स्टेट ,पॉलिटिक्स और कारपोरेट गँठजोड़ ने दुनिया को तबाह किया

राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार
राम दत्त त्रिपाठी
देश- दुनिया  के हालात से मन चिंतित और व्यथित है . चौतरफ़ा गिरावट के इस दौर से कोई क्षेत्र अछूता नहीं हैसाध्य हासिल करने के लिए साधन शुद्धि का आग्रह कम होता जा रहा है .हमारे परिवार और सामाजिक संस्थाएँ विघटित हो रही हैं . तात्कालिक लाभ के लिए लोग समाज को आधार देने वालेजीवन के बुनियादी मूल्य छोड़ते जा रहे हैं .अविश्वास , भय और लालच का माहौल है . समाज में झूठ और हिंसा बढ़ती जा रही हैआध्यात्मिक और धार्मिक संस्थाओं का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है .सामाजिक सद्भाव को क्षीण करने की कोशिश कामयाब होती दिखायी दे रही हैं .
व्यक्ति केन्द्रित दल
वोट की राजनीति के लिए पक्ष विपक्ष द्वारा समाज को तोड़ा जा रहा है . राजनीतिक दल व्यक्ति केंद्रित हो गये हैं . दलों में आंतरिक लोकतंत्र के बिना संसदीय लोकतंत्र अधूरा है .संसद या विधानसभाएँ कार्यपालिका पर समुचित निगरानी नहीं कर पा रही हैं .
सरकार के मंत्री शपथ तो संविधान की लेते हैं . राग या द्वेष के बिना सबको न्याय देने की क़सम खाते हैं .पर करते उल्टा हैं .ब्यूरोक्रेसी स्वभाव से यथास्थितिवादी होती है . वह भी संविधान और क़ानून के बजाय सत्ता और कारपोरेट गठबंधन के साथ हैं.जो नहीं हैं वह पीड़ित हो रहे हैं . संवैधानिक संरक्षण का कवच रक्षा नहीं कर रहा .सत्ता नागरिक और समाज विरोधी होती जा रही है .
न्यायपालिका की अपनी समस्याएँ हैं. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज को गवर्नर और राज्य सभा मेम्बर बनाना लक्षण मात्र है . कुछ कहो तो अदालत की तौहीन की तलवार है .ग्राम पंचायतें , ज़िला परिषदें और नगर निकाय अधिकार और संसाधनों की कमी से मूलभूत नागरिक सुविधा नहीं दे पा रही हैं .काम के घंटे बढ़ते जा रहे हैं लोगों को आराम , स्वाध्याय, परिवार और मनोरंजन के लिए समय नहीं मिल रहा .
किसानों को उपज का दाम न मिलने से खेती घाटे का काम है .
बेरोज़गारी बढ़ रही है । वेतन या तो बहुत अधिक या बहुत कम है .इंजीनियर , एम बी ए भी दस पंद्रह हज़ार की नौकरी को मजबूर हैं .
अर्थव्यवस्था लगातार ढलान पर है . छोटे घरेलू उद्योग धंधे बर्बाद हो रहे हैं .
तबाही का बिज़नेस मॉडल
नई टेक्नोलॉजी और ग्लोबलाइज़ेशन ने एक नया बिज़नेस मॉडल लागू किया हैं।इससे पूँजी का केंद्रीकरण और आर्थिक, सामाजिक असमानता बढ़ रही है.कुछ अपवाद छोड़ दें तो ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को भुला दिया गया है।स्टेट , पॉलिटिक्स और कारपोरेट गँठजोड़ लोगों को जानबूझकर गुमराह कर रहे हैं . धोखा दे रहे हैं .उद्योग और बिज़नेस मुनाफ़े के लिए प्रकृति को तबाह कर रहे हैं ।इससे नयी नयी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं .बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक भी रिसर्च फंड या फ़ेलोशिप के लिए उनके सहयोगी हो गए हैं।
घातक प्रदूषण

हम सब प्रज्ञापराध के दोषी हैं .मतलब जानबूझकर ग़लत काम करना .इस सबसे जीवन के आधारभूत पॉंचों तत्व प्रदूषित हो रहे हैं . लोग बीमार पड़ रहे हैं।हम ज़हर खा रहे हैं , ज़हर पी रहे हैं और सूंघ रहे है.ऐसे में अनाज, फल और दूध आदि में पोषक गुण भी विलुप्त होते जा रहे हैं।
 
बुनियादी काम उपेक्षित
सरकार टैक्स कदम- कदम पर ले रही है . केंद्रीकृत शासन व्यवस्था मनुष्य का सारा जीवन नियंत्रित करती जा रही है .
मगर सुरक्षा , न्याय , शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार सृजन जैसा बुनियादी काम नहीं कर रही है .
राजनीति में त्याग, बलिदान, सादगी , सेवा भावना , नेकनीयती और ईमानदारी कम होती जा रही है .शिक्षा और स्वास्थ्य को मुनाफ़ा आधारित निजी क्षेत्र की ओर ढकेल दिया है . इस समय कोरोना वायरस के संकट से स्पष्ट  हो गया  है कि  भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ कितनी कम हैं। मास्क और बचाव के ज़रूरी उपकरण के अभाव में डाक्टर और नर्सें स्वयं कोरोना के शिकार होकर बीमार हो रहे हैं। चीन की तो छोड़िए कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड  और सिंगापुर में  भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ भारत से कहीं बेहतर हैं। हमारे पास घरों में बैंड रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। गाँव से लेकर महानगरों तक के अस्पताल पूरी तरह अक्षम हैं।
गॉंव उजड़ रहे हैं और शहर नरक बनते जा रहे हैं .आज़ादी की लड़ाई के दौरान सबको न्याय , स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व की भावना उपलब्ध कराने का लक्ष्य पूरी तरह हासिल नहीं हुआ।
लोकतंत्र कमजोर
 

लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी कम होती जा रही है .हमारी संस्कृति में ईश्वर और यमराज से भी सवाल और तर्क करने की परम्परा रही है .लेकिन अब सवाल पूँछने के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं .सर्व धर्म – सम भाव की भावना को नकारा जा रहा है। धर्म समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने लगा है।सही दिशा में एक कदम या धीरे धीरे चलना भी ठीक है। लेकिन अब हम स्वराज़ की ओर बढ़ने के बजाय उल्टी दिशा में चलने लगे है।सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकार कम करती जा रही है .नागरिक भी अपने कर्तव्य की उपेक्षा कर रहे हैं .
लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक और समाज को जागरूक और सशक्त करने तथा सरकार के कामकाज की समीक्षा करने में मीडिया की भूमिका अहम होती है .
मीडिया दबाव में
लेकिन मीडिया पर सरकार , राजनीतिक दल और कॉरपोरेट हाउस हावी हो गये हैं .ये लोग पैसे के बल पर अपने अपने आई टी सेल बनाकर सोशल मीडिया का दुरुपयोग भी अपने प्रचार , लोगों को गुमराह और भावनाओं को भड़काने में कर रहे हैं .मीडिया संस्थानों में काम करने वाले भी घुटन महसूस कर कर रहे हैं .पत्रकारों की सेवा शर्तें बहुत ख़राब हैं . वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट निष्प्रभावी है .हम लोगों ने सुझाव दिया था कि इस ऐक्ट में संशोधन करके इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया को भी शामिल किया जाए।मीडिया कर्मियों को क़ानूनी संरक्षण दिया जाये और सेवा शर्तें बेहतर की जायें .लेकिन अब उसको ख़त्म करने की भी तैयारी है.चंद मीडिया घराने ही अपने पत्रकारों को निर्भय होकर काम करने की छूट देते हैं और मुसीबत में साथ देते हैं .सैकड़ों करोड़ का मुनाफ़ा कमाने वाले मीडिया मालिक प्रकाशन / प्रसारण सामग्री अथवा समाचार संकलन पर पर पर्याप्त खर्च नही करते।बहुत से लोग अपने उद्योग धन्धों को बचाने या ग़ैर वाजिब लाभ पाने के लिए सत्ता के आगे घुटने टेक रहे हैं।जो मीडिया घराने समाज हित के लिए काम करने की हिम्मत दिखाते हैं , उनका उत्पीड़न होता है .मीडिया से ज़हरीली बातें सुननी और देखनी भी पड़ रही हैं .इससे समाज में भय , चिंता और तनाव पैदा हो रहा है .आम , आदमी , ग़रीब , मज़दूर , मजबूर , शोषित , पीड़ित की आवाज़ मुखर करने के मंच कम होते जा रहे हैं .
अच्छे लोगों को जोड़ने, सक्रिय होने की ज़रूरत
आज के निराशाजनक माहौल में भी बहुत से लोग और संस्थाएँ अपने – अपने ढंग से अच्छा काम कर रहे हैं . समाज सेवा कर रहे हैं।एक दूसरे का सुख दुख बॉंट रहे हैं और अपने निजी जीवन में शाश्वत मूल्यों को जी रहे हैं . हालात बदलने की कोशिश भी कर रहे हैं .
आज ऐसे लोगों को जोड़ने, सक्रिय  और मुखर करने की ज़रूरत है जो स्वराज़ के सपने की याद दिलायें और उस दिशा की ओर चलने को प्रेरित करें.
हम सब समय की पुकार नहीं सुनते, तो अगली पीढ़ी इस चौतरफ़ा गिरावट के लिए हमें माफ़ नही करेगी।

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