बेजुबान को भी जुबान देता है नाटक

 

मुकेश वर्मा
जीवन की मरीचिका में नाटक का हमेशा विशेष स्थान रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में टीवी पर प्रसारित रामानंद सागर की रामायण का प्रसारण है, जिसने बड़े बड़े टीवी चैनलों की टीआरपी को ध्वस्त करते हुए अभिनय मनोभावो की पताका पहरा दी। इसकी चर्चा सड़क से संसद तक जमकर हुई। इस सीरियल की चर्चा क्यों हुई, यह सभी जानते है लेकिन साहित्यिक द्रष्टिकोण से जानना आवश्यक हो जाता है । दरअसल नाटक ‘नट’ शब्द से निर्मित है, जिसका आशय हैं— सात्त्विक भावों का अभिनय।

नाटक काव्य की विधा मानी जाती है। काव्य दो प्रकार के माने गये हैं— श्रव्य और दृश्य। नाटक दृश्य काव्य के अंतर्गत आता है और इसका प्रदर्शन रंगमंच पर होता हैं। पर दृष्टि द्वारा मुख्य रूप से इसका ग्रहण होने के कारण दृश्य काव्य मात्र को नाटक कहने लगे हैं। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र इस विषय का सबसे प्राचीन ग्रंथ मिलता है। अग्निपुराण में भी नाटक के लक्षण आदि का निरूपण है। उसमें एक प्रकार के काव्य का नाम प्रकीर्ण कहा गया है। इस प्रकीर्ण के दो भेद है— काव्य और अभिनेय। अग्निपुराण में दृश्य काव्य या रूपक के 27 भेद कहे गए है – नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सट्टक, शिल्पक, विलासिका,दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिका, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशक, काव्य, श्रीनिगदित, नाटयरासक, रासक, उल्लाप्यक और प्रेक्षण।
भारतेंदु हरिशचन्द्र ने नाटक के लक्षण देते हुए लिखा है– ‘नाटक शब्द का अर्थ नट लोगों की क्रिया हैं।’ दृश्य-काव्य की संज्ञा-रूपक है। रूपकों मे नाटक ही सबसे मुख्य है इससे रूपक मात्र को नाटक कहते है। बाबू गुलाबराय के अनुसार ‘नाटक मे जीवन की अनुकृति को शब्दगत संकेतों मे संकुचित करके उसको सजीव पात्रों द्वारा एक चलते-फिरते सप्राण रूप में अंकित किया जाता है।’ नाटक मे फैले हुए जीवन व्यापार को ऐसी व्यवस्था के साथ रखते है कि अधिक से अधिक प्रभाव उत्पन्न हो सके। नाटक का प्रमुख उपादान है उसकी रंगमंचीयता।

हिन्दी साहित्य मे नाटकों का विकास वास्तव मे आधुनिक काल मे भारतेंदु युग मे हुआ। भारतेंदु युग से पूर्व भी कुछ पौराणिक, राजनैतिक, सामाजिक, आदि विषयों को लेकर नाटक रचे गए थे । सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी मे रचे गए नाटको मे मुख्य है– ह्रदयरामकृत- हनुमन्त्राटक, बनारसीदास- समयसार आदि।
नाटक या दृश्य काव्य के मुख्य दो विभाग हैं – रूपक और उपरूपक। रूपक के दस भेद हैं – रूपक, नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, ड़िम, ईहामृग, अंकवीथी और प्रहसन। उपरूपक के अठारह भेद हैं – नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाटयरासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणिका, हल्लीशा और भणिका।
उपर्युक्त भेदों के अनुसार नाटक शब्द दृश्य काव्य मात्र के अर्थ में बोलते हैं। नाटक किसी प्रसिद्ध आख्यान को लेकर लिखाना चाहिए। वह विलास, सुख, दुःख, तथा अनेक रसों से युक्त होना चाहिए। इसमें पाँच से लेकर दस तक अंक होने चाहिए। नाटक के प्रधान या अंगी रस श्रृंगार और वीर हैं। शेष रस गौण रूप से आते हैं। शांति, करुणा आदि जिस रुपक में में प्रथान हो वह नाटक नहीं कहला सकता। संधिस्थल में कोई विस्मयजनक व्यापार होना चाहिए। भारतीय नाट्य परंपरा के अनुसार उपसंहार में मंगल ही दिखाया जाना चाहिए। वियोगांत नाटक भारतीय नाट्य परंपरा के विरुद्ध है।

नाटक की कथावस्तु पौराणिक, ऐतिहासिक, काल्पनिक या सामाजिक हो सकती है। पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र ही नाटक की जान होता है। कथावस्तु के अनुरूप नायक वीर, धीर ललित, धीर शांत या धीरोद्धत हो सकता है। अभिनय नाटक का प्रमुख तत्व है। इसकी श्रेष्ठता पात्रों के वाक्चातुर्य और अभिनय कला पर निर्भर है। मुख्य प्रकार से अभिनय चार प्रकार का होता है।
1 – आंगिक अभिनय : यह शरीर से किया जाने वाला अभिनय होता है, जिसमें शरीर के भावों के माध्यम से दर्शको का ध्यान आकर्षित करते है।
2 – वाचिक अभिनय : इसमें संवाद का अभिनय होता है, जिसे आप रेडियो नाटक के रूप में सुनते हैं।
3 – आहार्य अभिनय : इसमें वेषभूषा, मेकअप, स्टेज विन्यास्, प्रकाश व्यवस्था आदि को प्रमुखता दी जाती है।
4 – सात्विक अभिनय : इसका तात्पर्य अंतरात्मा से किया गया अभिनय से है ।
कथावस्तु
कथावस्तु को ‘नाटक’ ही कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ की संज्ञा दी जाती है, जिसका अर्थ आधार या भूमि है। कथा तो सभी प्रबंध का प्रबंधात्मक रचनाओं की रीढ़ होती है और नाटक भी, क्योंकि यह प्रबंधात्मक रचना है। इसलिए कथानक इसका अनिवार्य है। भारतीय आचार्यों ने नाटक में तीन प्रकार की कथाओं प्रख्यात, उत्पाद्य और मिस्र प्रख्यात कथा का निर्धारण किया है। प्रख्यात कथा इतिहास व पुराण से प्राप्त होती है। उत्पाद्य कथा कल्पना पराश्रित होती है। इसमें इतिहास और कथा दोनों का योग रहता है।
इन कथा आधारों के बाद नाटक कथा को मुख्य, गौण अथवा प्रासंगिक भेदों में बांटा जाता है। इनमें से प्रासंगिक के भी आगे पताका और प्रकरी है । पताका प्रासंगिक कथावस्तु मुख्य कथा के साथ अंत तक चलती है। जब प्रकरी बीच में ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त नाटक की कथा के विकास हेतु कार्य व्यापार की पांच अवस्थाएं प्रारंभ प्रयत्न, परपर्याशा नियताप्ति और कलागम होती है। इसके अतिरिक्त नाटक में पांच संधियों का प्रयोग भी किया जाता है।
वास्तव में नाटक को अपनी कथावस्तु की योजना में पात्रों और घटनाओं में इस रुप में संगति बैठानी होती है कि पात्र कार्य व्यापार को अच्छे ढंग से अभिव्यक्त कर सके। नाटककार को ऐसे प्रसंग कथा में नहीं रखनी चाहिए जो मंच के संयोग ना हो। यदि कुछ प्रसंग बहुत आवश्यक है तो नाटककार को उसकी सूचना कथा में दे देनी चाहिए।
पात्र एवं उनका चरित्र चित्रण
नाटक में नाटक का अपने विचारों, भावों आदि का प्रतिपादन पात्रों के माध्यम से ही करना होता है। अतः नाटक में पात्रों का विशेष स्थान होता है। प्रमुख पात्र अथवा नायक कला का अधिकारी और समाज को उचित दशा तक ले जाने वाला होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार वह विनयी, सुंदर, शालीनवान, त्यागी, उच्च कुलीन होना चाहिए। किंतु आज नाटकों में किसान, मजदूर आदि कोई भी पात्र हो सकता है। पात्रों के संदर्भ में नाटककार को केवल उन्हीं पात्रों की सृष्टि करनी चाहिए, जो घटनाओं को गतिशील बनाने में तथा नाटक के चरित्र पर प्रकाश डालने में सहायक होते हैं।
नाटक में संवाद की भूमिका
नाटक में नाटकार संवादों द्वारा ही वस्तु का उद्घाटन तथा पात्रों के चरित्र का विकास करता है। अतः इसके संवाद सरल , सुबोध , स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल होने चाहिए। गंभीर दार्शनिक विषयों से इसकी अनुभूति में बाधा होती है। इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। नीर सत्ता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों की मनोकामना के लिए कभी-कभी स्वागत कथन तथा गीतों की योजना भी आवश्यक समझी गई है जिसका प्रयोग कर सकते हैं।
आदिम युग में लोग दिन भर शिकार करने के बाद शाम को अपने-अपने शिकार के साथ कही खुले में एक घेरा बनाकर बैठ जाते थे। उस घेरे के बीच ही उनका भोजन पकता रहता, खान-पान होता और वही बाद में नाचना-गाना होता। इस प्रकार शुरू से ही नुक्कड़ नाटकों से जुड़े तीन ज़रूरी तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी। प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग संबंध और सीधे-सीधे दर्शकों की रोज़मर्रा की जिंद़गी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन।
इसका विकसित रूप हमें आज से लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले यूनान में थेस्पिस नामक अभिनेता घोड़ागाड़ी या भैसागाड़ी में सामान लादकर, शहर-शहर घूमकर सड़कों पर, चौराहों पर अथवा बाज़ारों में अकेला ही नाटकों का मंचन किया करता था। हालांकि भारत में इससे भी पूर्व से लव और कुश नाम के दो कथावाचकों के माध्यम से रामायण महाकाव्य को जगह-जगह जाकर, गाकर सुनाने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। यह लव-कुश राम के पुत्रों के रूप में तो प्रसिद्ध हैं ही, बाद में इन्हीं के समांतर नट या अभिनेता को भी हमारे यहां कुशीलव के नाम से ही जाना जाने लगा। संभवत: यही कारण है कि नाटकों के लगातार खुले में मंचित होते रहने के मद्देनज़र भरत ने भी अपने नाट्यशास्त्र में दश रूपक विवेचन के अंतर्गत ‘वीथि’ नामक रूपक का भी उल्लेख किया है। आज भी आंध्र प्रदेश में लोकनाट्य परंपरा की एक शैली का नाम की ‘वीथि नाटकम’ मिलता है और आधुनिक नुक्कड़ नाटक को भी इसी नाम से जाना जाता है।
मध्यकाल में सही रूप में नुक्कड़ नाटकों से मिलती-जुलती नाट्य-शैली का जन्म और विकास भारत के विभिन्न प्रांतों, क्षेत्रों और बोलियों-भाषाओं में लोक नाटकों के रूप में हुआ। उसी के समांतर पश्चिम में भी चर्च अथवा धार्मिक नाटकों के रूप में इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और स्पेन आदि देशों में ऐसे नाटकों का प्रचलन शुरू हुआ, जो बाइबिल की घटनाओं पर आधारित होते थे । ये नाटक भी खुले में, मैदानों और चौराहों और बाज़ारों में दिन की रोशनी में ही ही मंचित किए जाते थे। भारत में नाटक अपने आरंभ काल से ही ज़्यादातर रात में ही खेले जाते थे। इसलिए भारतीय नाटकों में प्रकाश व्यवस्था का बहुत विकास हुआ।
आधुनिक नुक्कड़ नाटकों का इतिहास भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान कौमी तरानों, प्रभात फेरियों और विरोध के जुलूसों के रूप में देखा जा सकता है। इसी का एक विधिवत रूप इप्टा जैसी संस्था के जन्म के रूप में सामने आया, जब पूरे भारत में अलग-अलग कला माध्यमों के लोग एक साथ आकर मिले और क्रांतिकारी गीतों, नाटकों व नृत्यों के मंचनों और प्रदर्शनों से विदेशी शासन एवं सत्ता का विरोध आरंभ हुआ। इस प्रकार किसी भी गल़त व्यवस्था का विरोध और उसके समांतर एक आदर्श व्यवस्था क्या हो सकती है । यही वह संरचना है, जिस पर नुक्कड़ नाटक की धुरी टिकी हुई है। आज तो स्थिति यह हो गई है कि बड़ी-बड़ी व्यावसायिक-व्यापरिक कंपनियां अपने उत्पादनों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटकों का प्रयोग कर रही हैं । सरकारी तंत्र भी अपनी नीतियों-निर्देशों के प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक जैसे माध्यम का सहारा लेता है और राजनीतिक दल चुनाव के दिनों में अपने दल के प्रचार-प्रसार के लिए इस विधा की ओर आकर्षित होते हैं।
ऐसे में नुक्कड़ नाटकों के बहुविध रूप और रंग दिखाई पड़ते है। नाटक का स्वरूप उसका प्रभाव लोगो के दिलो दिमाग पर गहरा प्रभाव छोड़ता है। वह जन मानस के बीच पहले भी अपना विशेष स्थान रखता था और आज भी लोगों के मनमस्तिष्क में गहरा प्रभाव रखे हुए है। वास्तव में नाटक सत्य का दूसरा स्वरूप है, जो बेजुबान को भी जुबान देता है ।
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