यादों में नारायण: ईमानदारी और काबिलियत का इतिहास बना गया राजनीति का शिखर पुरुष

एनडी तिवारी ने देश की राजनीति में अपने लिए एक अलग स्थान बनाया। लगभग सात दशक तक उनका नाम सुर्खियों में देखा जाता रहा, जो कि अपने आप में अद्भुत है। आखिरी के डेढ़ दशक में हुई उपेक्षा को भी उन्होंने मुस्कुराते हुए झेल लिया और ‘एकला चलो रे’ की धूनी रमाते हुए आगे बढ़ते रहे।यादों में नारायण: ईमानदारी और काबिलियत का इतिहास बना गया राजनीति का शिखर पुरुष

उन्होंने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में हिस्सा लेकर की और उसी के फलस्वरूप उन्हें सलाखों के पीछे भी जाना पड़ा। पिता भी स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में शामिल होने के कारण अपनी नौकरी खो चुके थे। इसलिए स्कूल-कॉलेज की फीस दे पाने तक की क्षमता नहीं थी। लेकिन लगन और मेहनत की वजह से उनके कदम कहीं नहीं रुके और आगे की पढ़ाई स्कॉलरशिप के जरिये होती गई। 

हर स्तर पर कामयाबी उनके कदम चूमती गई। बरेली और नैनीताल में पढ़ाई करने के बाद जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहुंचे तो वहां उन्होंने केवल टॉप ही नहीं किया, बल्कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के यूनियन के अध्यक्ष बनकर छात्र राजनीति में कदम रखा।

तय किया राजनीति का लंबा व संघर्षपूर्ण सफर

उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्थान बनाने के लिए तिवारीजी को संघर्ष का एक लंबा सफर तय करना पड़ा, क्योंकि न तो उनका कोई पॉलिटिकल गॉडफादर था, न ही उनका संबंध किसी जाने-माने परिवार से था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन में उन्होंने वो ऊंचाइयां छू लीं जो कि आम आदमी सपने में भी नहीं सोच सकता। 

51 वर्ष की उम्र में पहली बार यूपी का मुख्यमंत्री बनना उन दिनों आसान बात नहीं मानी जाती थी और वह भी तब, जबकि आपातकाल के दिनों में उस कुर्सी पर बैठना कांटों भरे ताज जैसा था। उन दिनों इंदिरा गांधी ने भी एक तानाशाह का रूप धारण कर लिया था। इंदिराजी के प्रिंसनुमा बेटे संजय गांधी के बढ़ते हुए वर्चस्व के नीचे एक समाजवादी स्वभाव वाले तिवारी के लिए उत्तर प्रदेश चलाना कोई आसान काम नहीं था।

बेशक उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा, ताने भी सुनने पड़े, यहां तक कि लोगों ने उन पर एक पैरोडी भी बना डाली ‘ना मैं हूं नर, ना मैं नारी, मैं हूं संजय की सवारी, मेरा नाम है नारायण दत्त तिवारी’। परंतु तारीफ की बात यह है कि इमरजेंसी के बावजूद अपनी तरफ से उन्होंने कोई भी ऐसा अलोकतांत्रिक कदम नहीं उठाया, जो कि उनके समाजवादी प्रवृत्ति से विरोधाभास रखता हो।

शालीन स्वभाव से विरोधी भी नतमस्तक

हर हाल में उन्होंने अपने मधुर वाणी को नहीं बदला और यही कारण था कि उनके शालीन स्वभाव से घोर विरोधी भी पिघल जाते थे। चाहे वह भारतीय जनता पार्टी के कल्याण सिंह रहे हों या समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, सबने हमेशा उनकी खुलकर तारीफ की। 

मुश्किल हालात का मुकाबला करना और उनसे निकलने का काफी तजुर्बा था उन्हें। पहले मुख्यमंत्रित्व काल में इमरजेंसी, दूसरे कार्यकाल में रामजन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत और तीसरे में मंडल कमीशन से उत्पन्न हुए राजनीतिक उफान के साथ-साथ अयोध्या में शिलान्यास की पेचीदगियों से जूझने में उनका काफी समय निकला।

इत्तेफाक से मैं उस दिन कालिदास मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास पर मौजूद था, जिस दिन अयोध्या में मंदिर के शिलान्यास का निर्णय होना था। तिवारीजी बड़ी दुविधा में थे, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह वहां पहुंचे, पीएम राजीव गाधी का संदेश लेकर कि ‘शिलान्यास’ किया जाएगा। तिवारीजी प्रसन्न नहीं दिखे, पर स्थिति उनके हाथ से बाहर निकल चुकी थी। कुछ ही समय बाद उनको कुर्सी छोड़नी पड़ी। लेकिन, फिर वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए।

निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता

तिवारीजी के साथ काम करने वाले उस समय के सभी बड़े या छोटे अधिकारी उनकी काबिलियत, ज्ञान, याददाश्त और निर्णय लेने की क्षमता का लोहा मानते थे। उनके समय में रहे एक मुख्य सचिव कहते थे कि उन्होंने ऐसा कोई मुख्यमंत्री नहीं देखा जो कि एक झलक में फाइल का पूरा पन्ना पढ़के सही निर्णय दे दे। 

प्रदेश पर ऐसी पकड़ थी कि किसी भी विषय पर उनसे सवाल आप पूछें तो उन्हें किसी अधिकारी की मदद नहीं लेनी पड़ती थी। प्रदेश में लगे बहुत से उद्योग और आज यूपी का सबसे बड़ा औद्योगिक केंद्र नोएडा उन्हीं की देन है।

ईमानदारी का वह शिखर 

अपनी कुर्सी का नाजायज फायदा उठाना, जो कि आजकल आम बात है, उनकी प्रवृत्ति में बिल्कुल नहीं था। इस मामले में उनकी पत्नी डॉ. सुशीला तिवारी का जिक्र करना उचित होगा। उनके तीन बार सीएम रहते हुए डॉ. सुशीला (जो कि लखनऊ के अस्पताल में गायनेकोलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत थीं) रोज सुबह अपनी पुरानी लैंडमास्टर कार स्वयं चलाते हुए ड्यूटी करने अस्पताल जाती दिख जाती थीं।

और तो और, मुझे कभी नहीं भूलता वो नजारा जब मैंने अपनी आंखों से उन्हें लखनऊ के तत्कालीन एडीएम (सिविल सप्लाइज) दिवाकर त्रिपाठी के कार्यालय में सीमेंट परमिट के लिए लाइन में खड़ा देखा। जब मैंने त्रिपाठी जी को अंदर जाकर बताया कि नारायण दत्त तिवारी की पत्नी उनके दफ्तर के बाहर लाइन में खड़ी हैं, तो तत्काल उठकर उन्हें अंदर बुलाकर लाए और परमिट बनाकर उन्हें दिया। 

उस समय जब तिवारीजी का निजी मकान महानगर में बन रहा था, वे केंद्रीय मंत्रिमंडल में देश के उद्योग मंत्री थे और पूरा सीमेंट उनके मंत्रालय के अधीन था। सीमेंट की भारी किल्लत होने के कारण सीमेंट परमिट के जरिए दिया जाता था। इसलिए उनकी पत्नी ने आम उपभोक्ता की तरह ही सीमेंट लेना पसंद किया। आज तो ऐसी बातें पहेली सी लगती हैं। 

तमाम उतार-चढ़ावों के बीच तिवारीजी शायद उन चंद नेताओं में होंगे जो कि देश के सबसे बड़े प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहने के अतिरिक्त देश के वित्त मंत्री, विदेश मंत्री, नियोजन मंत्री, उद्योग मंत्री के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे। शायद उनकी देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर पहुंचने की दिली तमन्ना भी पूरी हो जाती, यदि वे 1990 में नैनीताल लोकसभा का चुनाव 800 वोटों से न हारते।

फिर याद आए तिवारी जी 

उसके बाद 2000 में उत्तराखंड यूपी से अलग एक प्रदेश बना और कुछ ही वर्षों के बाद जब वहां स्थितियां बिगड़ीं तब फिर से तिवारीजी को ढूंढा गया वहां की कमान संभालने को। हालांकि वे उससे खुश नहीं थे क्योंकि वह उसी उत्तर प्रदेश का ही एक छोटा सा हिस्सा था, जिसकी बागडोर उन्हीं के हाथों में तीन बार रह चुकी थी। फिर भी उन्होंने उत्तराखंड को अपनी मातृभूमि मानते हुए वहां का सीएम बनना कुबूल किया। परंतु वहीं से उनकी किस्मत का सितारा डूबना शुरू हुआ।

कांग्रेस की हार के कारण उन्हें उत्तराखंड मुख्यमंत्री पद से भी इस्तीफा देना पड़ा। 82 वर्ष की उम्र में उन्हें आंध्रप्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया पर वहां जाना ही शायद उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। लखनऊ में आकर बसे तब भी मुश्किलें कम नहीं हुईं। यहां तक कि तिवारीजी जैसे पैदाइशी समाजवादी और कांग्रेसी को भाजपा में शामिल करवा दिया। उम्मीद है स्वर्गलोक में इस शलाका पुरुष की आत्मा को शांति अवश्य मिलेगी।

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