भारत की इन खास साड़ियों को मिला हुआ है GI Tag

भारत की संस्कृति में साड़ियों की खास जगह है। ये न केवल पहनावे ओढ़ावे का हिस्सा हैं, बल्कि इनमें भारत के हैंडिक्राफ्ट का इतिहास भी झलकता है। कुछ खास साड़ियों को GI Tag मिला हुआ है, जो उन्हें और भी खास बनाते हैं। आइए जानें कुछ ऐसी ही खास साड़ियों के बारे में।

भारत की सांस्कृतिक विरासत में हैंडिक्राफ्ट की अपनी एक खास जगह है। इनमें साड़ियों का भी नाम शामिल है। ये न केवल भारतीय महिलाओं का पारंपरिक पहनावा है, बल्कि यह कला, इतिहास और स्थानीय परंपराओं का प्रतीक भी है। क्या आप जानते हैं कि कुछ साड़ियों को GI Tag भी मिला हुआ है?

भौगोलिक संकेत (Geographical Indication – GI) टैग उन चीजों को दिया जाता है जो किसी खास क्षेत्र में बनते हैं और उस क्षेत्र की खास पहचान रखते हैं। भारत की कई साड़ियां, जो देश-विदेशों में मशहूर हैं, को GI टैग मिला हुआ है। आइए जानें ऐसी ही कुछ साड़ियों के बारे में।

पटोला साड़ी (गुजरात)
पटोला साड़ी गुजरात के पाटन की मशहूर हाथ से बनी साड़ी है, जिसे “इकत” बुनाई तकनीक से बनाया जाता है। यह साड़ी रेशम के धागों से हाथ से बुनी जाती है और इसमें जटिल डिजाइन व रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। पटोला बुनाई की प्रक्रिया में बहुत ज्यादा समय लगता है और इसे बनाने में कई महीने लग जाते हैं। इसकी इन्हीं खासियतों के कारण 2013 में इसे GI टैग दिया गया।

बनारसी सिल्क साड़ी (उत्तर प्रदेश)
बनारसी सिल्क साड़ी भारत की सबसे लोकप्रिय साड़ियों में से एक है। यह वाराणसी (बनारस) में हाथ से बुनी जाती है और इसमें जरी (सोने-चांदी के धागे) का इस्तेमाल किया जाता है। बनारसी साड़ियों में मुगल और भारतीय डिजाइनों का अनूठा संगम देखने को मिलता है। इसे 2009 में GI टैग मिला, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि केवल वाराणसी क्षेत्र में बनी साड़ियां ही “बनारसी सिल्क” कहलाएंगी।

कांजीवरम साड़ी (तमिलनाडु)
तमिलनाडु के कांचीपुरम में बनने वाली कांजीवरम साड़ी अपनी मजबूती, चमकदार रेशम और जटिल जरी के काम के लिए मशहूर है। इसे “साड़ियों की रानी” कहा जाता है। कांजीवरम साड़ियों में रेशम के साथ जरी का इस्तेमाल होता है और इनका डिजाइन दक्षिण भारतीय मंदिरों की वास्तुकला से प्रेरित होता है। 2005-06 में इसे GI टैग दिया गया।

टसर सिल्क साड़ी (बिहार)
टसर सिल्क एक नेचुरल सिल्क है जो जंगली रेशम के कीड़ों से मिलता होता है। यह साड़ी झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में बनाई जाती है। इसे नॉन वायलेंट सिल्क भी कहा जाता है, क्योंकि इसे बनाने के लिए रेशम के कीड़ों को मारा नहीं जाता है। टसर सिल्क साड़ियां प्राकृतिक रंगों और मोटे बनावट के लिए जानी जाती हैं। 2009 में इसे GI टैग मिला, जिससे इसे संरक्षण मिला।

तंगेल साड़ी (पश्चिम बंगाल)
पश्चिम बंगाल के पूर्व बर्धमान और नदिया जिलों में हाथ से बुनी गई तंगेल साड़ियों को भी GI Tag मिला हुआ है। ये साड़ियां हथकरघे से बनाई जाती हैं, जिनपर हाथ से बुनी बुटियां बनाई जाती हैं। इन पर जटिल डिजाइन, वाइब्रेंट रंग और बनावट इन्हें बेहद खास बनाती हैं। इस साड़ी को साल 2024 में GI Tag मिला।

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