प्रेम पतंग के रंग-प्रसंग

लेखक: उर्मिल कुमार थपलियाल
अब जिसने कभी हाथ में चरखी ही न पकड़ी हो वो क्या खाके पतंग उड़ाएगा और जिसने कभी पतंग ही न उड़ाई हो, क्या पीके पेंच लड़ाएगा। जो नालायक पेंच न लड़ा पाया वो क्या किसी के कन्ने काटेगा। ये काम तो शोहदे और छिछोरे का है। भले काटने वाला ही सिद्धहस्त लगंड़बाज होता है। जिसे कटिया फंसाने का हुनर नहीं आता वह खंभे से बिजली की चोरी कर ही नहीं सकता। संपादक के लिए जरूरी है कि उसे प्रूफ रीडिंग आती हो। अधनंगा होने से कोई महात्मा गांधी नहीं हो जाता। आतंकवादी होने के लिए भले ही जैसे कभी पतंग नहीं उड़ाई मगर लूटी तो है। इस लूट में पतंग के परखच्चे उड़ गये थे अलग बात है। इस लूट में वही आनंद है जो थाने में अबला औरत की उपस्थिति में थानेदार जी को आता है। मेरे दोस्त पतंग उड़ाते मैं चरखी पकड़े रहता। बिना विभाग के मंत्री जैसा। नाटक में पर्दा खींचने वाले की हेसियत होती ही क्या है, दूसरों का हनीमून देखते अधेड़ और कुंवारों जैसी स्थिति किसी की न हो। छत पर जब पतंगनाथ जड़ते हों मेरा ध्यान छत पर बंड़ियां सुखाती लड़कियों पर रहता।
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एक दिन एक कन्या ने ईंट के टुकड़े में एक प्रेमपत्र लपेट कर मेरी छत पर फेंका। पत्र लाल स्याही से लिखा था। लिखा था कि लिखती हूं खूने जिगर से, स्याही न समझना वन ऐण्ड टू। हाउ डू यू डू। यू लव अदर्स बट आई लव यू। मैंने देखा लड़की अपनी छत पर नई पतंग की तरह उछाल मार रही थी। मैंने भी फेंका। उसने लपक लिया और चिल्लाई कि- वो काटा, मैं घबरा गया। पतंगबाज ने मेरे सर पर टीप मारी कि साले ज्यादा उड़ मत। चरखी थाम के बैठ वरना छत से फेंक देंगे। मैं अपनी नजरों में गिर गया। इसके बाद मैंने अकेले कई बार प्रेम पतंगें उड़ाई। मांझा सूता, महीन तार लगाया। सददी पर कांच का बुरादा लगाया मगर कोई पतंग फंसी नहीं। काटता क्या! एक दिन भाभी बोली, देवर जी पतंग उड़ाने का हौसला रखते हो तो काटने की तमीज भी सीखो।
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भाभी की बात मुझे चुभ गयी। मैंने अबकी बार पूरी तैयारी के साथ पतंग उड़ाई। दूसरी छत पर एक कन्या नई पतंग की तरह फिरकिया ले रही थीं। मैंने तान के घिस्सा मारा। मगर मेरी ही पतंग कट गयी। दरअसल, पड़ोसी की कन्या की पतंग किसी दूसरे कनकव्वे के साथ उलझी हुई थी। बाद में सुना वह उसी कनकव्वे के साथ शादी करके अमीनाबाद चली गयी थी। मैं चर्खी पकड़े रोता रह गया। आज सोचता हूं काश मैं भी कटी पतंग होता तो लड़कियों के बीच कटने फटने का आनंद तो ले पाता। मैं तो अब ऐसी कटी फटी पतंग हूं जो अपनी घर गृहस्थी की गली में छितरे बिजली के तारों के बीच फंसी उलझी हुई हो। मुझे तो अब मौसम और करंट दोनों को झेलना है। मुर्दे को नींद न भी आये तो क्या फर्क पड़ता है। l
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