आइए जानें क्या है काल और नक्षत्रों का ज्योतिष विज्ञान में महत्व?

काल की उपासना परब्रह्म की उपासना है। कलनात्मक काल ब्रह्म का श्वास है। इसी को भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में अपने को ‘कालः कलयतामहम्’ अर्थात् गणनायोग्य काल मैं ही हूं, कहा है। संपूर्ण विश्व में कालगणना के अपने-अपने मानक हैं, किंतु भारतीय मनीषियों ने काल का जितना सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन किया है, वह सर्वश्रेष्ठ है। ज्योतिषशास्त्र के मान्य आचार्यों नें काल के दो भेद किए- स्थूल एवं सूक्ष्म। काल की सबसे सूक्ष्मतम इकाई त्रुटि से लेकर कल्प तक का ज्योतिषशास्त्र में सफलतम निरूपण किया गया है। एक कल्प में एक हजार चतुर्युग, 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 71 चतुर्युगी तथा चारों युगों के संध्या एवं संध्यांश होते हैं। भारतीय परंपरा में धार्मिक, मांगलिक, सांस्कृतिक कार्यों के लिए सर्वप्रथम संकल्प करने का विधान है।

संकल्प के अंतर्गत कल्प से लेकर संवत्सर, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार तथा नक्षत्रादि का उच्चारण परमावश्यक माना जाता है। किसी भी धार्मिक कृत्य की पूर्णता और सफलता के लिए संकल्प एक अनिवार्य प्रक्रिया है। कालगणना के क्रम में युग गणना से छोटी इकाई संवत्सर की गणना है। आरंभ से ही संवत्सर का प्रयोग दो रूपों में होता रहा है। पहला प्रभव, विभव अथवा जय, विजय आदि साठ संवत्सर तथा दूसरा ब्रह्म, वामन, युधिष्ठिर, बौद्ध तथा विक्रम शालिवाहनीय शक आदि। संवत्सर को हायन, अब्द, वर्ष, वत्सर, शरद्, वसंत तथा कालग्रंथि भी कहा जाता है। एक संवत्सर में छह ऋतुओं के होने से इसे ऋतुवृत्ति भी कहते हैं। ‘संवसन्ति ऋतवो यत्र स संवत्सरः’ अर्थात जिसमें ऋतु तथा काल आदि निवास करते हैं, वही संवत्सर है। संवत्सर की उत्पत्ति वर्ष गणना के लिए होती है। ऋतु, मास, पक्ष, तिथि आदि संवत्सर के ही अंग हैं।

भारतीय ज्योतिषशास्त्र में प्रसिद्ध नौ प्रकार के कालमान ब्राह्म, पितृ, दैव, प्राजापत्य, गुरु, सौर, सावन, चांद्र तथा नाक्षत्र आदि संवत्सर के बोधक ही हैं, किंतु संवत्सर गणना के लिए सौर, चांद्र, बार्हस्पत्य तथा नाक्षत्र वर्ष ही प्रयोग में आते हैं। जितने समय में सूर्य नक्षत्रमंडल के किसी भी बिंदु से आगे बढ़ता हुआ पुनः उसी बिंदु पर आ जाता है अर्थात 360 डिग्री पूर्ण कर लेता है, व्यवहार में उसी को हम वर्ष कहते है। चांद्र वर्ष चंद्रमा की गति से होता है, यह 354 दिनों का होता है। चंद्रमा की अति शीघ्र गति होने से प्रत्येक तीसरे वर्ष अधिमास द्वारा संतुलन बन जाता है। ऐसे बृहस्पति की गति से बार्हस्पत्य 361 दिनों का वर्ष होता है। इससे सौरवर्ष का संबंध ठीक बना रहे, इसके लिए प्रायः 85 वर्ष बाद एक संवत्सर को लुप्त करके सामंजस्य स्थापित कर दिया जाता है। एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय के काल को नाक्षत्र दिन कहा जाता है। यह प्रतिदिन लगभग चार मिनट 24 घंटे में कम हो जाता है। इस तरह सूर्य का एक वर्ष 365.1/4 दिन जबकि नक्षत्र का वर्ष 366.1/4 दिनों का होता है। कालगणना के लिए यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भारतीय कालगणनाओं में अलग-अलग मान होते हुए भी सभी का सामंजस्य अत्यंत सूक्ष्म गणना द्वारा सर्वदा के लिए संतुलित बना दिया गया है।

प्रत्येक संवत्सर का प्रारंभ चैत्रमास शुक्लपक्ष प्रतिपदा से होता है। यही कल्प का प्रथम दिन तथा सत्ययुग के प्रारंभ का भी प्रथम दिन होने से इसे कल्पादि तथा युगादि भी कहते है। इसका प्रारंभ युगादि होते हुए भी इसके नामकरण को प्रत्येक कालखंडों में उन महाप्रतापी राजाओं के साथ जोड़कर किया गया, जिन्होंने अपने संपूर्ण राज्य में प्रजा को ऋणमुक्त कर दिया था। जैसे महाराज युधिष्ठिर, विजयाभिनंदन, नागार्जुन, विक्रमादित्य तथा शालिवाहन आदि। ये सभी संवत सर्वदा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होते रहे हैं। इसका मूल कारण बताते हुए व्यास जी कहते हैं :

चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।

शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति॥

विद्वानों का कथन है कि सनातन धर्म की दृष्टि में चैत्रमास से विधाता की सृष्टि प्रारंभ हुई थी। यह मास उत्पत्ति एवं प्रलय दोनों का विधान करता है। इसकी अमावस्या तिथि पूर्व संवत्सर की समाप्ति का तथा शुक्ल प्रतिपदा नवसंवत्सर के जीवन के आरंभ का संकेतक है। यह सामान्य मासों की भांति नहीं है। यह सभी महीनों का मुकुटमणि है। यह परम पवित्र तथा चराचर जगत को उत्साहित करने वाला है। इसीलिए इसे मधुमास कहते है। इसे प्रेम का मास भी कहा जाता है। इसमें प्रकृति नवीन रूप में परिणत होकर नववधू की भांति नवपुष्पों, फलों तथा नये पल्लवों से चित्रित होकर शोभायमान होने लगती है। इसको पाकर मदमत्त कोयल अपना मौन तोड़ देती है, भ्रमरवृंद गुंजायमान हो जाते हैं। सर्वत्र शीतल-मंद-सुगंध युक्त वायु से संपूर्ण वातावरण सुरभित हो उठता है। शीत एवं ताप दोनों शांत हो जाते हैं। इस कालखंड में कामदेव का सखा वसंत प्रकट होकर जीवंत हो उठता है। नयी शस्यश्यामला पृथ्वी बहुरंगे पुष्पों से मानव मन को वरबस आकृष्ट कर लेती है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त काल की सुंदर छटा निर्जीव को भी सजीव बना देती है। रात्रि के समय खुले आकाश में निर्मल ग्रह, नक्षत्र एवं तारों का अभ्युदय, चंद्रमा की धवल चांदनी सहृदयों के मनों को सहज ही मोहित कर लेती है। बाग-बगीचों में प्रफुल्लित आम के बौर, पुलकित कटहल, महुए के फूलों का टपकना, सेमर, टेसू तथा पलाश आदि लाल फूलों का खिलना, सहृदयों एवं कवियों को चैत्र की प्रशंसा करने के लिए बाध्य कर देता है।

यह वह मास है, जिसमें उद्विग्न एवं निराश मानवों के हृदय में प्रकृति नवीन आशा का संचार करती हुई बिना कहे ही गणना के बिना भी नववर्ष के आगमन की सूचना दे देती है, अतएव प्रजापति ब्रह्मा ने चैत्रमास को ही सृष्टि प्रारंभ के लिए चुना है। मान्यता है कि इस नववर्ष के पहले दिन स्वस्तिक आदि मांगलिक चिह्नों से युक्त ध्वजा को घर में लगाने, तोरणादि से गृहों को सजाने, स्नानोपरांत नवीन वस्त्र धारण कर इष्टदेव, गुरुदेव तथा देवी दुर्गा की आराधना, कीर्तन भजन, जप, पाठ करने से संपूर्ण वर्ष सुखमय व्यतीत होता है। ज्योतिषशास्त्रानुसार वर्ष का प्रथम दिन ही संपूर्ण वर्ष का अधिपति है। इसको आधार बनाकर ज्योतिर्विद् संवत्सरपर्यंत होने वाले शुभाशुभ फलादेशों को कहते हैं। जीवन में संतुलन बना रहे, शक्ति भी अर्जित हो अतएव साधकगण आज से नौ दिन पर्यंत भगवती दुर्गा के नवस्वरूपों की आराधना, रात्रिजागरण तथा भगवद्भजन करते हुए जगदंबा एवं भगवान श्रीहरि की कृपा प्राप्त करते हैं।

Back to top button