समिद्धेश्वर महादेव: यहां अकेले नहीं होती शिव की पूजा, जानें क्या है मंदिर से पहले प्रतिमा बनाने का रहस्य

विश्व में भगवान शिव का एक मात्र त्रिमूर्ति (भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश) ऐसा मंदिर है, जिसके निर्माण से पूर्व कुंडली का निर्माण कराया गया। इतना ही नहीं वास्तु दोष दूर किए और मंदिर निर्माण के दौरान भी वास्तु दोष का ध्यान रखा गया। ऐसे में कहा जा सकता है कि विश्व विख्यात चित्तौड़ दुर्ग स्थित समिद्धेश्वर महादेव मंदिर वास्तु एवं शिल्प का बेजोड़ उदाहरण है। यह मंदिर दुर्लभ है। इस मंदिर की कुंडली बनी होने और वास्तु दोष दूर होने की जानकारी नाम मात्र के लोगों को है, जोकि अंगुलियों पर गिने जा सके।

परमार राजा भोज ने करवाया निर्माण
विश्व विख्यात चित्तौड़ दुर्ग पर विजय स्तम्भ के निकट ही समिद्धेश्वर महादेव मंदिर है। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में परमार राजा भोज ने करवाया था। यह मंदिर करीब एक हजार साल पुराना है। यहां भगवान शिव की अकेले पूजा नहीं होती है। यहां एक ही पत्थर पर भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिमूर्ति दर्शन होते हैं, जो विश्व में कहीं भी देखने को नहीं मिलते हैं। इस मंदिर के निर्माण में शिल्पकारों ने वास्तु शास्त्र को ध्यान में रख कर इसका निर्माण करवाया, जिससे कि हजारों सालों तक इस मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। 

मंदिर निर्माण में पहली बार वास्तु शास्त्र का उपयोग
दुर्ग भ्रमण पर आने वाले देश-विदेश के हजारों पर्यटक इस मंदिर में भगवान ब्रह्मा विष्णु और महेश के त्रिमूर्ति विशाल दर्शन देख कर अभिभूति हो जाते हैं। मंदिर को बनाया तो राजा भोज ने पहली बार वास्तु शास्त्र का उपयोग किया। निर्माण से पहले कुंडली बनाई, जो आज भी मंदिर में लगे शिलालेख में भी दर्ज है। मंदिर निर्माण के शिलालेख भी लगे हैं। इनके बीच ही कुंडली भी लगी हुई है। 

पहले बनी मूर्ति बाद में बनाया गया मंदिर
पूरे विश्व का एक मात्र मंदिर है, जिसमें मूर्ति पहले बनाई और मंदिर बाद में बना। इसका कारण यह है कि इस मंदिर में एक ही 9 फीट के विशाल ऊंचे और चौड़े पत्थर पर तीन मूर्तियां हैं, जिसमें ब्रम्हा, विष्णु व महेश हैं। मंदिर निर्माण के बाद इतनी बड़ी प्रतिमाएं अंदर स्थापित करना संभव नहीं था। ऐसे में पहले यहां प्रतिमां बनी व बाद में मंदिर। यहां श्रृष्टि के निर्माता ब्रह्मा, पालक विष्णु और विनाश्क महेश की पूजा होती है। बताया गया कि एक बारगी में कोई देख कर नहीं पहचान सकता कि कौन सी मूर्ति किसकी है। इसमें भगवान के बचपन, जवानी और बुढ़ापे की प्रतिमाएं हैं। बचपन का रूप ब्रह्मा का है तो जवानी का भगवान विष्णु का व बुढ़ापे का भगवान शिव का। 

ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पहचान करना मुश्किल
इन प्रतिमाओं को भी इनकी विशेषताओं से पहचानना पड़ता है। मूर्तिकार ने इसमें अलग-अलग पहचान डाली। भगवान ब्रह्मा के हाथ में कमल का फूल और एक हाथ में शंख है तो भगवान विष्णु की प्रतिमा में सिर पर त्रिपुंड और कान में कुंडल है। गले में नाग नहीं होकर नाग जमीन से आ रहा है। सबसे अंत में भगवान शिव की मूर्ति हैं, जिसमें कि उनके हाथ में खपर तथा गले में नाग है। 

महाराणा मोकल ने 1428 में कराया जीर्णोद्धार
बताया जाता है कि 1303 में अलाउद्दिन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया था। उस समय मंदिर की बहुत सी प्रतिमाओं को खंडित कर दिया था। बाद में महाराणा कुम्भा के पिता महाराणा मोकल ने 1428 में इसका जीर्णोद्धार कराया। इस मंदिर के निर्माण व जिर्णोद्धार के दो प्रमाण हैं। इस मंदिर में दो शिलालेख लगे हुए हैं, जिसमें से एक जिर्णोद्धार का है। यहां सावन माह में विशेष आयोजन होते हैं। पूरे एक माह तक अभिषेक चलेंगे। राज्य सरकार की और से भी श्रावण सोमवार को यहां अभिषेक एवं पूजा करवाई जाती है। 

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