दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए प्रणब दा, किस्‍मत उन्‍हें राष्‍ट्रपति बनाना चाहती थी

नई दिल्ली। देश के 13वें राष्ट्रपति रहे​ भारत रत्न ​ प्रणब मुखर्जी अब हमारे बीच नहीं रहे। अगस्त माह के आखिरी दिन 85 वर्ष की आयु में वे हमसे विदा ले गए।
भारत रत्न प्रणब मुखर्जी का जन्म 11 दिसम्बर 1935 को पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में किरनाहर शहर के निकट स्थित मिराती गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता कामदा किंकर मुखर्जी 1920 से कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होने के साथ पश्चिम बंगाल विधान परिषद में 1952 से 64 तक सदस्य रहे। वह वीरभूम (पश्चिम बंगाल) जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की खिलाफत के परिणामस्वरूप 10 सालों से अधिक जेल की सजा भी काटी थी।

साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था। वे पीएम बनने की इच्छा भी रखते थे, लेकिन कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने प्रणब को किनारे करके राजीव गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया। इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो राजीव गांधी और प्रणब मुखर्जी बंगाल के दौरे पर थे, वे एक ही साथ विमान से आनन-फानन में दिल्ली लौटे।
प्रणब मुखर्जी का ख्याल था कि वे कैबिनेट के सबसे सीनियर सदस्य हैं इसलिए उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाया जाएगा, लेकिन राजीव गांधी के रिश्ते के भाई अरुण नेहरू ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का दांव चल दिया।
पीएम बनने के बाद राजीव गांधी ने जब अपनी कैबिनेट बनाई तो उसमें जगदीश टाइटलर, अंबिका सोनी, अरुण नेहरू और अरुण सिंह जैसे युवा चेहरे थे, लेकिन इंदिरा गांधी की कैबिनेट में नंबर-2 रहे प्रणब को मंत्री नहीं बनाया गया था। वहीं राजीव कैबिनेट में जगह नहीं मिलने से दुखी होकर प्रणब मुखर्जी ने कांग्रेस छोड़ दी और अपनी अलग पार्टी बनाई।
प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया, लेकिन ये पार्टी कोई खास असर नहीं दिखा सकी। जब तक राजीव गांधी सत्ता में रहे प्रणब मुखर्जी राजनीतिक वनवास में ही रहे। इसके बाद 1989 में राजीव गांधी से विवाद का निपटारा होने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।
वहीं इसके बाद साल 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो प्रणब मुखर्जी का कद बढ़ा। राव उनसे सलाह-मशविरा तो करते रहे, लेकिन फिर भी उनको कैबिनेट में जगह नहीं दी गई। राव ने उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया और वे पांच साल तक इस पद पर रहे। नरसिम्हा राव के सत्ता में रहते हुए ही प्रणब मुखर्जी ने धीरे-धीरे कांग्रेस में अपना सियासी आधार फिर से मजबूत करना शुरू कर दिया।
पीएम नरसिम्हा राव के सामने कांग्रेस के दिग्गज नेता अर्जुन सिंह राजनीतिक चुनौती पेश करने लगे थे। ऐसे में अर्जुन सिंह की काट से लिए राव ने प्रणब मुखर्जी को 1995 में विदेश मंत्री बनाने का दांव चला। हालांकि राव सरकार का यह आखिरी साल था। इसके बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो 9 साल तक उसकी केंद्र में वापसी नहीं हो सकी। 1998 में कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी ने संभाली तो प्रणब मुखर्जी उनके साथ मजबूती के साथ खड़े रहे।
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साल 2004 में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई, तब सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा, जिसके कारण उन्होंने ऐलान किया कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी। एक बार फिर से प्रणब के प्रधानमंत्री बनने की चर्चाएं तेज हो गईं थीं, लेकिन सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को पीएम बनाने का फैसला किया। इससे प्रणब मुखर्जी के हाथ से पीएम बनने का एक और मौका फिर निकल गया।
हालांकि इस दौरान प्रणब मुखर्जी ने वित्त से लेकर विदेश मंत्रालय तक का कार्यभार संभाला और पार्टी के संकट मोचक की भूमिका में रहे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया और वो देश के 13वें राष्ट्रपति चुने गए। 26 जनवरी 2019 को मोदी सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया था।
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