जानें क्या हैं छठ पूजा का महत्व, जानें पूजा के नियम

कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि यानी छठ, सूर्योपासना का व्रत है, जिसे मुख्यत: संतान प्राप्ति, रोगमुक्ति और सुख-सौभाग्य की कामना से किया जाता है। आस्था की दृष्टि से यह पर्व कई मायनों में खास है

धर्मशास्त्रों और पुराणों के अनुसार ईश्वर की उपासना के लिए प्राय: अलग-अलग दिनों एवं तिथियों का निर्धारण किया गया है। इसमें सूर्य नारायण के साथ सप्तमी तिथि की संगति है। यथा सूर्यसप्तमी, रथसप्तमी, अचला सप्तमी इत्यादि।  इसके साथ ही छठ पर्व भी सूर्य देवता को समर्पित है। इस शुचिता, शुद्धता, आस्था और विश्वास के महापर्व में स्वयं में विनम्रता और सहनशीलता की भावना जागृत किए जाने का भाव प्रमुख है। पारिवारिक उन्नति एवं आत्मिक उन्नति की कामना का उत्तम साधना काल है  छठ पर्व।
 सूर्यदेव के इस महापर्व में पहले सूर्य देवता को संध्याकालीन अर्घ्य दिए जाने का विधान है। अर्घ्य के उपरांत दूसरे दिन ब्रह्ममुहूर्त में अर्घ्य सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खड़े होकर भगवान सूर्य के उदय होने की प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही क्षितिज पर अरुणिमा दिखाई देती है, मंत्रों के साथ सूर्यदेव को अर्घ्य समर्पित किया जाता है।

श्वेताश्वतरोपनिषद में परमात्मा की माया को ‘प्रकृति’ व माया के स्वामी को ‘मायी’ कहा गया है। यह प्रकृति ब्रह्मस्वरूपा, मायामयी और सनातनी है। प्रकृति देवी स्वयं को पांच भागों में विभक्त करती है -दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सती और सावित्री। प्रकृति देवी के प्रधान अंश को ‘देवसेना’ कहते हैं, जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती हैं। यह समस्त लोगों के बालकों की रक्षिका एवं दीर्घायु प्रदान करने वाली देवी हैं। प्रकृति का अंश होने के कारण ही इस देवी का नाम ‘षष्ठी देवी’ भी है।

षष्ठी देवी की छठ पूजा का प्रचार-प्रसार पृथ्वी पर कब से हुआ, इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा इस प्रकार है। प्रथम मनु स्वयंभुव के पुत्र प्रियव्रत के कोई संतान न थी। उन्होंने महर्षि कश्यप से पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा तो महर्षि ने महाराज को पुत्रेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया, जिसके फलस्वरूप राजा के यहां यथावसर नाम के एक बालक का जन्म हुआ, लेकिन वह शिशु जीवित नहीं था। इससे पूरे नगर  में शोक व्याप्त हो गया।

तभी आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान प्रकट हुआ, जिसमें एक दिव्यकीर्ति नारी विराजमान थीं। राजा के स्तुति करने पर देवी ने कहा,‘मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी हूं। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूं व संतानहीनों को संतान प्रदान करती हूं। इतना कहकर देवी ने  शिशु के शरीर का स्पर्श किया, जिससे वह जीवित हो उठा। महाराज के प्रसन्नता की सीमा न रही। तब से उनके राज्य में प्रति मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी को षष्ठी महोत्सव मनाया जाने लगा। तभी से बालकों के जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन आदि सभी शुभ अवसरों पर षष्ठी पूजन भी प्रचलित हुआ माना 
जाता है। 

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