अफगानिस्‍तान: राष्ट्रपति अशरफ ग़नी की बढ़ती मुश्किलें, तालिबान का बढ़ता दायरा

इन दिनों अफगानिस्‍तान में राष्‍ट्रपति चुनाव सुर्खियों में है। इस चुनाव के साथ ही एक बार फ‍िर यहां की लोकतांत्रिक सरकार और राष्ट्रपति अशरफ ग़नी के भविष्‍य पर सवाल खड़े हो गए हैं। हालांकि, यहां तालिबान का प्रभुत्‍व खत्‍म करने का दावा किया जा रहा है, लेकिन आज भी वे वहां की लोकतांत्रिक सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं। अफगानिस्‍तान में लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम होने के बाद भारत की दिलचस्‍पी इस देश के प्रति बढ़ी है। दोनों देश एक दूसरे के निकट आए हैं।

यहां सत्ता के लिए निर्वाचित सरकार बनाम तालिबान का संघर्ष चलता रहा है। हालांकि, यह दावा किया जाता रहा है कि अफगानिस्तान को तालिबान के नियंत्रण से मुक्त करा लिया गया है, लेकिन तालिबान अभी भी अफगानिस्ताान में सक्रिय है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि भारत में अफगानिस्तान की लाेकतांत्रिक सरकार और लोकतंत्र कितना उपयोगी है। यहां तालिबान हुकूमत से भारत को क्या नुकसान है। इसके साथ यह भी जानेंगे कि पाकिस्ता्न की सियासत पर इसका कितना प्रभाव पड़ेगा।
लोकतांत्रिक अफगानिस्तान ज्यादा मुफीद
भारत के लिए लोकतांत्रिक अफगानिस्तांन ज्यादा मुफीद है। यही वजह है कि लोकतंत्र की बहाली के बाद भारत ने यहां बड़े पैमाने पर निवेश किया है। भारत ने यहां के मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ ग़नी का भी जोरदार समर्थन किया है। दरअसल, यहां के पुनर्निमाण में भारत ने लगभग ढाई अरब डॉलर का निवेश किया है। इसलिए भारत कभी नहीं चाहेगा कि वहां पर तालिबान मज़बूत हो या वह सत्ता में आए। भारत प्रत्येक मंच से अफ़गानिस्तान में लोकतंत्र का पुरजोर हिमायत करता रहा है। भारत ने खुलकर यहां की लोकतांत्रिक सरकार का समर्थन किया है, ऐसे में यह भी आशंका प्रकट की जाती रही है कि भारत के तालिबान विरोध में वह कश्मीर को निशाना बना सकता है। लेकिन इस आशंका को भारत ने नजरअंदाज करते हुए निर्वाचित सरकार का समर्थन व उसकी मदद की है।
तालिबान के साथ पाकिस्तान की दुविधा, अखर रहा है भारत
तालिबान को लेकर पाकिस्तान हुकूमत शुरू से दुविधा में रही है। इसलिए पाकिस्तान सरकार का यहां की लोकतांत्रिक सरकार को लेकर स्टैंड बहुत स्‍पष्‍ट नहीं है। पाकिस्तान पर आरोप लगते रहे हैं कि वो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का समर्थन करता है। लेकिन यदि काबुल में तालिबान मजबूत हुआ तो पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ेंगी। एक ताकतवार तालिबान पाकिस्तान के हित में नहीं हो। इससे इस क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ेगी। आंतकी संगठनों का वर्चस्‍व यहां बढ़ेगा। जाहिर है ऐसे में पाकिस्‍तान में आतंकियों का हस्तक्षेप बढ़ेगा। हालांकि, पेशावर आर्मी स्कूल हमले के बाद पाकिस्तान का यह दावा रहा है कि उसने तालिबान से दूरी बनाई है। इन सबके बीच अफगानिस्‍तान की भारत के साथ निकटता भी उसे अखरती है। दरअसल, अफगानिस्‍तान में लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में बदलाव के बाद भारत और समीपता बढ़ी है। दोनों देश के साथ समिपता उसमें तालिबान को लेकर और नफरत बढ़ी है। ऐसे में नई पाकिस्तानी सरकार के सामने तालिबान से संबंधों को लेकर दुविधा बढ़ेगी।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का उदय और अंत 
तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान पर पुरी तरह से राज था। लेकिन वर्ष 2001 में अमरीकी हमले के बाद तालिबान का वर्चस्‍व टूटा। अमेरिकी सेना ने उसकी सत्ता को उखाड़ फेंका। दरअसल, 90 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान तालिबान उभरा। इस गृहयुद्ध में तमाम ताक़तवर कमांडरों की अपनी-अपनी सेनाएं थीं। वह सत्‍ता में अपनी हिस्‍सेदारी के लिए संघर्ष कर रहे थे। उसी दौरान तालिबान का नाम उभर कर आया। तालिबानों को पाकिस्तान से हथियारों की आपूर्ति हो रही थी। वह इस्लामिक विचारधारा के पक्ष पोषक थे। यहां चल रहे गृह युद्ध से परेशान अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को वह शांति और स्थायी हुकूमत दे रहे थे, इसलिए तालिबान को स्थानीय क़बीलों का भी समर्थन मिलने लगा। वह गांव दर गांव जीतते हुए एक दिन वो राजधानी काबुल तक पहुंच गए। 1996 में उन्होंने राजधानी पर क़ब्ज़ा कर लिया। सत्ता मिलते ही तालिबान ने राष्ट्रपति नज़ीबुल्लाह को सरेआम फांसी दे दी।

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