शहर में तमाम ऐसे लोग हैं, जो धर्म या जाति से ऊपर उठकर निभा रहे इंसानियत का धर्म……

अयोध्या मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सभी धर्मों के लोग स्वागत करने के साथ ही इसे देशहित में बता रहे हैं। हर जगह सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश की जा रही है। यदि अपने शहर की बात करें तो यहां पर गंगा जमुनी तहजीब की झलक कई स्थानों पर देखने के लिए मिल जाएगी। शहर में तमाम ऐसे लोग हैं, जो धर्म या जाति से ऊपर उठकर इंसानियत का धर्म निभा रहे हैं। ये मंदिर व मस्जिद से ऊपर उठकर समाज सेवा व भाईचारा को मजबूत करने में जुए हुए हैं। आइए आपको कुछ ऐसे ही खास लोगों से रूबरू कराते हैं।

जितने मुस्लिम उतने ही हिंदुओं के ‘शफीक’ 

अपने अपने समाज के सामूहिक वैवाहिक समारोह के लोगों के बड़े-बड़े होर्डिंग और बैनर शहर में अक्सर नजर आ जाते हैं लेकिन इन सबसे दूर मोहम्मद शफीक ऊर्फ बाबू झक्की का नाता सिर्फ इंसानियत का है। अपने नाम शफीक (प्रिय लगने वाला) के मुताबिक ही वह हिंदू-मुस्लिम दोनों के दिल के करीब हैं। वह गरीब मुस्लिम बेटियों का निकाह कराते हैं तो साथ में हिंदू बेटियों की भी शादी होती है। संख्या में कोई भेदभाव नहीं होता। पांच मुस्लिम बेटियां होती हैं तो पांच हिंदू लड़कियां भी। वह हिंदू बेटियों का पिता की तरह कन्यादान करते हैं और उपहार देकर उन्हें विदा करते हैं।

70 वर्ष की आयु में भी बेबाकी से बात रखने का अंदाज, बात-बात में निकलती शेर ओ शायरी बाबू झक्की के मिजाज को बताने के लिए काफी हैं। सात वर्ष की आयु में ही हिंदू, मुस्लिम दोनों के धार्मिक कार्यक्रमों में मदद करने के लिए जुट जाने वाले मोहम्मद शफीक पास के मंदिर में बुढ़वा मंदिर समिति में सहयोग करते थे। समय बदला तो वह लड़कियों की शादी में आधी कीमत पर चीनी देने लगे। बात आगे बढ़ी तो वर्ष में एक बार एक हजार गरीब विधवाओं को 10 किलो आटा और एक किलो दाल देने का कार्य शुरू हो गया। असली कार्य तो 2013 में शुरू हुआ जब वह हज पर गए। वहां उन्होंने कसम खाई कि जब तक अपनी बेटी की तरह ही 20 लड़कियों की शादी नहीं कर देंगे तब तक दोबारा नहीं आएंगे। इसके बाद चार वर्ष लगे।

दो अप्रैल 2017 में पहली बार सामूहिक विवाह किया। इसमें पांच हिंदू और पांच मुस्लिम लड़कियों का विवाह कराया। हिंदू और मुस्लिम लड़कियों का सामूहिक विवाह का यह शहर में अपनी तरह का अनोखा अवसर था। हिंदू लड़कियों के विवाह के लिए सिद्धेश्वर मंदिर को कार्यक्रम स्थल बनाया गया। वहीं मुस्लिम लड़कियों का निकाह बाबू झक्की के आवास पर हुआ। बाबू झक्की के मुताबिक उन्होंने ङ्क्षहदू लड़कियों का कन्यादान भी किया और उन्हें उपहार भी दिए। अगले वर्ष 23 मार्च को फिर पांच हिंदू और पांच मुस्लिम लड़कियों की शादी कराई गई। पहले वर्ष जहां रावतपुर की एक कन्या थी वहीं दूसरे वर्ष पांचों कन्याएं रावतपुर की हो गईं। 20 लड़कियों की शादी होने के तुरंत बाद वह फिर हज पर निकल गए। उनके मुताबिक अब अगले वर्ष वह फिर पांच हिंदू और पांच मुस्लिम लड़कियों का विवाह कराएंगे।

फूलों के साथ ये नौजवान करते हैं अमन की बरसात

माथे पर तिलक और भगवा गमछे कई हिंदू युवा और उनके दोस्तों की टोली में शामिल मुस्लिम युवक। दोनों मिलकर ढकना पुरवा से गुजर रहे मोहम्मदी जुलूस पर फूल बरसा रहे हैं। सांप्रदायिक सौहार्द का यह एकतरफा चेहरा नहीं है जनाब। दोस्तों की यह टोली इसी उत्साह के साथ गणेशोत्सव की आरती में भी फूल बरसाती है और विसर्जन में भी शामिल होती है।ढकना पुरवा के करीब दो दर्जन युवा दोस्तों की यह टोली ही इस देश का युवा चेहरा है। यही हमारी साझी विरासत के नए पहरुए हैं। इस टोली में शामिल शीलू ठाकुर कहते हैं कि यह कोई नया काम नहीं है। हम तो कई साल ये यह काम करते रहते हैं। हम दोस्त हैं, साथ खाते-पीते हैं। मस्ती करते हैं तो सुख-दुख और त्यौहारों में भी एक दूसरे के साझीदार हैं। हाथ उठाकर अबु हुसैन खान की ओर इशारा करते हैं कि जब गणेशोत्सव होता तो आप इसका उत्साह देखिए। सैयद जमीर, मोहम्मद शारिफ, रजा सिद्दीकी यह सब विसर्जन तक हमारे साथ रहते हैं। अबु हुसैन कहते हैं कि सारे धर्मों से बड़ा इंसानियत का धर्म है। हम तो उसी के रास्ते पर चलते हैं। शीलू ठाकुर, किशन तिवारी, जीतू शुक्ला, आदित्य शुक्ला, मनोज, जैकी, करण, सौरभ मधुकर यह सारे चेहरे जो जुलूसे मोहम्मदी में फूल चढ़ा रहे हैं। यह हमारे दोस्त हैं। जब यह हमारे साथ इतना करते हैं तो हमें भी इनके त्योहार में शामिल होने से कोई गुरेज नहीं। आखिर दोस्ती भी तो एक मजहब है।

लालू मियां की धुन पर रामलीला, उर्दू-फारसी में स्वागतगान

आपने अगर पाल्हेपुर गांव की रामलीला नहीं देखी तो कुछ नहीं देखा। यहां की रामलीला महज प्रभु श्रीराम के चरित्र का मंचन भर नहीं है बल्कि वह मंच है जहां गंगा-जमुनी संस्कृति से सींची इस देश की साझी विरासत की झांकी नजर आती है। हिंदू-मुस्लिम एक भाव में राम की प्रीत-रीत, बिना भेदभाव एक-दूसरे के प्रति प्रेम के संदेश को आत्मसात करते हैं। भाईचारे और सांप्रदायिक सौहार्द की भीनी खुशबू से भरे यहां के माहौल में होने वाली रामलीला का दृश्य देखिए। यहां लालू मियां की शहनाई पर गोस्वामी तुलसीदासजी की रचित रामचरित मानस की चौपाइयां इतराती हैं तो फारसी व उर्दू में लिखे स्वागतगान से श्रीराम की अगवानी होती है।

पाल्हेपुर गांव में 158 साल पहले वाराणसी से आए संत स्वामी गोविंदाचार्य ने रामलीला की शुरुआत कराई थी। हर साल यहां दशहरा से दीपावली तक 20 दिवसीय रामलीला होती आ रही है। बिधनू-मंझावन गांव के गज्जोदी मियां ने मानस की चौपाइयों पर शहनाई बजाना शुरू किया था। यह परंपरा उनके बेटे कक्कू, फिर लतीफ, फिर कल्लू मियां और अब पांचवीं पीढ़ी के लालू मियां निभा रहे हैं। इन्होंने कभी रामलीला कमेटी से इसका पारिश्रमिक भी नहीं लिया। जब मंच पर श्रीराम का परिवार आता है तो स्वागत फारसी-उर्दू में लिखे गए ढाई (स्वागत गान) से होता है- ‘आइयो बढ़ाइयो दौलत को, राह पे रकीब कदम पर कदम। माहे कातिब से निगाहें रूबरू, आदमश्यादा, उमर दौलतज्यादा, श्रीरामचंद्र मेहरबां सलामो। जिसका अर्थ है ‘हे रामचंद्र जी, आप आइये और हमारी दौलत को बढ़ाइये। हमारे कदम-कदम पर दुश्मन हैं, पर इस महीने आपके प्रत्यक्ष दर्शन होने पर इन पंक्तियोंं को लिखने वाले की उम्र और दौलत बढ़ेगी।

हे रामंचद्रजी आपकी मेहरबानी है आपको सलाम है। समिति के महामंत्री कल्याण ङ्क्षसह बताते हैं कि इस वर्ष लालू मियां के अलावा उनके भाई चांद खां, मोहम्मद नजीर खान, मो. शान, रहीश आलम ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। भगवान की सवारी रथ में प्रयुक्त होने वाले काठ के घोड़ों के वस्त्रों व परिधानों की सिलाई गांव के ही शकील व झुर्री मियां करते आ रहे हैं। शहनाई वादक लालू मियां का कहना है कि यह रामलीला हमारा अपना आयोजन है। इसमें पूरे गांव की आस्था है। मैं तो अपने पूर्वजों की परंपरा ही निभा रहा हूं। श्रीराम तो सबके हैं।

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