बिहार चुनाव: बिहार की सियासत में आया नया मोड़, अंतिम समय में बना ‘कुशवाहा-ओवैसी-मायावती’ का गठबंधन?

नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग होनों में 20 दिन बचे हैं, लेकिन अभी भी राजनीतिक गठबंधन की बुनियाद रखी जा रही है। गुरुवार को RLSP प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा और AIMIM के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने नए फ्रंट का ऐलान किया, जिसमें बसपा, समाजवादी जनता दल लोकतांत्रिक सहित 6 पार्टियां शामिल हैं। इसे ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेकुलर फ्रंट कहा गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि सबसे आखिर में बना नया फ्रंट बिहार की सियासत में क्या राजनीतिक गुल खिलाएगा?

बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू-बीजेपी के एनडीए और आरजेडी-कांग्रेस के महागठबंधन के बीच भले ही मुख्य मुकाबला होने की उम्मीद की जा रही है। लेकिन इसे चुनौती देने के लिए कुशवाहा-ओवैसी-मायावती ने हाथ मिलाया है। बिहार के जातीय गणित के हिसाब से चुनाव में कुशवाहा-मायावती-ओवैसी की जोड़ी नए सियासी फॉर्मूले के साथ मैदान में उतरी है, जो एनडीए और महागठबंधन दोनों का सियासी खेल बिगाड़ सकती है।

कुशवाहा-दलित-मुस्लिम समीकरण

बिहार में 16 फीसदी मुस्लिम हैं और 16 फीसदी ही दलित मतदाता हैं। बिहार में कुशवाहा की कुल आबादी 5-6 फीसदी है। इस हिसाब से कुल वोट करीब 37-38 फीसदी बन रहा है। ऐसे में तीनों दल अगर इन वोटों को अपने फ्रंट के पक्ष में करने में सफल हो जाएं तो विधानसभा चुनाव में अहम भूमिका निभा सकते हैं। इसी समीकरण को देखते हुए मायावती, कुशवाहा और ओवैसी ने आपस में हाथ मिलाया है।

तथ्य यह है कि कुशवाहा आबादी पूरे बिहार में मौजूद है, लेकिन कहीं भी इनका वोट निर्णायक भूमिका में नहीं है। वहीं, 16 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो करीब 47 सीटों पर अहम भूमिका अदा करते हैं और बिहार के सीमांचल में मुस्लिम वोटों के बिना किसी भी दल की नैया पार नहीं होने वाली, बिहार के लगभग 70 फीसदी विधानसभा सीट पर जीत-हार तय करने में दलित वोटर की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी वजह से हर गठबंधन के लोग राज्य में मौजूद दलित चेहरे को अपने साथ खड़ा करने की हरसंभव कोशिश करते हैं।

दलित वोटर बिहार में निर्णायक

दलित वोटर की बड़ी आबादी हमेशा से पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बिहार में दिलचस्पी का कारण बनती है। मायावती की बहुजन समाज पार्टी करीब ढाई दशक से बिहार के चुनावों में हिस्सा ले रही है, लेकिन अब तक यह पार्टी वोट काटने के अलावा कुछ खास नहीं कर सकी है। बिहार में मुस्लिम समुदाय आरजेडी का मजबूत वोटबैंक माना जाता है, जिसे ओवैसी की पार्टी अपने पक्ष में करने की जुगत में है। 2015 के चुनाव में 6 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और एक भी जीत नहीं सकी थी, लेकिन पिछले साल उपचुनाव में खाता खोलने में कामयाब रही है।

ओवैसी की नजर मुस्लिम वोटर पर

ओवैसी का असर सीमांचल की राजनीति में साफ दिख रहा है। मुस्लिम वोटरों के एक बड़े तबके का ओवैसी की पार्टी की तरफ झुकाव बढ़ा है। इसके बावजूद मुस्लिम ओवैसी की पार्टी के साथ चुनाव में जाएगा यह कहना मुश्किल है, क्योंकि उसे वोटकटवा पार्टी का तमगा विपक्षी दलों के द्वारा दिया जा रहा है। हालांकि, ओवैसी के पास बिहार में न तो कोई चेहरा है और न ही पार्टी का पूरे बिहार में जनाधार। इसके बाद भी ओवैसी की दस्तक से महागठबंधन को अपने कोर वोटबैंक के खिसकने की चिंता सता रही है।

कुशवाहा वोट बिहार में बिखरा हुआ है

बिहार में कभी नीतीश के सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा ने उनसे नाता तोड़ लिया और कुशवाहा समाज के पोस्टर ब्वॉय बन गए। 2019 के संसदीय चुनाव में वह कुशवाहा मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद करने में सफल नहीं रहे। बावजूद उनके समर्थक उन्हें कुशवाहा समाज का सबसे बड़ा नेता मानते हैं। कुशवाहा समाज का वोटर बिहार के लगभग हर हिस्से में फैले हैं, लेकिन वो बिखरा हुआ है। इस वजह से कुशवाहा समाज के वोट उम्मीदवारों की हार-जीत तय करने में प्रभावी साबित नहीं होते।

हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा अपने समाज को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अभी तक सफल नहीं रहे। बिहार की सियासत में नीतीश कुमार ने अपनी जगह बनाने के लिए कोइरी और कुर्मी वोटों का समीकरण बनाया था, जिसके बाद से यह वोट उनके पक्ष में है। ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा के लिए अपने समाज को जोड़ने के साथ-साथ दलित और मुस्लिम को भी अपने पक्ष में एकजुट करने की चुनौती होगी, जिसके बाद ही यह फ्रंट सियासी गुल खिलाने में कामयाब होगा।

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