सच्चाई की राह में कुर्बान होने का पैगाम लेकर मोहर्रम आ गये

मोहर्रम इस्लाम के चार प्रमुख त्योहारों में से एक में शुमार किया जाता है। यह इस्लामी क्लेंडर के मुताबिक साल का पहला महीना होता है। क्योंकि इस महीने में अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लाहो-ताला-अलैहे-वस्सलम ने मक्का शरीफ से मदीना शरीफ मे हिजरत करके हिजरी सन् की शुरूआत की थी (मक्का शरीफ छोड़ कर मदीना शरीफ मे चले गये थे)। मुहर्रम हमको सब्र करना और अल्लाह की ज़ात पर यक़ीन करना सिखाता है। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस महीने को अल्लाह का महीना कहा है।
मोहर्रम क्यो मनाया जाता है
सन् 680 में इराक़ में स्थित कर्बला जिसे आज हम सीरिया के नाम से जानते है वहां एक धर्म युद्ध हुआ था। ये युद्ध हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे हज़रत अली के बेटे हज़रत इमाम हुसैन और हज़रत माविया के बेटे यज़ीद (इब्ने सअद) के बीच हुआ था। जो 60 हिजरी मे पूरे अरब पर काबिज़ होकर लोगों में गुमराही पैदा करना चाहता था। तब हज़रत इमाम हुसैन ने मुखाल्फत का एलान कर दिया था। जिसमें सुन्नी मत के मुताबिक यज़ीद और उसकी फौज ने हज़रत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को (जिसमें उनका 6 महीने का बेटा हज़रत अली भी शामिल था) कर्बला के मैदान की तपती रेत पर प्यासा शहीद कर दिया और इमाम हुसैन ने अपनी शहादत के खून से इस्लाम को एक नयी ज़िंदगी दी। उस दिन से पूरी दुनिया का मुस्लमान हर साल मोहर्रम के शुरूआती 10 दिन को इमाम हुसैन की शहादत और गम़े हुसैन के नाम से याद करता है।
मोहर्रम की बरकत
मोहर्रम बहुत ही बरकत वाला महीना होता है। इस महीने की 9,10 तारीख़ को रोज़ा रखने से काफी सवाब मिलता है। मुहर्रम की 10 तारीख यौमे अशुरा के नाम से भी जानी जाती है। इस दिन यज़ीद ने हज़रत इमाम हुसैन को और उनके अजीज़ व कारिब (रिश्तेदार) को 3 दिन भूखा प्यासा शहीद कर दिया था। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने फरमाया है कि जिस तरह फर्ज़ नमाज़ के बाद नमाज़ तहज्जुद सबसे अफज़ल (बेहतर) है उसी तरह रमज़ान के रोज़ों के बाद मोहर्रम के रोज़े सबसे अफज़ल हैं अल्लाह के रसूल ने इस महीने को अल्लाह का महीना कहा है
मोहर्रम का पैगाम
मोहर्रम की दास्तान भले ही खून से रंगी हुई है लेकिन हक़ीकत में कर्बला की यह जंग सच्चाई के लिए जान न्योछावर करने की एक ज़िंदा दास्तान है और ज़ुल्म के खिलाफ एक पैगाम है। हज़रत इमाम हुसैन ने शहीद होकर मुस्लमानों को एक नयी ज़िंदगी बख्शी है। हम सबको मुश्किल वक्त में अल्लाह की ज़ात पर यक़ीन और सब्र करना सिखाया और हम सबको राहे हिदायत पर चलने का पैगाम दिया। इस जंग में हज़रत इमाम हुसैन शहीद हो गये और यज़ीद हमेशा के लिए हार गया।