने के बारे में सोचती भी नहीं थीं – उनके लिए तो स्तनों को ढंकना अशालीनता की निशानी थी. नायर और ऊंची जाति की महिलाएं बस एक सफेद मुंडू से अपने स्तनों को ढंकती थीं.
19 वीं सदी तक त्रावणकोर, कोचीन और मालाबार में ब्राह्मणों के सामने किसी भी औरत को उसके शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने की अनुमति नहीं थी. अय्या वैजुंदर के समर्थन के साथ कुछ समुदायों ने ऊपरी कपड़े पहनने के उनके अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और इसके प्रतिरोध में उच्च वर्ग ने 1818 में उन लोगों पर हमला भी किया था.
1819 में त्रावणकोर की रानी ने घोषणा की. इसके अनुसार नादर महिलाओं को केरल की अन्य गैर-ब्राह्मण जाति की महिलाओं की तरह ऊपरी कपड़े पहनने का अधिकार नहीं था. हालांकि केरल की कुलीन नदान महिलाओं और उनके समकक्षों को अपनी छाती ढंकने का अधिकार था. नादर महिलाओं के खिलाफ राज्य भर में हिंसा शुरू हो गई, 1858 में यह खासकर नेय्यातिंकरा और नेय्यूर में अपने चरम पर पहुंच गई.
16 जुलाई 1859 को मद्रास के गवर्नर के दबाव में त्रावणकोर के राजा ने घोषणा किया, जिसके अनुसार नादर महिलाओं को ऊपरी कपड़े पहनने का अधिकार दिया गया, शर्त यह रखी कि उन्हें उच्च वर्ग की महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले कपड़ों की शैली की नकल नहीं करनी होगी.
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