एग्जिट पोल में: फेल रहे अखिलेश यादव के दोनों ही दांव

उत्तर प्रदेश की राजनीति में टीपू के नाम से मशहूर अखिलेश यादव ने जिस दिन से समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कमान संभाली है, तब से उनके लिए राजनीतिक तौर पर कोई अच्छी खबर नहीं आई है. पार्टी पर वर्चस्व के लिए परिवार को दांव पर लगा चुके अखिलेश यादव चुनाव-दर चुनाव नया प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन उनका कोई भी प्रयोग सफल नहीं हो पा रहा है. मौजूदा लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले आए एग्जिट पोल भी अखिलेश यादव के सबसे बड़े फैसले के असफल होने की गवाही दे रहे हैं.

आजतक-एक्सिस माई इंडिया के एग्जिट पोल में यूपी की 80 सीटों में से सपा-बसपा गठबंधन को महज 10-16 सीटें मिलने का अनुमान है. ये वो आकंड़ा है जो न सिर्फ बीजेपी विरोधियों को परेशान करने वाला है, बल्कि खुद अखिलेश यादव को सिरदर्द देने वाला है. इससे कहीं ज्यादा अखिलेश यादव की राजनीतिक समझ और फैसलों का भी यह लिटमस टेस्ट माना जाएगा. क्योंकि अपने दम पर समाजवादी पार्टी की राजनीति चमकाने वाले मुलायम सिंह यादव की धारा से हटकर गठबंधन से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की योजना बनाने वाले अखिलेश यादव अपने इरादों में कामयाब नहीं हो पाए हैं.

2017 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन

2012 में अखिलेश यादव पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने विकास कार्यों पर जोर दिया और 2017 का विधानसभा चुनाव आते-आते ‘विकास बोलता है’ जैसे नारों पर चुनाव भी लड़ा. इतना ही नहीं, चाचा शिवपाल यादव को किनारे रख अखिलेश यादव ने न सिर्फ खुद समाजवादी पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली, बल्कि बीजेपी और बसपा को चुनौती देने के लिए राहुल गांधी से हाथ भी मिलाते हुए यूपी को ये साथ पसंद का है नारा दिया. यूपी के दोनों लड़कों ने मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ा लेकिन मोदी के नाम पर बीजेपी की ऐसा हवा चली कि सभी विरोधी धराशाई हो गए. लिहाजा, सपा की कमान मिलते ही अखिलेश यादव का पहला राजनीतिक निर्णय फेल हो गया.

इस हार के बाद अखिलेश यादव ने एक ऐसा फैसला लिया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. बीजेपी के खिलाफ सपा-बसपा और आरएलडी मिलकर कैराना, फूलपुर व गोरखपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में उतरे. ये फॉर्मूला चल निकला और तीनों सीटों पर बीजेपी हार गई. इस जीत ने बीजेपी विरोधी खेमे में जान फूंक दी और सपा-बसपा गठबंधन के आइडिया ने जन्म ले लिया. इस आइडिया को अखिलेश यादव ने अंजाम तक पहुंचाने का काम किया. आजतक के इंटरव्यू में अखिलेश ने बताया था कि उन्हें हर हाल में यह गठबंधन करना ही था.

गठबंधन फॉर्मूला के तहत बसपा ने 38, सपा ने 37 और आरएलडी ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि अमेठी व रायबरेली सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी गईं. अखिलेश ने मायावती के साथ जमकर प्रचार भी किया. यहां तक कि मायावती और मुलायम सिंह यादव को भी अखिलेश एक मंच पर ले आए. 1993 सपा-बसपा गठबंधन जैसे चुनाव नतीजों पर भी चर्चा हुई, जब नारा चला था ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्रीराम’ लेकिन इस सबके बावजूद एग्जिट पोल के जो अनुमान सामने आ रहे हैं, वो सपा-बसपा गठबंधन के लिए बेहद निराशाजनक हैं. अगर यही अनुमान नतीजों में बदलते हैं तो अखिलेश यादव की राजनीति का दूसरा और सबसे अहम प्रयोग भी काफूर हो जाएगा.

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