पंजाब के 25 किसान संगठनों ने राजनीतिक में एंट्री करने की घोषणा की, जानें किस दल पर क्या पड़ेगा असर

पंजाब की सियासी रणभूमि में अब तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठजोड़ आमने-सामने की लड़ाई का लुत्फ लेते रहे। मतदाताओं ने पिछले चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के रूप में लड़ाई का तीसरा कोण भी देखा था। इस बार शिअद और भाजपा के रिश्ते में आई दरार और कैप्टन अमरिंदर सिंह के अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ जाने के बाद लड़ाई समकोणीय हो गई थी, लेकिन 25 किसान संगठनों ने शनिवार को ‘संयुक्त समाज मोर्चा’ बनाकर पांचवां कोण बनने की कोशिश की है।

निश्चित रूप से तीन कृषि कानूनों को लेकर चले आंदोलन में सभी किसान संगठन एक प्लेटफार्म पर आए हैं और लोगों की सहानुभूति उनके साथ रही है, लेकिन राजनीतिक रूप से विभिन्न विचारधाराओं में बंटे किसान संगठन क्या चुनावी राजनीति में भी लोगों की वही सहानुभूति प्राप्त कर पाएंगे या उनका हाल भी मनप्रीत बादल की पंजाब पीपल्स पार्टी (पीपीपी) जैसा होगा। इस सवाल का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि किसानों के चुनावी मैदान में आने से कई समीकरण बदल जाएंगे।

किस पार्टी पर क्या असर…

शिरोमिण अकाली दल-बसपा गठजोड़, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों को ही ग्रामीण सीटों पर नुकसान होगा।

भाजपा : ज्यादा नुकसान नहीं भारतीय जनता पार्टी का तो पहले से ही ग्रामीण वर्ग में कोई आधार नहीं है, इसलिए उसका ज्यादा नुकसान नहीं होगा। भाजपा का पहले ही किसान बेल्ट में विरोध है। उसका मुख्य वोट बैंक शहरों में ही है।

शिअद: वोट बैंक में बड़ी सेंध जट्ट सिख किसानी वोट बैंक में सबसे बड़ा आधार शिरोमणि अकाली दल का है, लेकिन उनके ये वोटर पंथक तौर पर भी पार्टी से जुड़े हैं। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होने वाला है कि वह पंथक पार्टी के पास जाएं या किसानी मोर्चे की ओर। अकाली नेताओं ने किसानों के चुनाव लड़ने के इरादों को पहले ही भांप कर अपनी लड़ाई पंथक बना ली है। यदि वह इस वोट बैंक को अपनी ओर लाने में कामयाब नहीं हुए तो सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं को होने वाला है।

कांग्रेस: बड़ा झटकाकांग्रेस का भी ग्रामीण सेक्टर में अच्छा आधार है। गांवों की धड़ेबंदी के चलते उन्हें अच्छा खासा वोट बैंक यहां से मिलता है। पांच एकड़ तक की जमीन वाले किसानों का दो लाख रुपये तक का कर्ज माफ करके वह इस वोट बैंक को हासिल करने की आस लगाए बैठी है।

आम आदमी पार्टी: चिंता की बातआम आदमी पार्टी को भी पिछले चुनाव में अच्छा खासा वोट किसानों का मिला था, लेकिन पार्टी अपने निशाने पर पूरी नहीं उतर सकी और 20 में से 11 विधायक या तो पार्टी को छोड़ गया या राजनीति से ही बाहर हो गए। पार्टी के पास ग्रामीण सेक्टर में वैचारिक काडर वोट भी नहीं है। किसानों का मोर्चा आप को ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन एक बात साफ है कि किसानों का मोर्चा बनने से पंजाब में राजनीतिक समीकरण अब एक बार फिर से बदलेंगे।

आंदोलन नीचे आएगा, राजनीति में जाने वाले ‘अर्श से फर्श’ पर गिरेंगे: दर्शन पाल

किसान नेता व संयुक्त किसान मोर्चा की को-आर्डिनेशन कमेटी के सदस्य दर्शन पाल ने 25 किसान संगठनों के चुनाव लड़ने के फैसले पर कहा, ‘मुझसे यह लिखवा कर ले लो जो पालिटिक्स में जाएंगे, वह न किसान नेता रहेंगे, न आंदोलनकारी कहलाएंगे और न ही सियासत में कुछ योगदान दे सकेंगे। मेरे ख्याल से अब किसान आंदोलन बुरी तरह नीचे आएगा और जो आज राजनीति में जा रहे हैं, वह ‘अर्श से फर्श’ पर गिरेंगे। हमारे सयुंक्त किसान मोर्चे में से कुछ जत्थेबंदियों के मुंह से लार टपकने लगी है। इनका भी मन होने लगा है कि हम भी मंत्री बन जाएं। हमारी जत्थेबंदी का एलान है कि हम आंदोलन का रास्ता ही अपनाएंगे, क्योंकि आंदोलन के बिना कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।’

दर्शन पाल ने कहा, ‘अगर तीन कानून वापस हुए हैं, तो आंदोलन से हुए हैं। अगर कर्जो पर लकीर लगेगी तो आंदोलन से लगेगी। अगर एमएसपी मिलेगी तो आंदोलन से मिलेगी। असेंबली में चाहे कोई भी चला जाए.. वह एमएलए वहां एमएसपी नहीं दिला सकता और न ही कर्जे माफ करवा सकता है। जो किसान संगठन राजनीति की तरफ जा रहे हैं, उन पर पंजाब के किसानों को दवाब बनाना चाहिए कि वह ऐसा कर संयुक्त किसान मोर्चे को टूटने से बचा सकें।’

राजनीति में उलझने के बजाय संघर्ष पर ध्यान दें: भाकियू

भारतीय किसान यूनियन (एकता-उगराहां) ने कहा कि संघर्षशील किसान संगठनों को शासकों की वोट राजनीति में उलझने की बजाय किसान मांगों के लिए संघर्ष पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। संगठन के प्रदेश अध्यक्ष जोगिंदर सिंह उगराहां व महासचिव सुखदेव सिंह कोकरी कलां ने कहा कृषि कानूनों के खिलाफ चले किसान संघर्ष ने भी यह साबित किया है कि किसान हकों व हितों की रक्षा संसद या विधानसभा में बैठकर नहीं होती, बल्कि उसके मुकाबले सड़कों पर संघर्ष करने से होती है। अभी सिर्फ कृषि कानून ही वापस हुए हैं, जबकि एमएसपी एवं कर्जा मुक्ति समेत बहुत बडे़ मसले अभी सिर पर खडे़ हैं। संगठन की नीति बहुत साफ है कि वह न तो चुनाव में खुद भाग लेंगे व न ही किसी पार्टी की हिमायत करेंगे। चुनाव बहिष्कार का भी कोई आह्वान नहीं है। हम मौजूदा चुनावी राजनीति को लोगों को भटकाने वाली सरगर्मी समझते हैं। कर्ज मुक्ति जैसी अन्य जवलंत मांगों पर 15 जिलों में पक्के मोर्चे रहेंगे।

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