अयोध्या विवाद: एक ऐसा फैसला जिसने पूरी भारतीय राजनीति की दुनिया बदल दी…

नई दिल्ली । सरयू मे न जाने कितना पानी बह चुका है। लेकिन अयोध्या के विवादित ढांचे पर अदालती कार्यवाही अब भी जारी है। सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर गुरुवार को सभी पक्षों को सुना। केस से जुड़े दस्तावेजों के पूर्ण नहीं होने की वजह से अगली तारीख 14 मार्च मुकर्रर की है। इस विवाद के पक्षकार कहते हैं कि या तो मामला बातचीत से सुलझे या अदालत अपने फैसले के द्वारा निस्तारण करे। अयोध्या विवाद की गरमी को देश का कोई न कोई हिस्सा महसूस करता रहता है। इस विवाद में कई मोड़ आए,कई घटनाएं भारतीय इतिहास की गवाह बन गईं। लेकिन 1 फरवरी 1986 के एक महत्वपूर्ण आदेश ने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी।
1 फरवरी 1986 का वो आदेश
अयोध्या के विवादित ढांचे को लेकर हिंदू-मुस्लिम समुदाय अपने-अपने दावे तो अरसे से कर रहे थे लेकिन इस चिंगारी को हवा दी 31 साल पहले फैजाबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के एक आदेश ने। 1 फरवरी 1986 को दिये गये इसी आदेश से इस ढांचे पर 37 वर्षों से लगे ताले को खोलने का रास्ता साफ हुआ। इस आदेश में न्यायाधीश ने यह अनुमति भी दे दी थी कि दर्शन व पूजा के लिए लोग रामजन्मभूमि जा सकते हैं
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25 जनवरी 1986 को अयोध्या के वकील उमेश चंद्र पांडेय ने फैजाबाद के मुंसिफ (सदर) हरिशंकर द्विवेदी की अदालत में विवादास्पद ढांचे को रामजन्मभूमि मंदिर बताते हुए उसके दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए याचिका दाखिल की। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि पर पूजा-अर्चना करना उनका बुनियादी अधिकार है। मुंसिफ ने इस मामले में कोई आदेश पारित नहीं किया क्योंकि इस संदर्भ में मुख्य वाद हाईकोर्ट में विचाराधीन था। लिहाजा उन्होंने एप्लीकेशन को निस्तारित करने में असमर्थता जतायी। उन्होंने कहा कि मुख्य वाद के रिकार्ड के बिना वह आदेश पारित नहीं कर सकते। उमेश चंद्र पांडेय ने इसके खिलाफ 31 जनवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश फैजाबाद की अदालत में अपील दायर की। उनकी दलील थी कि मंदिर में ताला लगाने का आदेश पूर्व में जिला प्रशासन ने दिया था, किसी अदालत ने नहीं।
जब अदालत ने डीएम और एसएसपी को किया था तलब
एक फरवरी 1986 को जिला एवं सत्र न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडेय ने उनकी अपील स्वीकार की। इस मामले में जज ने फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी इंदु कुमार पांडेय और एसएसपी कर्मवीर सिंह को कोर्ट में तलब किया था। दोनों ने अदालत को बताया कि ताला खोलने से कानून व्यवस्था के बिगडऩे की आशंका नहीं है। जज ने इस मामले में बाबरी मस्जिद के मुख्य मुद्दई मोहम्मद हाशिम व एक अन्य पक्षकार के तर्कों को भी सुना। राज्य सरकार ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में वकील उमेश चंद्र पांडेय की याचिका का विरोध किया। यह कहते हुए कि रामजन्मभूमि के गेट पर लगे ताले को खोलने से कानून व्यवस्था भंग होने की आशंका है। न्यायाधीश ने सरकार की यह दलील ठुकराते हुए कहा कि रामजन्मभूमि पर ताला लगाने का कोई भी आदेश किसी भी अदालत में पूर्व में नही दिया है।
…जब जज ने कहा
1 फरवरी 1986 को मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद जज ने कहा कि वह मुकदमे का फैसला उसी दिन शाम 4.15 बजे करेंगे। शाम 4.15 बजे उन्होंने ताला खोलने का आदेश दिया। न्यायाधीश ने इस बात की भी अनुमति दी कि जनता दर्शन व पूजा के लिए रामजन्मभूमि जाए। अपने आदेश में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राज्य सरकार अपील दायर करने वाले तथा हिंदुओं पर रामजन्मभूमि में पूजा या दर्शन में कोई बाधा और प्रतिबंध न लगाए। न्यायाधीश के आदेश देने के बमुश्किल 40 मिनट बाद ही सिटी मजिस्ट्रेट फैजाबाद रामजन्मभूमि मंदिर पहुंचे और उन्होंने गेट पर लगे ताले खोल दिये। इसके बाद से ही इस प्रकरण पर सभी पक्षकार अधिक सक्रिय हुए।
राममंदिर और राजनीतिक आंदोलन
1980 के उस दौर में विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन चला रही थी। धर्मसंसद में साधुओं और संन्यासियों ने तत्कालीन राजीव गांधी सरकार पर आरोप लगाया कि मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर हिंदुओं की भावना से कांग्रेस खिलवाड़ कर रही है। सड़कों पर राम मंदिर समर्थकों के आंदोलन से कांग्रेस सरकार घबराई हुई थी। एक साल पहले 1985 में शाहबानो केस में कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। राजीव गांधी सरकार के इस फैसले पर विरोधी दल खासतौर पर भाजपा आरोप लगाती रही कि तुष्टीकरण के नाम पर कांग्रेस बहुसंख्यक आबादी के हितों उनके चिन्हों की अनदेखी कर रही है। कांग्रेस के खिलाफ रोष इस कदर बढ़ चुका था कि उनके रणनीतिकारों को लगता था कि कहीं हिंदू मतदाता छिटक न जाएं लिहाजा अयोध्या विवाद के कानूनी पक्ष पर जोर दिया जाने लगा।
भारतीय राजनीति की ऐतिहासिक पटकथा
राम मंदिर पर राजनीति और अदालत अपनी चाल चलती रही। एक फरवरी 1986 को ऐतिहासिक फैसले में ताला खोलने की इजाजत दी गई। विहिप ने इसे अपनी बड़ी जीत बताया। लेकिन भारतीय राजनीति किसी बड़े बदलाव की संकेत दे रही थी। 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस की बुरी हार हुई, कांग्रेस के बागी नेता रहे वी पी सिंह की जनता दल मे वाम दलों और भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई। ये एक ऐसी सरकार थी जिसमें अंतर्विरोध निहित थे। ये सरकार कुछ महीनों तक ही चल सकी। दिल्ली की तख्त पर नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार काबिज हुई। अयोध्य विवाद भी अलग रास्ते पर जा रहा था। 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया और भारतीय राजनीति में एक अलग तरह की पटकथा लिखे जाने का आधार तैयार हो चुका था।