हार्ड ग्राउंड बारहसिंघा और बाघों का बसेरा

घने ऊँचे वृक्षों के बीच से सूरज की रोशनी कुछ इस तरह से झर रही थी, मानो स्वर्ण किरणें सीधे स्वर्ग से आ रही हों! हम खुली जीप पर सवार थे। जंगल की नमी युक्त , महुए की खुशबू से सराबोर हवा हमें एक मादक स्पर्श से अभिभूत कर रही थी। गर्मी के मौसम में भी हल्की ठंड का अहसास हो रहा था, मानो, प्रकृति ने एयरकंडीशनर चला रखा हो। पत्तों की खड़खड़ाहट भी हमें चौंका देती थी, लगता था कि अगले ही पल कोई वन्य जीव हमारे सामने होगा। मेरे बच्चों की जिज्ञासा हर पल एक नया सवाल लेकर मेरे सम्मुख थी।

मिलिट्री कलर की ड्रेस में ग्राम खटिया का रहने वाला मूलत:

आदिवासी गौड़, हमारा गाइड मुन्नालाल बार बार बच्चों को शांत रहने का इशारा कर रहा था, जिससे वह किसी आसन्न जानवर की आहट ले सके। बिटिया चीना ने खाते खाते चिप्स का पैकेट खाली कर दिया था, और उसने पालीथिन के उस खाली पैकेट को अपने बैग में रख लिया।

जंगल में घुसने से पहले ही हमें बताया गया था कि जंगल ‘नो पालीथिन’ जोन है, जिससे कोई जानवर पालीथिन गलती से न खा ले, जो उसकी जिंदगी की मुसीबत बन जाये। कान्हा का अभ्यारण्य क्षेत्र ईकोलाजिकल फारेस्ट के रूप में जाना जाता है। जंगल में यदि कोई पेड़ सूखकर गिर भी जाता है तो यहां की विशेषता है कि उसे उसी स्थिति में प्राकृतिक तरीके से ही समाप्त होने दिया जाता है। यही कारण है कि कान्हा में जगह जगह ऊंचे बड़े दीमक के घर (बांमी) देखने को मिलते हैं।

पृथ्वी पर पाई जानें वाली बड़ी बिल्ली की प्रजातियों में से सबसे रोबीला, अपनी मर्जी का मालिक और खूबसूरत है, भारत का राष्ट्रीय पशु – बाघ। जहां एक बार भारत के जंगलों में 40,000 से अधिक बाघ थे, पिछले दशक में ऐसा लगा मानो यह प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर है। शिकार के कारण तथा जंगलों की अंधाधुंध कटाई के चलते भारत के वन्य क्षेत्रों में बाघों की संख्या घट कर 2000 से भी कम हो गई थी। समय रहते सरकार और पर्यावरणविदो ने सक्रिय भूमिका निभाई।

कान्हा जैसे वन अभयारण्यों में पुन:

बाघों को अपना घर मिला और प्रसन्नता का विषय है कि अब बाघों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है। बाघों को तो चिड़ियाघर में भी देखा जा सकता है, परंतु जंगल में मुक्त विचरण करते बाघ देखने का रोमांच और उत्साह अद्भुत होता है। वन पर्यटन हेतु मध्य प्रदेश टूरिज्म डिपार्टमेंट ने कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान आदि में बाघ सफारी हेतु इंतजाम किये हैं। इन वनो में हम भी शहरी आपाधापी छोड़कर जंगल के नियमों और प्रकृति से तादाम्य स्थापित करते हुये, बिना वन्य प्राणियों को नुकसान पहुंचाये उन्हें निहार सकते हैं।

इन पर्यटन स्थलों के वन संग्रहालयों में पहुंचकर वन्य प्राणियों के जीवन चक्र को समझ सकते हैं, और लाइफ टाइम मैमोरीज के साथ ही प्राकृतिक छटा में, अविस्मरणीय फोटोग्राफ लेकर एक रोचक व रोमांचक अनुभव कर सकते हैं। कान्हा रास्ट्रीय उद्यान व बाघ अभयारण्य मध्य प्रदेश राज्य के मंडला एवं बालाघाट जिलों में स्थित है। कान्हा में हमें बाघों व अन्य वन्य जीवों के अलावा पृथ्वी पर सबसे दुर्लभ हिरण प्रजातियों में से एक – ‘हार्ड ग्राउंड बारहसिंगा’ को भी देखने का मौका मिलता है।

समर्पित स्टाफ व उत्कृष्ट बुनियादी पर्यटन ढांचे के साथ कान्हा भारत का सबसे अच्छा और अच्छी तरह से प्रबंधित अभ्यारण्य है। यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, हरे भरे साल और बांस के सघन जंगल, घास के मैदान तथा शुद्ध व शांत वातावरण पर्यटक को सम्मोहित कर लेते हैं। कान्हा पर्यटकों, प्राकृतिक इतिहास, वन्य जीव फोटोग्राफरों, बाघ और वन्यजीव प्रेमियों के साथ बच्चों और आम लोगों के बीच प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि लेखक श्री रुडयार्ड किपलिंग को ‘जंगल बुक’ नामक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास लिखने के लिए इसी जंगल से प्रेरणा मिली थी।

किपलिंग रिसार्ट नामक एक परिसर उनकी स्मृतियां हर पर्यटक को दिलाता रहता है। बाघ व बारहसिंगे के सिवाय कान्हा में तेंदुआ, गौर (भारतीय बाइसन), चीतल, हिरण, सांभर, वार्किंग डीयर, सोन कुत्तों के झुंड, सियार इत्यादि अनेक स्तन धारी जानवरों, तथा कुक्कू, रोलर्स, कोयल, कबूतर, तोता, ग्रीन कबूतर, रॉक कबूतर, स्टॉर्क, बगुले, मोर, जंगली मुर्गी, किंगफिशर, कठफोड़वा, फिन्चेस, उल्लू और फ्लाई कैचर जैसे पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियों एवं विभिन्न सरीसृपों को हम यहाँ देख सकते हैं। प्रकृति की सैर व वन्य जीवों को देखने के अलावा बैगा और गोंड आदिवासियों की संस्कृति व रहन सहन को समझने के लिए भी पर्यटक यहाँ देश विदेश से आते हैं।

भारत में सबसे पुराने अभ्यारण्य में से एक, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान को 1879 में आरक्षित वन तथा 1933 में अभयारण्य घोषित किया गया। सन् 1973 में इसे वर्तमान स्वरूप और आकार में अस्तित्व में लाया गया था, लेकिन इसका इतिहास महाकाव्य रामायण के समय से पहले का है। कहा जाता है कि अयोध्या के महाराज दशरथ ने कान्हा में स्थित श्रवण ताल में ही श्रवण कुमार को हिरण समझ कर शब्द भेदी बाण से मार दिया था तथा श्रवण कुमार का अंतिम संस्कार श्रवण चिता में ही हुआ था। आज भी वर्ष में एक दिन जब श्रवण ताल में आदिवासियों का मेला भरता है, सभी को वन विभाग द्वारा कान्हा वन्य क्षेत्र में निशुल्क प्रवेश दिया जाता है।

इस क्षेत्र में पायी जाने वाली रेतीली अभ्रक युक्त मिट्टी, जिसे स्थानीय भाषा में ‘कनहार’ के नाम से जाना जाता है, के कारण इस वन क्षेत्र में कान्हा नामक वन्य-ग्राम था, जिसके नाम पर ही इस जंगल का नाम ‘कान्हा’ पड़ा। एक अन्य प्रचलित लोक गाथा के अनुसार कवि कालिदास द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में वर्णित ऋषि कण्व यहां के निवासी थे तथा उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम कान्हा पड़ा।

कान्हा राष्ट्रीय पार्क के चारों ओर बफर क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति और जीवन स्तर को देखने के लिए गांव का भ्रमण तथा जंगल को पास से देखने व समझने के लिए एवं पक्षियों को निहारने के लिए सीमित क्षेत्र में पैदल जंगल भ्रमण किया जा सकता है। कान्हा के प्राकृतिक परिवेश और शांत वातावरण में स्वास्थ्यप्रद भोजन, योग और ध्यान के साथ स्वास्थ्य पर्यटन का आनंद भी लिया जा सकता है।

कान्हा क्षेत्र बैगा और गोंड आदिवासियों का निवास रहा है। बैगा आदिवासियों को भारतीय उप महाद्वीप के सबसे पुराने निवासियों में से एक के रूप में जाना जाता है। वे घुमंतू खेती किया करते थे और जंगल से शहद, फूल, फल, गोंद, आदि लघु वनोपज एकत्र कर के अपना जीवन यापन करते थे। स्थानीय क्षेत्र और वन्य जीवन का उनको बहुत गहरा ज्ञान है। बांस के घने जंगल कान्हा की विशेषता हैं। यहां के स्थानीय ग्रामीण बांस से तरह तरह के फर्नीचर व अन्य सामग्री बनाने में बड़े निपुण हैं। मण्डला में कान्हा सिल्क के नाम से स्थानीय स्तर पर कुकून से रेशम बनाकर हथकरघा से रेशमी वस्त्रों का उत्पादन इन दिनों किया जा रहा है।

आप कान्हा से लौटते वक्त सोवेनियर के रूप में बांस की कोई कलाकृति, वन्य उपज जैसे शहद, चिरौंजी, आंवले के उत्पाद या रेशम के वस्त्र अपने साथ ला सकते हैं, जो बार-बार आपको प्रकृति के इस रमणीय सानिध्य की याद दिलाते रहें।

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