राजस्थान: आखिर इस बात पर पायलट और गहलोत को लेकर क्यों मजबूर हुए राहुल गांधी

राजस्थान का सियासी रण काफी दिलचस्प हो गया है. एक तरफ सत्ताधारी बीजेपी, पार्टी में बगावत से जूझ रही है, तो वहीं विपक्षी दल कांग्रेस में भी पिछले पांच दिनों से उम्मीदवारों की घोषणा को लेकर कश्मकश जारी है. भले ही कांग्रेस ने उम्मीदवारों की पहली सूची जारी न की हो लेकिन बुधवार को इस बात का ऐलान हो गया कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे.

कांग्रेस के संगठन महासचिव बनने के बाद इस तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि अब पू्र्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राज्य की राजनीति नहीं करेंगे. इसलिए यह माना जा रहा था कि प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट के लिए अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने का रास्ता साफ है. अशोक गहलोत भी कई बार इस बात को दोहरा चुके थे कि वो पार्टी में ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं कि अब वो मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं बल्कि बनाएंगे.

कांग्रेस का एक बहुत बड़ा धड़ा मध्यप्रदेश का फार्मूला अपनाने पर जोर दे रहा था, जिसमें बड़े और कद्दावर नेता चुनाव न लड़ते हुए पार्टी को जिताने पर ध्यान केंद्रित करें. लिहाजा यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर क्या वजह रही कि पार्टी आलाकमान को प्रदेश के दो बड़े ध्रुव, अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों को चुनाव लड़ाने पर मजबूर होना पड़ा?

वो मुख्यमंत्री हैं, चुनाव चिन्ह ‘कार’ है, संपत्ति 22 करोड़ लेकिन खुद के पास कार नहीं

अब तक राजस्थान की हर सभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता के सामने ये दिखाने की कोशिश की है कि राजस्थान में पार्टी एकजुट है और दो अलग-अलग पीढ़ी के नेताओं में कोई मतभेद नहीं है. सचिन पायलट और अशोक गहलोत भी एकजुटता का संदेश देने के लिए संकल्प रैलियों में एक बस में साथ सवार होकर सभा में शामिल होते रहे. वहीं करौली की एक जनसभा में जाते समय जब रास्ते में काफी जाम लग गया तब पायलट ने एक कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल मांगी और गहलोत को पीछे बैठाकर खुद मोटरसाइकिल चलाते हुए रैली स्थल पहुंच गए. राहुल गांधी ने भी दोनों नेताओं की इस तस्वीर का जिक्र करते हुए मंच से कहा था कि वे अब आश्वस्त हैं कि पार्टी में कोई मतभेद नहीं है.

कांग्रेस की रैलियों में हाथ मिलाने, मोटरसाइकिल पर साथ सवारी करने के बाद बुधवार को इस बात की घोषणा स्वयं अशोक गहलोत ने पार्टी मुख्यालय से की कि वे और सचिन पायलट विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. जिसके बाद सचिन पायलट ने भी कहा कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के निर्देश और अशोक गहलोत के निवेदन पर वे विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे. सतही तौर पर यह देखने में काफी सामान्य लगता है कि दो बड़े नेता जिन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जा रहा है वो चुनावी मैदान में हैं. पार्टी ने भी सीएम पद का चेहरा न देकर विकल्प खुला रखा है.

गहलोत नहीं छोड़ना चाहते अपनी राजनीतिक जमीन

राजस्थान में यह माना जाता है कि सचिन पायलट पर राहुल गांधी का हाथ है, लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि वर्तमान में राहुल के सबसे मजबूत ‘हाथ’ अशोक गहलोत हैं. वर्तमान में राजस्थान की राजनीति में मास लीडर के तौर पर यदि किसी का नाम सबसे ऊपर होगा तो वो अशोक गहलोत ही होंगे. राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यक और कमजोर जाति से आने वाले गहलोत ने अपने कार्यकाल में राजस्थान में ऐसा जादू चलाया जिसकी काट अभी किसी के पास नहीं है. गहलोत का राजनीतिक कौशल ही था कि 1998 में मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार परसराम मदेरणा को पीछे छोड़ते हुए वे सत्ता के शिखर पर पहुंचे.

भले ही राजस्थान में मृतप्राय पड़ी पार्टी में जान फूंकने में पायलट सफल रहे हों लेकिन राजस्थान की जनता के सामने अभी उन्हें खुद को साबित करना बाकी है. राज्य की पिछड़ी जातियों में गहलोत सर्वमान्य नेता हैं. बड़ी और प्रभावी जातियों के समीकरण को तोड़ते हुए अपनी तैयार की हुई राजनीतिक जमीन वे किसी हाल में छोड़ने के मूड में नहीं है.

लेकिन कांग्रेस का संगठन महासचिव होने के नाते गहलोत भली-भांति जानते हैं कि अब वो पुरानी बात नहीं रही जिसमें वे बिना विधानसभा चुनाव लड़े मुख्यमंत्री बन गए थे. इसके पीछे भी इतिहास है कि जब 2008 के चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी का मुख्यमंत्री बनना तय था तब वे एक वोट से विधानसभा चुनाव हार गए थे, ऐसे में गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाया गया था क्योंकि वे विधायक चुने गए थे.

 पायलट को जमीन तैयार करने का मिला भरपूर मौका

लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद राहुल गांधी ने राज्यों में पार्टी का मजबूत संगठन खड़ा करने के लिए बड़े स्तर पर परिवर्तन किया. इसमें सबसे बड़ा बदलाव मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुआ जहां बड़े नेताओं को किनारे करते हुए युवा नेतृत्व को राज्य की जिम्मेदारी सौंपी गई. अजमेर से लोकसभा चुनाव हारने के बाद जब सचिन पायलट को राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तब पार्टी के भीतर उनका मुकाबला अशोक गहलोत और सीपी जोशी से था. दोनों ही राहुल गांधी के भरोसेमंद सिपहसलार और रणनीतिज्ञ माने जाते थे. साथ ही पायलट की छवि पैराशूट से उतरे नेता के तौर पर देखी जा रही थी, जिसकी कोई जमीनी पकड़ नहीं थी.

इन सब वजहों के बावजूद सचिन पायलट ने राज्य में अर्श से फर्श पर पड़ी पार्टी को जीत के मुहाने ला खड़ा किया है. उनके नेतृत्व में पार्टी हर उपचुनाव जीती. पायलट की इस सफलता के पीछे कई वजहें रहीं जिसमें पहली वजह यह थी कि उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर काम करने का पांच साल का लंबा वक्त मिला. जिससे उन्हें अपना नेटवर्क खड़ा करने और कांग्रेस के चेहरे के तौर पर खुद को स्थापित करने में आसानी हुई. दूसरा पायलट ने अध्यक्ष के तौर पर प्रदेश की जमकर यात्राएं कीं और पार्टी को खड़ा करने की कोशिश की. जब राज्य में विधानसभा चुनाव की चर्चा भी नहीं तब तक सचिन पायलट पूरे प्रदेश का लगभग दो बार दौरा कर चुके थे. तीसरी, उनके सौम्य, संयमित व्यक्तित्व की वजह से जनता खासकर युवाओं में उनकी छवि एक प्रगतिशील और आधुनिक नेता के तौर पर हुई.

इन सबके बावजूद राजस्थान की जनता सचिन पायलट को जिस तराजू में तौलेगी उसमें पहले से ही अशोक गहलोत बैठे हैं, लिहाजा तराजू गहलोत की तरफ ही झुकेगा. इसके पीछे की वजह साफ है पायलट पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. अजमेर से लोकसभा सांसद रह चुके हैं और उनके पिता दौसा से सांसद रह चुके हैं. पायलट की एक कमजोरी यह भी है कि उन्हें बाहरी समझा जाता है. क्योंकि वे मूलत: राजस्थान के नहीं बल्कि यूपी के नोएडा के रहने वाले हैं और 80 के दशक में उनके पिता राजेश पायलट ने दौसा में अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की. लिहाजा सचिन पायलट के पास ऐसी कोई सेफ सीट नहीं है जिससे वे सीट पर जाए बिना चुनाव जीत जाएं.

जबकि अशोक गहलोत के साथ ऐसा नहीं है, वे पिछले चार दशक से राज्य में सक्रिय हैं और जोधपुर की सरदारपुरा सीट पर जाए बिना भी जीतने का माद्दा रखते हैं. सचिन पायलट को मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाने के पीछे कांग्रेस के पास कई कारण थे जिसमें मुख्य कारण यह था कि चुनाव से पहले पार्टी गुटबाजी को हवा नहीं देना चाहती. दूसरा वे गुर्जर समुदाय से आते हैं, जिसकी गिनती मार्शल कौम में होती है. कांग्रेस नहीं चाहती कि राज्य में जाट और मीणा वोट उससे नाराज हों. यहां बताना जरूरी है कि गुर्जर और मीणा एक दूसरे के परस्पर विरोधी माने जाते हैं.

जबकि अशोक गहलोत जिस समुदाय का नेतृत्व करते हैं वो शांत माना जाता है और पिछड़ी जातियां उनके नेतृत्व में खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं. कांग्रेस आलाकमान ने यह फैसला सोच समझ कर ही लिया होगा कि या तो दोनों में से कोई चुनाव नहीं लड़ेगा और अगर लड़ेगा तो दोनों ही लड़ेंगे. अशोक गहलोत विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, लिहाजा सचिन पायलट को भी चुनाव लड़ाया गया.

यह माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस को भारी बहुमत से जीत मिलती है, जिसकी तरफ तमाम ओपिनियन पोल इशारा कर रहे हैं. तब राज्य के मुख्यमंत्री सचिन पायलट हो सकते हैं. लेकिन यदि जीत का अंतर कम रहा जैसा 2008 के चुनाव में था तब ऐसी सूरत में पार्टी अपने ‘जादूगर’ पर ही दांव खेल सकती है.

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