सुप्रीम कोर्ट बोला- अवैध संपत्ति बनाने के मामले में भगवान होता है सोना
न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा है कि जनप्रतिनिधियों या उनके सहयोगियों की संपत्तियों में बेतहाशा वृद्धि हमेशा गैरकानूनी गतिविधियों की श्रेणी में नहीं आता। भले ही उनकी गतिविधियां या क्रियाकलाप उचित नहीं हो लेकिन वे भ्रष्टाचार कानून या किसी अन्य कानून के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आते।
लेकिन यह जनप्रतिनिधि के संवैधानिक दायित्व के विपरीत है। जनप्रतिनिधि लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए होते हैं लेकिन ऐसी गतिविधियों में लिप्त होकर जनप्रतिनिधि खुद ‘शिकायत’ बन जाते हैं।
साथ ही शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं जब जनप्रतिनिधि या उनके सहयोगी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों से लोन लेते हैं। चाहे प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से।
मतलब, ये जनप्रतिनिधि या उनके सहयोगी खुद लोन लेते हैं या ऐसी संस्था व कंपनियों के नाम पर लेते हैं जिन पर उनका नियंत्रण होता है। सरफेसी कानून के तहत इस तरह केलोन एनपीए होते हैं। यह भी आजकल बहुत दिखने को मिल रहा है कि जनप्रतिनिधियों या सहयोगियों के खाते एनपीए में तब्दील होने के बावजूद उन्हें उसी वित्तीय संस्थान या किसी अन्य संस्थानों से फिर से लोन मिल जाता है।
शीर्ष अदालत ने कहा है कि सरकार या सरकार के नियंत्रण वाली निकायों से महंगे कांट्रेक्ट के जरिए जनप्रतिनिधि बेतहाशा संपत्ति अर्जित करते हैं। पीठ ने कहा कि शुरुआत में जनप्रतिनिधि कानून, 1951 में यह प्रावधान था कि अगर किसी व्यक्ति का सामानों की सप्लाई या किसी काम या सेवा में उसका कोई शेयर हो या उसे उसका फायदा मिलता हो तो वह अयोग्य ठहराया जाएगा।
लेकिन 1958 में इस प्रावधान को हटा दिया गया और एक नई धारा जोड़ी गई जिससे जनप्रतिनिधियों के सहयोगियों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी कांट्रेक्ट पाने का रास्ता निकल गया।