अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पांचों पुत्रों की हत्या की, पर द्रोपदी ने क्षमा दान क्यों दिया ?

महाभारत युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था. कौरव और पांडव दोनों पक्षों के बहुत से वीर वीरगति को प्राप्त हो चुके थे : युद्ध में काम आ चुके थे. इतना ही नहीं, महान योद्धा और वीर भीमसेन की वज्र गधा से दुर्योधन की जांग टूट चुकी थी. यह घटना अश्वथामा को बहुत खली. बदले के भाव और अपने स्वामी दुर्योधन को प्रसन्न करने के ख्याल से, उसने द्रोपदी के पांचों पुत्रों को जो शिविर में सोए थे, मार डाले और दुर्योधन के आगे लाकर रख दिए. पर इस प्रकार के नीच कर्म का दुर्योधन ने भी समर्थन नहीं किया, उन्हें भी यह घटना बहुत बुरी लगी, कारण ऐसे नीच कर्मों की सभी निंदा करते हैं.

अपने पुत्रों की हत्या से अपार मर्मांतक पीड़ा से द्रोपति आहत हो उठी और चीख-चीख कर रोने लगी – भगवान ! तूने यह क्या किया ? हे प्रभु ! कैसे मैं यह पीड़ा झेल सकूंगी ? मुझे भी उठा लो, इस धरती से, हे भगवान !

अर्जुन को जब अपने पुत्रों की हत्या की सूचना मिली तो वह क्रोधाग्नि से जल उठा और द्रोपदी के पास दौड़ा हुआ गया. अर्जुन ने बड़े ही धैर्य और आशा के साथ संतावना भरे शब्दों में कहा – हे कल्याणी ! धैर्य धारण करो. प्रारब्ध को कौन जानता है ? फिर भी अश्वथामा को, ब्राह्मण को, इस नीच ब्राह्मण को, चाहे ब्रह्महत्या का पाप ही क्यों न लगे, मैं अपने गांडीव से उसके सिर को काट कर, तेरे चरणों पर लाकर भेंट चढ़ाऊंगा. पुत्रों की अत्येष्टि क्रिया के बाद तुम उस पर पैर रखकर स्नान करोगी. उसके रक्त से अपने सिर के खुले बालों को सिंचित करोगी. मेरा यह वचन रहा : तुम शांत रहो, देवी !

इस रक्षा बंधन बहन भार्इ को राखी बांधते समय करें ये एक काम, भाई की हमेशा के लिए चमक जाएगी किस्मत

ऐसा आश्वासन द्रोपदी को देकर अर्जुन अपने सखा : बंधु चक्र सुदर्शनधारी भगवान कृष्ण से मिले. विचार विमर्श के पश्चात अपने कवच और गांडीव को धारण किया, श्रीकृष्ण को साथ ले, सीधे अश्वस्थामा को वध करने के लिए चल पड़े. अस्वस्थामा गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे. इस प्रकार गुरु-पुत्र के वध का निर्णय कितना कठिन और कठोर था. बच्चों की हत्या करके अश्वस्थामा स्वयं आसान था, पश्चाताप की आग में जल रहा था और अर्जुन के भय से इधर-उधर भागा भागा फिर रहा था. अर्जुन उसका पीछा करता रहा और अश्वस्थामा तीव्र गति से इधर से उधर चतुराई से जहां तहां बन सका वह धरती : पर पृथ्वी पर इधर से उधर भागता रहा. भागते भागते : दौड़ते दौड़ते हुए थक गया और जब उसने अपने को नितांत अकेला पाया तो प्राणों की रक्षा के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना ही एकमात्र उपाय उसने समझा. पर उसके साथ दुर्भाग्य भी लगा था, वह ब्रह्मास्त्र को केवल चलाने की विधि-वार करने की विधि जानता था, लौटाने की नहीं. प्राणों को बचाने के लिए शेष उसके पास और चारा ही रह नहीं गया था.

ब्रह्मास्त्र के प्रयोग करने का निर्णय करने के बाद आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का संधान किया. उस अस्त्र के प्रयोग से देशों-दिशाओं में बड़ा ही प्रचंड प्रकाश फैल गया – भय का वातावरण छा गया. प्रकृति कांप उठी : धरती तेजी से डोलने लगी. अब तो स्वयं अर्जुन के अपने प्राण संकट में पड़ गए. उन्होंने भगवान कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा, हे महाप्रभु ! यह सब क्या हो रहा है ? यह प्रचंड ज्वाला क्या है ? कहां से आ रही है, क्यों आ रही है ? कुछ भी पता नहीं चल रहा है. प्रभु कृष्ण ने आश्वासन भरे शब्दों में कहा – हे पार्थ ! हे गांडीव धारी अर्जुन ! तुम वीरवर हो ! किंचित् भी चिंता की बात नहीं है, बंधु ! अश्वस्थामा की शक्ति और सामर्थ्य की सीमा को मैं जानता हूं. वह तो तुझ से बचकर जाएगा, कहां ? वह ब्रह्मास्त्र चलाना भर जानता है पर लौटना नहीं. किसी भी अस्त्र, दूसरे अस्त्र से इस अस्त्र के प्रभाव को काटा नहीं जा सकता है. तुम तो शास्त्रास्त की विद्या में पूर्ण पारंगत हो, फिर चिंता कैसी ? ब्रहमास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचंड आग को बुझा दो.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button