तात्विक सुधार से परे है नई शिक्षा नीति का खाका

केपी सिंह

नई शिक्षा नीति में शिक्षा के निजीकरण के पहलू की कोई चर्चा नहीं की गई है जबकि यह बहुत आवश्यक था। शिक्षा, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मुनाफाखोरी के बोलबाले के चलते लोगों की मौलिक जरूरतों के खर्चे बढ़ रहे हैं। यह स्थितियां आर्थिक उद्वेलन को गहराने का कारण बनती हैं जो नैतिक तटबंध तोड़ने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
सभी स्तरों पर शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा में कई और आयाम भी जुड़े हुए हैं जिन्हें सांस्कृतिक विमर्श पर जोर देने वाली वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी सामन्यतया नजअंदाज नहीं कर सकती। लेकिन जो हो रहा है उससे पार्टी के दृष्टिकोण और नीतियों में बड़ा घालमेल बन गया है।
नरेन्द्र मोदी के विराटकाय नेतृत्व की वजह से इस पर पार्टी के अंदर टकराव और विरोधाभास की स्थिति तात्कालिक तौर पर भले ही न बन पा नही है लेकिन दूरगामी तौर पर इसमें कुशलता के लक्षण नहीं हैं।
हालत यह बन गई है कि तथाकथित पब्लिक स्कूलों की पैठ गांव-गांव तक पहुंच गई है। निशुल्क प्राथमिक शिक्षा के तामझाम पर सरकार भारी बजट व्यय कर रही है। दूसरी ओर गांव तक में लोग बच्चे का नामांकन भले ही सरकारी स्कूल में कराये हो जिसके पीछे टीसी लेने जैसी मजबूरी रहती है। लेकिन असल पढ़ाई वे बिना मान्यता और अग्रेजी नाम वाले पब्लिक स्कूल में ही कराते हैं। सरकारी विद्यालयों में टीचर कठिन प्रतियोगी परीक्षा के बाद चयनित हो पाते हैं। उन्हें वेतन भी प्राइवेट स्कूल के टीचर से कई गुना ज्यादा मिलता है। योग्यता में उनकी प्राइवेट स्कूल के टीचर के मुकाबले कोई सानी नहीं है। फिर भी आश्चर्य है कि लोग सरकारी स्कूलों पर भरोसा नहीं कर पा रहे।
सरकार की निशुल्क प्राथमिक शिक्षा योजना का लाभ उठाकर आम लोग चाहें तो बच्चों की शिक्षा में काफी बचत कर सकते हैं। लेकिन शायद स्टेटस सिम्बल के लिए भी उन्हें बच्चे को तथाकथित पब्लिक स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य लगता है। अभिभावक यह महसूस करने के लिए बाध्य हैं कि अगर उन्होंने बच्चे को पढ़ाई के नाम पर सरकारी स्कूल में धकेला तो वह कुण्ठित हो जायेगा और उसमें हीन भावना बैठ जायेगी।
वर्तमान सरकार आने के बाद कांवेन्ट स्कूलों के भविष्य पर प्रश्नचिंह लगता दिखाई दिया था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एक समय विद्या मंदिर स्थापित करके प्राथमिक से लेकर इण्टर कालेज तक शिक्षा के लिए समानान्तर मॉडल का अभियान चलाया था। उद्देश्य था शिक्षा को पाश्चात्य संस्कृतिकरण से मुक्त कराना। सादगी के बावजूद यह प्रयोग बेहद कामयाब रहा था। संघ के आलोचक तक विद्या मंदिर समूह के विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए लालायित होने लगे थे। यहां तक कि समझदार मुस्लिम भी इन विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजने लगे थे। लेकिन आज वह जोश खरोश कहां चला गया। आज विद्या मंदिर समूह के विद्यालय बुरी दशा में हैं। इस आंदोलन के लिए अपना कैरियर समर्पित कर देने वाले आचार्य मोह भंग के शिकार हो रहे हैं। राज्य में जब भाजपा की सरकार रही तो भी इन विद्यालयों को एडिड नहीं किया गया।
अब जबकि भाजपा सर्वत्र सरकार में है तो उसे समानान्तर प्रयास करने की उतनी जरूरत भी नहीं है। अब तो सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों को ही वह अपने खाके की पूर्ति का टूल बनाने के लिए सक्षम हैं।
पर ऐसा कहां हो रहा है। उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट आदेश कर चुका है कि बड़े अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ायें ताकि आम लोगों को सरकारी स्कूलों की स्वीकृति के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। दूसरे कुछ राज्यों में कई कलेक्टर एसपी ने कोर्ट के आदेश की बाध्यता के बिना ही अपने बच्चों का दाखिला सरकारी विद्यालय में कराकर एक उदाहरण पेश करने की कोशिश की है। लेकिन उत्तर प्रदेश में नौकरशाही के लिए कोई जनवादी पहल नामुमकिन है।
सरकार भी हाईकोर्ट के आदेश पर जोर नहीं दे रही। हाल के वर्षो में अधिकारियों ने औपनिवेशिक ग्रन्थि बहुत प्रचंड तौर पर उभर आयी है जबकि राम राज्यवादी सरकार के समय उसे सर्व सुलभ बनने की कोशिश करनी चाहिए थी। भगवान राम राज सिंहासन से कृतार्थ नहीं थे। उन्हें लोगों के मन के सिंहासन पर स्थान बनाने की ललक थी। इसीलिए वे भेष बदलकर लोगो को टटोलने के लिए महल से बाहर निकलकर गलियों की धूल छानते थे। सरकार अक्सर नौकरशाही के सामने समर्पण की मुद्रा में नजर आती है जिससे उसका मद और बढ़ गया है। आय और अर्जित परिसंपत्तियों का ब्यौरा प्रतिवर्ष दाखिल करने की अनिवार्यता के मामले में सरकार का दुम दबा जाना इसका उदाहरण है।
अहम्मन्यता का पराकाष्ठा के कारण अधिकारियों ने वर्तमान में पीड़ित लोगों की सुनवाई और उन्हें सार्थक राहत दिलाने का काम बिल्कुल बंद कर दिया है। इस रवैये के चलते मुख्यमंत्री जन सुनवाई पोर्टल तक में शिकायतें करना अर्थहीन हो गया है। काम करने के नाम पर अधिकारी तकनीकी उपायों को चुस्त दुरूस्त करने की कवायद तक अपने को सीमित रख रहे हैं। पीड़ित आम लोगों को राहत से उन्हें इसलिए सरोकार नहीं है क्योंकि लोग उनकी निगाह में कीड़े मकोड़े से ज्यादा अहमियत नहीं रखते जो हमेशा अपनी तकलीफों को लेकर बिलबिलाते ही रहेंगे।
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सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराकर जमीन तोड़ने का जीवट दिखाना उन्हें कतई गवारा नहीं है क्योंकि इससे हुकुमरां की अपनी विशिष्टता को गंवा देने का खतरा उन्हें महसूस होता है। शिक्षा का कांवेन्टीकरण क्या है। विशिष्टता की इसी ग्रन्थि के तहत इंडिया बनाम भारत की लकीर को और गहराना। शिक्षा का निजीकरण विलासिता, मुनाफाखोरी और विषमता मूलक मानसिकता के निर्माण का अड्डा है।
कांवेन्ट स्कूलों में पढ़ाई कम चोंचले ज्यादा होते हैं। कभी फादर्स-मदर्स डे के नाम पर, कभी तमाम और डे के नाम पर फीस की अतिरिक्त चंदा वसूली के लिए लगातार ईवेंट का आयोजन, एक ओर तो देश में जल संरक्षण की जरूरत महसूस की जा रही है, दूसरी ओर इन विद्यालयों में स्वीमिंग पूल की व्यवस्था हाइलाईट्स के रूप में दर्शायी जाती है। मतलब यह कि ऐसे कल्चर को पोषित करना जिससे जल संरक्षण के साथ खिलवाड़ हो। वेशभूषा से लेकर खानपान तक ऐसे संस्कार को घोला जाता है जिससे सादगी भूलकर नई पीढ़ी बचपन से ही लक्जरी लाइफ का सपना देखने लगे।
कृष्ण और सुदामा को एक क्षत के तले पढ़ाने वाले विद्यालयों की भाजपा की कल्पना अब कहां चली गई। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने कार्यभार संभालने के बाद कांवेन्ट स्कूलों की मुनाफाखोरी पर अंकुश लगाने का संकल्प व्यक्त किया था लेकिन उसे बैकफुट पर जाना पड़ा यह साफ नजर आ रहा है। फीस वसूली और अनधिकृत पुस्तकें लादने में जिस तरह से कांवेन्ट स्कूल अधिक कमाई के लिए अभी भी मनमानी में जुटे हुए है उससे यह स्पष्ट है।
कांवेन्ट स्कूलों के अस्तित्व का जब प्रश्न आता है तो सरकार सुकुमार क्यों हो जाती है। उसका लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि उसके कार्यकाल में बड़े पब्लिक स्कूलों की छोटे शहरों में फ्रेंचायजी लेने वाले लोग हतोत्साहित हों। पर जबसे बीजेपी सरकार आयी है इसमें उछाल सामने आ रहा है। शिक्षा के निजीकरण के प्रति मोह दिखाकर सरकार देश में पश्चिमी संस्कृति के हिन्दू संस्करण का आधार तैयार कर रही है। जो अपने उद्देश्यों और परिणामों में मौलिक हिन्दू संस्कृति से सर्वथा परे है।
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गुड गवर्नेंस के दृष्टिकोण से भी बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में आर्थिक उथल पुथल को बढ़ावा ठीक नहीं है। गुड गवर्नेंस समाज में अंतर्निहित नैतिक व्यवस्था से संभव हो पाती है। लोगों की आमदनी बढ़ने के बावजूद उनमें ईमानदारी नहीं बढ़ेगी अगर शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरतों के मामले में खर्च की सीमा को लेकर उन्हें आश्वस्त नहीं रहने दिया जायेगा।
लोगों में ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की खब्त जरूरी सेवाओं के खर्च के मामले में असुरक्षा के चलते सवार होती है। विद्या मंदिर समूह मौलिक हिन्दू संस्कृति को बढ़ावा देने की नीति के अनुरूप काम कर रहे थे। इनके कर्णधारों को सरकारी स्कूलों में अपना मॉडल साकार करने की जिम्मेदारी सौपी जाये। संपन्नता की सकारात्मक परिणति लक्जरी लाइफ नहीं सादगी जैसे मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता का विकास है।
नई शिक्षा नीति शिक्षा व्यवस्था में तात्विक परिवर्तन के लिए होना चाहिए न कि उसके तकनीकी ढ़ांचे को उन्नत और सुदृढ़ करने तक इसे सीमित समझा जाये।
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डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।

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