श्रीरामजन्मभूमि के पुनरुद्धार के बाद अयोध्या एकबार फिर बनी वैश्विक ध्यानाकर्षण का केन्द्र

अयोध्या । पुराण और इतिहास से होती हुई वर्तमान तक अलग-अलग कारणों से चर्चा में रही अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि के पुनरुद्धार को लेकर एकबार पुनः वैश्विक ध्यानाकर्षण का केन्द्र बन गयी है। यद्यपि अयोध्या का महत्त्व श्रीरामजन्म के पूर्व से ही सिद्ध रहा है और विष्णु की पहली पुरी होने का, सुदर्शन चक्र पर स्थित होने का, मानवेन्द्र मनु द्वारा निर्मित होने का और मानव सभ्यता के आदिम केन्द्र होने का गौरव इसे प्राप्त रहा है। तथापि परात्पर पुरुष के श्रीरामावतार को पाकर अयोध्या विलक्षण हो गयी। मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में अयोध्या मस्तकस्थानीया कही गयी।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के अनुसार सरयू के तट पर बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी आयताकार नगरी अयोध्या है, जिसका अन्तर्गृह सहस्रधारा से एक योजन पूरब और एक योजन पश्चिम तक तथा चौड़ाई में तमसा तक फैला हुआ है। अयोध्या के प्रसिद्ध विद्वान व सरयूतट स्थित पंचमुखी हनुमान मंदिर, गोप्रतारघाट के अधिकारी स्वामी मिथिलेशनंदिनी शरण के अनुसार स्कन्दपुराण में इस अयोध्या के महत्त्व का वर्णन कौन कर सकता है। जिसमें स्वयं श्रीविष्णु सादर निवास करते हैं। “केन वर्णयितुं शक्यो महिमाऽस्यास्तपोधन। यत्र साक्षात्स्वयं देवो विष्णुर्वसति सादरः॥”

श्रीराम के सर्वोपकारपरायण और सर्वसमावेशी रूप की ही भांति अयोध्या का भी स्वरूप है। यहां गुप्तहरि से लेकर बिल्वहरि पर्यन्त सात हरि अवतार हैं, तो नागेश्वर, क्षीरेश्वर और मन्त्रेश्वर जैसे शिवालय भी विराजमान हैं। वैष्णवों के इस अप्रतिम केन्द्र में महाविद्या समेत अनेक देवियाँ सुपूजित हैं तो सरयू के साथ ही तिलोदकी गंगा भी इस पुरी में प्रकट हैं।

स्वामी मिथिलेशनंदिनी शरण के अनुसार अयोध्या में एक ओर स्वर्गद्वार है तो दूसरी ओर यमस्थल (जमथरा) है। स्वर्गद्वार और यमस्थल के साथ ही गोप्रतार तीर्थ जहां स्वयं श्रीराम ने अपनी मानवलीला को पूर्णता प्रदान की और समस्त अयोध्यावासियों को दिव्यधाम प्रदान किया। यहां के सर्वाधिक मान्य तीर्थ हैं। इन तीनों को समस्त ब्रह्माण्ड में अनुपम तीर्थ कहा गया है। अयोध्या को पहचान और परिभाषा देती हुई सरयू नदी भारत की समस्त जलाशयों में विलक्षण महत्त्व की नदी है जिसे जलरूप में ब्रह्म ही कहा गया है। जिसमें स्नान करने से मनुष्य कर्मफल के भोग से मुक्त होकर श्रीराम का स्वरूप हो जाता है।

स्वामी मिथिलेशनंदिनी शरण कहते हैं कि रसिकोपासना के महान् आचार्य और अयोध्या की विभूतियों में प्रथम कोटि के सन्त स्वामी श्रीयुगलानन्यशरण जी महाराज अपने धामकान्ति नामक ग्रन्थ में अयोध्या की महिमा को इस प्रकार व्यक्त करते हैं-

कौन कहे श्रीअवध कहानी रसखानी मन मानी है।

जहाँ जगमगी सरितबरा श्रीसरयू श्री महारानी है।

प्राणी प्रीति करत पावत परमेस सुखद रजधानी

युगलानन्यशरण नेहिन की अदभुत नेह निसानी है॥

श्रीराम के रामत्व से अभिभूत वैकुण्ठस्वरूपा अयोध्या केवल ईश्वरता को ही व्यक्त करती हो ऐसा भी नहीं है। जिस प्रकार ब्रह्म श्रीराम अपने ब्रह्मभाव का गोपन कर अपने नरोत्तम चरित्र से मानव-मात्र को धन्य करते हैं। ठीक उसी प्रकार यह अयोध्या नगरी भी अपने दो रूप धारण करती है। एक रूप में यह परब्रह्म है ‘अयोध्या च परब्रह्म’ और दूसरे रूप में यह मनुष्यता की राजधानी है, जहाँ राजाराम का अभिषेक होता है। विपत्तिकाल में राजा नल को शरण देने वाली अयोध्या बाद में रामराज्य के रूप में मानवजाति को मानवीय सभ्यता का वह प्रतिमान देने वाली हुई जो आज तक आदर्श समाज-संरचना का मानक है। ये अकेली राजधानी है जिसके सभी निवासी मुक्त हो गये और यहाँ की गद्दी वंशाधिकार से अपितु नहीं सेवाधिकार से उन हनुमान को मिली जो सेवा का सार्वकालिक आदर्श हैं।

स्वामी मिथिलेशनंदिनी शरण के अनुसार आज की अयोध्या का यात्री यदि अयोध्या आकर किसी एकमात्र मन्दिर का ही दर्शन करके लौटना चाहे तो वह केवल श्रीहनुमान गढ़ी के दर्शन करता है।  यह अकारण नहीं है। अपने राज्यकाल में अपनी प्रियता का सूत्र देते हुये राजाराम ने कहा है कि ‘सेवक प्रिय अनन्य गति सोई।’ यही सेवाव्रत हनुमान की पहचान है और  यह सेवाव्रत जबतक मनुष्यता अस्तित्व में रहेगी , अपेक्षित बना रहेगा।

स्वामी मिथिलेशनंदिनी शरण के अनुसार संघर्ष की अनेक दारुण गाथाओं के बाद पुनः मुस्कुराती अयोध्या सनातनता की सदा जय का घोष है। श्रीरामजन्मभूमि का पुनर्निर्माण अयोध्या के बहाने उन अनेक सन्दर्भों के पुनर्पाठ का आमन्त्रण भी है जिससे भारतीयता और भारतीय मूल्यबोध दोनों अधिक साफ पहचाने जा सकें।

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