सरकार झुकी अब पूर्व सैनिक भी झुकें

यह चिंतनीय और खेदजनक है कि वन रैंक वन पेंशन संबंधी कुछ प्रावधानों के लिए दिल्ली में आंदोलन कर रहे सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चाय पार्टी के प्रस्ताव को ठुकराने की बात कही है। इस चाय पार्टी का आयोजन 1965 की लड़ाई के पचास साल पूरे होने पर किया जा रहा है। अनुशासन और निष्ठा के लिए पहचानी जाने वाली भारतीय सेना के एक वर्ग द्वारा इस तरह का खराब उदाहरण प्रस्तुत करना चिंताजनक ही कहा जाएगा। राष्ट्रपति की चाय पार्टी में शामिल होना अलग ही सम्मान का विषय है। इसकी तुलना सामान्य सरकारी आयोजनों से नहीं की जा सकती है।
सरकार द्वारा वन रैंक वन पेंशन की नीति पर सहमति जताए जाने के बाद पूर्व सैन्य अधिकारियों ने एक रैली आयोजित कर सरकार के निर्णयों पर पूर्ण संतोष नहीं जताया था। लेकिन अब धीरे-धीरे यह विरोध-प्रदर्शन किंचित कटुतापूर्ण होता जा रहा है। ऐसा भी लग रहा है मानो सेना का राजनीतिकरण करने की कोशिश की जा रही हो, जो कि नितांत अस्वीकार्य होना चाहिए। इसकी वजह यह है कि मोदी सरकार ने यह भलीभांति जानते हुए वन रैंक वन पेंशन की नीति अख्तियार करने का निर्णय लिया था कि इससे सरकारी खजाने को सालाना 10000 करोड़ रुपयों की चपत लगने वाली है।
इसके बाद यह माना जा रहा था कि इस पर लंबे समय से चला आ रहा विवाद अब समाप्त हो जाएगा। हां, अब भी कुछ सवाल जरूर शेष थे, लेकिन उन्हें तुलनात्मक रूप से महत्वहीन समझा जा रहा था। मिसाल के तौर पर संदेह जताया जा रहा था कि अपने कैरियर के बीच में ही सेना छोड़कर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वालों को वन रैंक वन पेंशन से वंचित रखा जाएगा। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी घोषणा में विशेष तौर पर इसका उल्लेख किया कि उनकी सरकार ऐसे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले पूर्व सैनिकों को भी वन रैंक वन पेंशन की सुविधा से वंचित नहीं करेगी। इसके बाद तो नाराज होने की कोई खास वजह नहीं रह जाना थी।
वास्तव में सरकार की भावी मंशाओं के प्रति संदेह जताने के बजाय सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी इस संबंध में एक सदस्यीय न्यायिक आयोग की रिपोर्ट का इंतजार कर सकते थे। लेकिन उन्होंने आंदोलन की राह पर अग्रसर रहने का निर्णय लिया। यह न केवल सरकार के प्रति अविश्वास का प्रदर्शन करना है, बल्कि इससे हमारी सेनाओं के मनोबल पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा।
गौरतलब है कि वन रैंक वन पेंशन का मुद्दा गरमाने से पहले तक ऑफिसर्स मेस या सैनिकों के बैरक या सेना के मिलन समारोहों इत्यादि में राजनीति से जुड़े विषयों पर बातें नहीं की जाती थीं। यह हमेशा से माना जाता रहा है कि सैनिक सबसे पहले एक सैनिक है, उसकी धार्मिक पहचान और राजनीतिक विचारधारा गौण है। लेकिन अब इन हालात में बदलाव देखा जा रहा है। अब सैन्य अधिकारियों के बीच राजनीतिक सवालों पर गर्मागर्म बहसें होती देखी जा सकती हैं।
यह सच है कि भारत में सरकारें जायज से जायज मांगों के बारे में भी तभी जाग्रत होती हैं, जब उनको लेकर संगठित आंदोलन-प्रदर्शन किए जाएं। सैन्य अधिकारियों के रोष को समझा जा सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सैन्य अधिकारियों की पेंशन को जब उनके अंतिम वेतनमान के 70 प्रतिशत के बजाय 50 प्रतिशत पर निर्धारित कर दिया था, तो इससे उनमें भड़कने वाला आक्रोश भी स्वाभाविक ही था। यह हमारी सेना के अनुशासन और निष्ठा की ही बानगी है कि इसके बावजूद 42 वर्षों तक सैन्य अधिकारियों द्वारा इसको लेकर सड़कों पर उतरकर कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया। आखिरकार जब सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी विरोध करने सड़कों पर उतरे, तब भी उन्होंने धरना और अनशन जैसे विरोध के गांधीवादी उपायों का ही पालन किया। हां, यह जरूर है कि सैनिकों के सड़कों पर उतरते ही अनुशासन की लक्ष्मणरेखा जरूर लांघी जा चुकी थी। कुछ सैन्य अधिकारियों ने तो यह तक कह दिया कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे बिहार में भाजपा के खिलाफ प्रचार करेंगे। हालांकि ऐसी बातों को क्षणिक आवेश का परिणाम ही कहा जा सकता है।
सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों की मांग है कि प्री-मैच्योर रिटायरमेंट (पीएमआर) लेने वाले सभी सैन्य अधिकारी वन रैंक वन पेंशन के दायरे में आने चाहिए। सरकार की योजना थी कि पीएमआर श्रेणी के कुछ अधिकारियों को वन रैंक वन पेंशन के दायरे से बाहर रखा जाए। इनमें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले वे अधिकारी शामिल हैं, जिनकी जगह नहीं भरी जा सकी। या फिर वे सैन्य अधिकारी शामिल हैं, जिन्हें प्रशासनिक कारणों से दंडित किया गया है। साथ ही सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों की मांग है कि कम से कम हर दो साल की अवधि में पेंशन का समानीकरण या समायोजन किया जाए। उन्हें इस बात पर भी आपत्ति है कि सरकार पेंशन निर्धारण का आधार वित्त वर्ष 2013-14 के बजाय कैलेंडर वर्ष 2013 को मान रही है। एक सदस्यीय न्यायिक आयोग के गठन को लेकर भी उन्हें ऐतराज है। इस आयोग को छह माह में अपनी रिपोर्ट सौंपना है। वे चाहते हैं कि इसके बजाय पांच सदस्यीय समिति हो, जिसमें तीन उनके प्रतिनिधि हों।
लेकिन जैसा कि जाहिर है, ये तमाम मसले गौण हैं और सरकार को इस बारे में विचार करने के लिए समय दिया जाना चाहिए। बेहतर होगा कि 42 साल इंतजार करने के बाद अब वे वन रैंक वन पेंशन को गरिमा और सम्मान के साथ स्वीकार करें। सैनिकों का मनोबल बहुत मूल्यवान है और वह किसी भी हालत में नीचे नहीं गिरना चाहिए। साथ ही सेना का राजनीतिकरण न हो, यह भी खयाल रखें।
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