एनडीए को मिली हार और विपक्ष को मिली ऐसी शानदार जीत की नहीं थी उन्हें उम्मीद..
उप चुनाव में हार पर सत्ता पक्ष की स्थायी प्रतिक्रिया होती है-आम चुनाव के परिणाम हमारे पक्ष में आएगा। कुछ सीटों पर जीत से इतराया विपक्ष कहता है-हम सेमी फाइनल जीत गए। फाइनल में तो हमारी जीत पक्की है। लेकिन, बिहार विधानसभा की पांच सीटों पर हुए उप चुनाव के परिणाम को देखें तो यही लगेगा कि पक्ष-विपक्ष की रणनीति से इतर आम आदमी का भी अपना एजेंडा भी होता है। वह परिणाम को अप्रत्याशित कर देता है। दोनों पक्ष चकित रह जाते हैं-यह कैसे हो गया? बिहार में यही हुआ। एनडीए को ऐसी हार और विपक्ष को इतनी शानदार जीत की उम्मीद नहीं थी।
दोनों पक्ष आराम से लड़ रहे थे। दरौंदा में एनडीए के घोषित उम्मीदवार अजय सिंह के खिलाफ भाजपा के जिलाध्यक्ष कर्णजीत सिंह निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे। वह जीते भी। मतदान से तीन दिन पहले पार्टी ने कर्णजीत सिंह को छह साल के लिए निकाल दिया।
जीत के बाद कर्णजीत सिंह ने कहा-मुझे पार्टी से निकालने का कोई कागज नहीं मिला। मैं भाजपा में था, हूं और रहूंगा। यह स्थानीय स्तर पर एनडीए के खराब समन्वय का उदाहरण है। मतलब भाजपा प्रदेश इकाई के निर्देश का स्थानीय इकाई पर असर नहीं पड़ा। भाजपा के कार्यकर्ता जदयू उम्मीदवार अजय सिंह के बदले अपनी पार्टी के बागी के पक्ष में प्रचार करते रहे।
विपक्षी महागठबंधन का हाल भी कुछ अलग नहीं था। हिन्दुस्तानी आवामी मोर्चा और वीआइपी के उम्मीदवार सिमरी बख्तियारपुर और नाथनगर में राजद उम्मीदवार को पानी पिला रहे थे।
सिमरी बख्तियारपुर में राजद की जीत हुई तो अब विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी कह रहे हैं कि उस सीट पर रणनीति के तहत हमने अपना उम्मीदवार उतारा। ताकि हमारा उम्मीदवार एनडीए का वोट काटकर वह राजद की राह आसान कर दे। सच यह है कि महागठबंधन में सीटों को लेकर खूब लड़ाई हुई थी।
अलग रणनीति पर चले वोटर
लेकिन, वोटर की रणनीति कुछ अलग कहानी कह रही है। परिणाम का एक विश्लेषण यह है कि परिवारवाद को नकार दिया गया। इसे कांग्रेस के सांसद डा. जावेद की मां सइदा बानो की किशनगंज में, जदयू सांसद गिरिधारी यादव के भाई लालधारी यादव की बेलहर में और कविता सिंह के पति अजय सिंह की दरौंदा में हुई हार में देखा जा सकता है।
समस्तीपुर लोकसभा के उप चुनाव में लोजपा के प्रिंस राज की जीत चौंकाने वाली नहीं है। वह अपने दिवंगत पिता की असामयिक मौत के बाद चुनाव मैदान में गए थे। सहानुभूति वोट का सीधा लाभ उन्हें मिला। कांग्रेस ने भी अपने उम्मीदवार डा. अशोक कुमार को शायद लगातार हारने का रिकार्ड बनाने के लिए ही उतारा था। सो, वह परिणाम किसी को अप्रत्याशित नहीं लग रहा है। समस्तीपुर से डा. कुमार लगातार तीसरी बार हारे हैं।
दोनों के लिए है संदेश
बहरहाल, बिहार विधानसभा के चुनाव में ठीक एक साल का समय रह गया है। उप चुनाव परिणाम अगर कोई संकेत नहीं देता है तो कोई बात नहीं। अगर कुछ संकेत देता है तो यही है कि सत्तारूढ़ एनडीए को बिल्कुल नए सिरे से रणनीति बनानी होगी। इस भाव से उबरना होगा कि जिसे टिकट देंगे, वह जीत ही जाएगा।
विपक्ष के लिए संदेश है कि वह अधिक मजबूती से चुनाव की तैयारी करे। उप चुनाव के परिणाम पर जिस तरह का उत्साह आज राजद कार्यालय में दिखाया जा रहा था, वही आने वाले दिनों में कायम रहा तो एनडीए को अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि, उत्साह का प्रदर्शन इस तरह हो रहा था, जिससे लोगों में डर पैदा हो।
राजद का यही भय राज्य के चुनाव में एनडीए को बढ़त दिलाता रहा है। एक और छिपा हुआ संदेश दरौंदा-किशनगंज के परिणाम में है-लोग एनडीए और महागठबंधन से अलग भी देखने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों सीटों पर वोटरों ने भाजपा-कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय और जदयू जैसी मजबूत क्षेत्रीय पार्टी के उम्मीदवारों को खारिज कर दिया। एक जगह निर्दलीय तो दूसरी जगह ओवैसी की पार्टी एमआइएम के उम्मीदवार को मौका दिया।