भारतीय मुस्लिम और गोमांस का सवाल

kerala-mps-protest_29_10_2015मौलाना हसरत मोहानी का एक दोहा है : ‘गोकुल ढूंढ़ो बृंदावन ढूंढ़ो, बरसाने लग घूम के आई। तन मन धन सब वार के हसरत, मथुरा नगर चली धूनी रमाई।” यानी, चलिए उन्हें गोकुल या वृंदावन में खोजें, या बरसाना तक ही खोज आएं। हसरत, जो कुछ तुम्हारा है, उसे उन पर न्यौछावर कर दो और फिर मथुरा नगरी में उनका भक्त बनकर बस जाओ। मोहानी के ऐसे ही कई दोहे हैं। वे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस के नेता थे, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे और संविधान सभा के भी सदस्य थे। अपने सालाना हज के बाद वे हमेशा मथुरा या बरसाना में राधा-कृष्ण का दर्शन करने जाते थे। पूछे जाने पर वे कहते कि इसमें क्या हुआ, आखिर खुदा ने दुनिया के हर मुल्क में अपने संदेशवाहकों को भेजा था। मौलाना की नजर में भगवान कृष्ण भी ईश्वर के संदेशवाहक या अवतार थे। और गो-पालक कृष्ण के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करने के लिए मौलाना कभी गोमांस को हाथ भी नहीं लगाते थे!

दादरी में गोमांस खाने की अफवाह पर इखलाक नामक एक व्यक्ति की भीड़ द्वारा हत्या कर दिए जाने के बाद से अब तक इस मसले पर काफी राजनीति हो चुकी है। हाल में केरल हाउस में भी बीफ परोसे जाने की सूचना पर पुलिस ने वहां दबिश दी। बाद में पाया गया कि वहां पर गोमांस नहीं, भैंसे का मांस परोसा जा रहा था। अंग्रेजी में भैंसे के मांस को भी बीफ ही कहा जाता है।

जहां तक मुझे याद आता है, मेरे घर में भी कभी गोमांस नहीं पकाया जाता था। 1951 में जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बाद हमारे घर में किफायत को तरजीह दी जाने लगी थी। यही कारण था कि निकाह, फातिहा, मुहर्रम आदि अवसरों पर होने वाले पारिवारिक कार्यक्रमों में जब घर में 50 से भी अधिक लोग जमा हो जाते तो मेहमानों को खालिस मांस परोसना बहुत महंगा साबित होता था। तब ऐसा किया जाता कि मांस में ढेर सारी सब्जियां मिलाकर उसे परोसा जाता। इस मांस को ‘बड़ा” (भैंसे का मांस) कहा जाता था। केवल खुसफुसाकर ही हम ‘बड़ा” शब्द का इस्तेमाल कर सकते थे। इसका कारण यह था कि हम मानते थे कि भैंसे के मांस का उल्लेख करने से भी हमारे कुछ मेहमानों की आस्था को ठेस पहुंच सकती है, ऐसे में गोमांस की बात तो रहने ही दें।

लखनऊ के मशहूर कबाबची हैं टुंडे, जो कि 110 सालों से कबाब बना रहे हैं। उनके कबाब के दो आउटलेट हैं। इन दुकानों पर जो महंगा कबाब होता है, वह गोश्त से बनाया जाता है और जो सस्ता कबाब होता है, उसमें ‘बड़ा” यानी भैंसे के मांस का इस्तेमाल किया जाता है।

केरल हाउस में बीफ परोसा जा रहा है, पुलिस को यह शिकायत हिंदू सेना नामक संगठन द्वारा की गई थी। गोमांस का सेवन कानूनी रूप से प्रतिबंधित है। लेकिन अंत में पाया गया कि वह गोमांस नहीं था। अगर इसी तरह देश की पांच सितारा होटलों और महंगे रेस्तरांओं पर भी धावा बोला जाए और उनसे उनका मेनू पूछा जाए तो वे पाएंगे कि वहां के लजीज व्यंजनों में ‘बीफ स्टीक” भी शामिल है। आज देश में जिस तरह का माहौल है, उसके मद्देनजर जल्द ही यह नौबत आ सकती है कि ऐसी विशेष फोरेंसिक लेबोरेटरियों की स्थापना की जाए, जिनमें विभिन्न् खाद्य पदार्थों की जांच की जाए। और मैं दावे से कह सकता हूं कि बीफ के नाम से बेचा जा रहा हर खाद्य पदार्थ अंतत: भैंसे का ही मांस निकलेगा, गाय का नहीं।

लेकिन यह भारत की बात है। बीफ के नाम पर हंगामा कर रहे लोग अगर अमेरिका में रह रहे अपने नाते-रिश्तेदारों से पूछेंगे तो वे उनको बताएंगे कि न्यूयॉर्क के स्मिथ और वूलेंस्की के आउटलेट्स में क्या पकाया जाता है। वैसे भी एक भूमंडलीकृत दुनिया में आज बच्चों को भी ब्रिटेन के एंगस स्टीक और जापान के कोबे स्टीक का फर्क पता है। मेरे निजी वीडियो के खजाने में तो एक क्लिप ऐसी भी है, जिसमें ख्यात पहलवान और अभिनेता दिवंगत दारा सिंह नैरोबी के मशहूर कार्निवोरे रेस्तरां से बाहर निकलते नजर आ रहे हैं। पूछिए कि इस रेस्तरां में क्या नहीं पकाया जाता है। जेब्रा, हिरन, जिराफ, शुतुरमुर्ग, मगरमच्छ, यानी वह सब कुछ, जो खाया जा सकता है। इन सबको वहां एक बड़े-से खुले ओवन में पकाया जाता है और ग्राहकों को परोसा जाता है।

बहरहाल, अब हम अपने मूल विषय पर लौटें। सवाल यह है कि क्या बीफ भारतीय मुस्लिमों का मुख्य खाद्य पदार्थ है और अगर हां तो कैसे? दिल्ली के सुल्तानों और मुगलों के भोज में कभी बीफ शामिल नहीं होता था। वे ऊंट, हिरन, बकरे, मुर्गे, मछली आदि का मांस खाते थे, लेकिन बीफ नहीं। और हां, वे बहुत सारी सब्जियां भी खाते थे, भले ही आम धारणा ऐसी न हो। यह भी गौरतलब है कि आज भारत के मुस्लिमों में एक बड़ी आबादी यानी कोई 80 से 90 प्रतिशत ऐसे हैं, जो कि कनवर्ट यानी धर्मांतरित हैं। तो फिर उन्होंने बीफ खाना कब और कैसे शुरू कर दिया?

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सुविख्यात गांधीवादी विद्वान धर्मपाल को निमंत्रित किया था कि वे शोध करें कि भारत में गोहत्या की परंपरा कब शुरू हुई। ब्रिटेन के इंडिया हाउस के मूल दस्तावेजों की गहरी जांच-पड़ताल करने के बाद धर्मपाल और उनके सहायक टीएम मुकुंदम ने वर्ष 2002 में अपनी अध्ययन रिपोर्ट सबमिट की। इस रिपोर्ट का शीर्षक ही पूरी कहानी बयां कर देता है : ‘भारत में अंग्रेजों द्वारा गोहत्या की शुरुआत।”

रिपोर्ट में जो तथ्य स्थापित किए गए हैं, वे एकदम सीधे-सरल हैं। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों को अपने सैनिकों के स्टाफ में नाटकीय बढ़ोतरी करनी पड़ी थी, जिनकी जरूरतों की पूर्ति के लिए नए कत्लखाने खोले गए। तब तक मुख्यत: मांस का विक्रय करने वाले ‘बकर कसाबों” की ड्यूटी कत्लखानों में लगा दी गई। गोमांस के धंधे में मुस्लिम कसाइयों की ड्यूटी लगाने के पीछे अंग्रेजों की वही फूट डालो और राज करो वाली सोच काम कर रही थी कि जब भी सांप्रदायिक तनाव भड़काने की जरूरत महसूस होगी, वे मुसलमानों की ओर इशारा कर देंगे कि वे गोहत्या कर रहे हैं।

8 दिसंबर 1893 को अपने वायसराय लॉर्ड लैंड्सडॉउने को पत्र लिखते हुए महारानी विक्टोरिया ने कहा भी था कि भारत में सांप्रदायिक तनाव के लिए मुसलमानों द्वारा गोहत्या को कारण क्यों बताया जा रहा है, जबकि इससे कहीं बड़े पैमाने पर गोहत्या तो हम करते हैं। मुजफ्फरपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए गांधी ने भी कहा था कि जब हम अंग्रेजों द्वारा की जाने वाली गोहत्या पर रोक नहीं लगा सकते तो मुस्लिमों को इसके लिए दोष कैसे दें।

इन मायनों में आज देश में बीफ को लेकर जो विवाद चल रहा है, उसकी जड़ों में औपनिवेशिक कूटनीति थी। हिंदू और मुस्लिमों के बीच नफरत के बीज बोने की कोशिशें थीं। पर आज जिस तरह के हालात निर्मित हो गए हैं, उनमें तो हसरत मोहानी को भी शायद शक की नजर से देखा जाता।

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