समाज की बड़ी उपलब्धि है बुलंदशहर की घटना पर सांप्रदायिक सौहार्द बने रहना

जहां मामूली घटना बड़ी लड़ाई में तब्दील हो जाती रही है. अब ये परिपाटी बदल रही है. इसका मतलब दोनों समुदाय के बीच विश्वास बढ़ रहा है. पहले से स्थिति बदली है

बुलंदशहर की घटना के बाद पश्चिम यूपी में शांति बनी रही. इसका श्रेय समाज के लोगों को देना बेहतर रहेगा. जिस तरह से लोगों ने संयम बरता ये काबिल-ए-तारीफ है. बुलंदशहर की हिंसा में दो लोगों की जान गई है. इस पर राजनीति खूब हो रही है. सत्ताधारी दल अपने हिसाब से कहानी पेश कर रहा है. हालांकि साज़िश की जांच हो रही है. इसके बरअक्स 2013 में मुज़फ्फरनगर में मामूली घटना ने विकराल रूप अख्तियार कर लिया था. इसकी वजह से कई महीने तक हिंसा होती रही, कई लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा कई लोग बेघर हो गए थे. वहीं बुलंदशहर की बड़ी घटना के बाद पूरे यूपी में खासकर पश्चिम में हालात सामान्य बने रहे, इसका मतलब दोनों समुदाय के बीच विश्वास बढ़ रहा है. पहले से स्थिति बदली है. जहां मामूली घटना बड़ी लड़ाई में तब्दील हो जाती रही है. अब ये परिपाटी बदल रही है.
कांग्रेस के नेता विश्वनाथ चतुर्वेदी का कहना है कि कांठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है, बीजेपी की नियत सही नहीं है. जनता समझ चुकी है, भविष्य की राजनीति जनता तय करेगी.
कैसे बदले हालात?
यूपी चुनाव में ध्रुवीकरण की वजह से बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला था, लेकिन सामाजिक समरसता का वातावरण बनाने की शुरूआत यूपी के चुनाव से थोड़ा पहले हुई है. हालांकि छुटपुट कोशिश 2014 के आम चुनाव के बाद शुरू किया गया था, लेकिन उस वक्त ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई थी. कोई किसी को सुनने के लिए तैयार नहीं था. दोनों समुदाय एक दूसरे को संदेह की नज़र से देख रहे थे. कई सामाजिक लोगों की कोशिश चल रही थी. कई सालों की मेहनत अब रंग ला रही है.
इस तरह का माहौल बनाने में आरएलडी के मुखिया चौधरी अजीत सिंह ने अहम भूमिका निभाई है. हालांकि कोई ठोस जानकारी नहीं है, लेकिन पहली सामाजिक पंचायत 13 फरवरी 2017 को हुई थी, जिसके बाद ये सिलसिला कई महीनों तक चला है. अजित सिंह ने एक एक गांव में कई कई घंटे गुज़ारे, जिसका फायदा ये हुआ कि सामाजिक पंचायत के ज़रिए कई मसले निपट गए. धीरे-धीरे माहौल में सुधार होने का दावा किया जा रहा है.
सांप्रदायिकता का जवाब समाज
मुज़फ्फरनगर के बाद जिस तरह की कोशिश अजित सिंह ने की है उसका आधार धार्मिक की जगह सामाजिक था. मसलन किसानों को एकजुट करने काम किया गया. जिसमें धर्म की लकीर मिट गयी है. पिछले महीने ही किसानों ने दिल्ली तक मार्च किया था. खेतिहर मज़दूरों को संगठित करने से काम आसान हुआ है. ज्यादातर खेतिहर मज़दूर दलित और मुस्लिम समाज से आते है. जिसका आर्थिक आधार खेत पर टिका है. किसान के कमज़ोर होने से इस पर निर्भर सभी लोग परेशान हुए. जिससे आपसी मतभेद भूलकर लोग फिर से अपने पुराने सामाजिक ताने बाने की तरफ पलटने लगे है. लेकिन इस सामाजिक समरसता का असली इम्तेहान राजनीतिक मैदान में होना बाकी है.

पलट रही राजनीति
मुज़फ्फरनगर की घटना के बाद सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को मिला है. लोकसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी की प्रशासनिक लापरवाही की वजह से हिंसा पर काबू नहीं हो पाया, सरकार ने भी समय रहते कोई कार्यवाई नहीं की थी. इस मौके का फायदा बीजेपी ने उठाया, बीजेपी ने इस पूरे प्रकरण को ऐसा पेश किया कि सूबे में पस्त पड़ी बीजेपी ने अचानक रफ्तार पकड़ ली थी, समाजवादी पार्टी की राजनीतिक मंशा कुछ और थी लेकिन हुआ कुछ और है. हिंसा की राजनीतिक जद में सपा भी आ गई, और पश्चिम का ध्रुवीकरण पूरब तक पहुंचा. समाजवादी पार्टी भी हाशिए पर आ गई है.
राजनीति वक्त के हिसाब से बदलती रहती है. जिसका ताज़ा उदाहरण है कैराना के उपचुनाव जिसमें सभी दल एक साथ लड़े और बीजेपी को परास्त करने में कामयाब हो गए. हालांकि बात ये नहीं कि बीजेपी हार गई, राजनीति में हार जीत का सत्ता से मतलब होता है. जो स्थाई नहीं है. बल्कि जिस तरह आरएलडी के उम्मीदवार को सभी तबके ने वोट दिया. जो लड़ाई मुज़फ्फरनगर में शुरू हुई वो कैराना में खत्म होती प्रतीत हो रही है. हालांकि जो खाई गहरी हो गई है, वो अचानक खत्म हो गई है ये दावा उचित नहीं है. बल्कि खाई कम हो रही है ये कहना सही है. लेकिन अभी भी बीजेपी का जवाब गठबंधन ही है एक दल अभी भी मुकाबला नहीं कर सकता है.
गाय, गन्ना और किसान
बुलंदशहर में बवाल गाय पर हुआ है. लेकिन किसान की समस्या गन्ना है. गन्ने की कटाई का सीज़न है. अमूमन एक किसान का मिल पर कम से कम 5 लाख रुपया बकाया है. पूरे यूपी में गन्ना किसान का 12,000 करोड़ मिलों पर बकाया है. गन्ना किसान के लिए नगद फसल है. किसान गन्ने की वजह से परेशान है. मामला गाय पर हुआ है. गाय को लेकर भी किसान सरकार के रवैये से नाराज़ है. किसान आवारा मवेशी को लेकर सरकार की तरफ से ठोस पहल चाहता है. जिसका निराकरण सरकार नहीं कर पा रही है. इससे किसानों की नाराज़गी बढ़ रही है.
जाट-मुस्लिम गठजोड़
दरअसल सांप्रदायिक हिंसा से सबसे ज्यादा नुकसान चौधरी अजीत सिंह और उनकी पार्टी को हुआ है. इससे मेहनत भी वही कर रहे हैं. जिस तरह से चुनाव में माहौल बदला उससे खुद बागपत नहीं बच पाया और जाट मुस्लिम का समीकरण टूट गया है. यही मज़बूत समीकरण था जिसका काट आसान नहीं था लेकिन मुज़फ्फरनगर के बाद ये राजनीतिक तिलिस्म भी नहीं बच पाया क्योंकि इस समीकरण का आधार सामाजिक था. लेकिन ये सामाजिक ताना बाना भी ध्वस्त हो गया था. हालांकि अभी भी ये गठजोड़ अपने पुराने स्तर पर नहीं पहुंचा है लेकिन 2013 से मजबूत हुआ है. इस जाट मुस्लिम गठजोड़ को अभी सहारे की ज़रूरत है.
खासकर दलित के समर्थन के बिना बात नहीं बनने वाली है. पश्चिम यूपी से ताल्लुक रखने वाले लोगों का कहना है कि दलित वर्ग में कसमसाहट है. बीजेपी को लेकर हमदर्दी नहीं बची है. लेकिन बीएसपी और मायावती को लेकर कशमकश है. मायावती के ढुलमुल रवैये से चन्द्रशेखर उर्फ रावण के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है. पश्चिम यूपी की दलित राजनीति में इस नवयुवक की भूमिका बढ़ गई है. इसलिए मायावती इस नए नेता से दूरी बनाए हुए हैं.
पश्चिम यूपी में राजनीतिक समीकरण
बुलंदशहर की घटना के बाद सीधे सत्ताधारी दल पर आरोप लगाया गया है. सीपीएम पोलित ब्यूरो ने बकायदा बयान जारी किया कि ये घटना मुजफ्फरनगर के पैटर्न पर हुई है. जिसका मकसद राजनीतिक लाभ लेना है. हालांकि ऐसी कोई बात नहीं हुई है. इस इलाके के रहने वाले लोगों ने दोनों तरफ की राजनीति को माकूल जवाब दिया है.
हालांकि 2013 से पहले पश्चिम यूपी खुशहाल इलाका था. हरित क्रांति की वजह से आर्थिक रूप से समृद्ध है. लेकिन दंगों के दाग लग गए है. जाट समुदाय की आबादी यहां 30 फीसदी तक है. मुस्लिम 26 फीसदी, ये दोनों मिलकर बड़ी ताकत है. एक दूसरे पर निर्भर भी हैं. अगर ये समीकरण फिर से बनने में कामयाब हुआ तो इसका 2019 के चुनाव में खासा असर हो सकता है. 2019 में भी चुनाव में पश्चिम यूपी की अहम भूमिका थी इस बार भी रहेगी लेकिन इस बार मुद्दा किसान का हो सकता है.

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