ये है 4000 साल पुरानी घड़ी, समय के साथ बता देती है भविष्य के बारे में….

दुनिया भर में सीजन यानी बदलती ऋतुओं की काफी अहमियत है। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में खेती का दारोमदार ऋतु-चक्र पर ही निर्भर करता है। आज हमारे पास एडवांस तकनीक हैं, जिसके जरिए हम कुदरत का मिजाज समय से पहले ही जांच लेते हैं। लेकिन जरा सोचिए जब ये तकनीक नहीं थी, तब लोग किस तरह ऋतु चक्र की जानकारी हासिल करते होंगे।ये है 4000 साल पुरानी घड़ी, समय के साथ बता देती है भविष्य के बारे में....

हाल ही में अमरीका के एरिजोना की मशहूर वेर्डे घाटी में स्थित कोकोनीनो नेशनल फॉरेस्ट में कुछ चट्टाने पाई गई हैं, जिन पर अजीब तरह की चित्रकारी है। जानकार इन चट्टानों को ऋतु-चक्र का कैलेंडर मान रहे हैं। स्थानीय फोटोग्राफर सूजी रीड का कहना है कि जब सूरज भू-मध्य रेखा से गुजरता है, तब इन चट्टानों पर सूरज की रोशनी की किरणों की स्थिति देखने लायक होती है।

सूरज की रोशनी
साल 2005 से पहले तक चट्टानों पर बने इन प्राचीन कैलेंडरों की किसी को खबर नहीं थी। साल 2005 में केनेथ जाल नाम के रिसर्चर ने ‘वी बार वी’ नाम के ऐतिहासिक रैंच पर चट्टानों पर पड़ने वाली सूरज की रोशनी को गौर से देखा। इन चट्टानों पर करीब एक हजार निशान उकेरे हुए थे। इन निशानों में हिरण, सांप और उत्तरी अमरीका में पाए जाने वाले भेड़ियों की तस्वीरें शामिल थीं।

उन्होंने ये जानकारी फॉरेस्ट सर्विस के पुरात्तवविद से साझा कीं, लेकिन किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं ली। दरअसल ये मामला प्राचीन काल में ऋतु चक्र मापने का था। सूरज के साथ चांद, तारों का एक साथ एक ही दिशा में होना महज इत्तिफाक था या कुछ और कहना मुश्किल है। लेकिन पुराने वक्त में कुछ लोगों की राय रही है कि इन प्रागैतिहासिक चट्टानों पर एलियन्स ने ये चित्रकारी की होगी।

आकाशीय घटनाओं का अध्ययन
लेकिन पिछले एक दशक में ये बात साफ हो गई है कि आदिम समाज के लोगों के बीच आकाशीय घटनाओं का अध्ययन करने की परंपरा रही है और ऐसी बहुत सी जगहें हैं, जहां इस बात के सुबूत भी मिलते हैं। इसीलिए यूनेस्को ने अमरीका के न्यू मेक्सिको के शाको कल्चरल नेशनल हिस्टोरिकल पार्क और इंग्लैंड के स्टोनहेंज जैसी जगहों के खगोलीय विरासती महत्व को समझा और इस पर रिसर्च का काम शुरू किया गया। केनेथ जॉल को लगता था कि वी बार वी रैंच में स्थित चट्टान पर अंकित निशान मामूली नहीं हैं। इनमें जरूर कई राज छुपे हैं।

इन निशानों का गणित समझने के लिए उन्होंने 20वीं और 11वीं सदी की हाई-टेक तकनीक का सहारा लिया। नतीजे चौंकाने वाले थे। हर महीने जब सूरज की किरणें चट्टान पर पड़ती थीं, तो लगता था मानो सूरज की रोशनी इन चित्रों से बातें कर रही है।

हाई-टेक तकनीक का सहारा
गर्मी के सबसे लंबे दिन यानी 21 जून को सूरज की रोशनी करीब आधा दर्जन से ज्यादा चित्रों पर तेजी से पड़ रही थीं। जबकि साल के सबसे छोटे दिन रौशनी की किरणें चट्टानों के बीच एक निशान भर ही बना रही थीं। ये इस बात का संकेत था कि मौसम बदल रहा है। रिसर्चरों के मुताबिक़ स्थानीय अमरीकी आदिवासी सिनागुआ यहां सातवीं से पंद्रहवीं सदी के बीच आबाद थे। उनका मुख्य पेशा खेती था।

वो मक्का, कपास और फलियों की खेती करते थे। माना जाता है कि उन्होंने ही खेती के लिहाज से इस कैलेंडर को बनाया होगा। सिनागुआ जाति के वंशज ‘होपी’ अब यहां से करीब 150 मील दूर रहते हैं। रिसर्चर जॉल ने इस संबंध में होपी आदिवासियों से भी जानकारियां जुटाईं। इन लोगों का कहना था कि इन चट्टानों पर बनी पट्टिकाओं का संबंध किसानों के लिए खेती के लिहाज से बहुत खास है।

फसल बोने का समय
साथ ही धार्मिक त्यौहार भी इन पट्टिकाओं पर पड़ने वाली रोशनी के हिसाब से ही मनाए जाते हैं। मिसाल के लिए 21 अप्रैल का दिन जमीन में बीज बोने से जुड़ा है। इस दिन सूरज की रोशनी मक्के के डंठल जैसी आकृति पर पड़ती है। इससे लोगों को इशारा मिलता है कि अब फसल बोने का समय शुरू हो चुका है। सबसे अहम दिन तो 8 जुलाई का होता है जब होपी लोगों का 16 दिन तक चलने वाले ध्यान साधना और दुआओं का दौर खत्म होता है। इस दिन सूरज की रोशनी चट्टान पर बनी एक ऐसी आकृति पर पड़ती है जो खुशी से नाचती हुई मालूम देती है। लोगों को पहले से अंदाजा होता है कि 16 दिन बाद सूरज की रोशनी किस आकृति पर पड़ेगी और उसका क्या महत्व है।

 

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