जिंदगी ने दी है दर्द की सौगात तो आजमाएं ये एक उपाय

krishna-1442567040जीवन के रास्ते हमेशा ही समतल और सरल नहीं होते हैं। वक्त और हालात हमें अपनी व्यक्तिगत व सामाजिक दशाओं पर सोचने के लिए मजबूर करने लगते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता के अहसास को सुख और दुख के रूप में पहचानती है।

मनुष्य जीवन में दुख तथा उसके निवारण को लेकर न केवल भारत में बल्कि सारे संसार में पर्याप्त मंथन हुआ है। भारतीय दर्शन परम्परा अनुभव में क्लेशकारक दुख को द्वंद्व मानती है। यह सुख के साथ जुड़ा हुआ है। ठीक वैसे ही जैसे दिन-रात, जन्म-मृत्यु, हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी आदि।

कोई भी कष्ट, बाधा, व्यथा, दुख का कारण बन सकते हैं। दुख को उत्पन्न करने वाले इन कारणों के आधार पर दुख को तीन भागों में बांटा गया है-आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। इनको सांख्य दर्शन में दुखत्रय कहा गया है।

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आध्यात्मिक दुख भी दो तरह के हो सकते हैं-शारीरिक तथा मानसिक। शारीरिक दुख शरीर में वात, पित्त और कफ का संतुलन बिगडने से बीमारी के रूप में उभरता है जबकि मानसिक दुख काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, विषाद और विशेष रूप से चाही गई वस्तु के नहीं मिलने पर होता है।

दूसरे प्रकार का दुख आधिभौतिक हैं जो किसी अन्य मनुष्य, पशु, पक्षी, जीव आदि के कारण होता है और तीसरा आधिदैविक दुख ग्रह-गोचर व सूखा, बाढ़ आदि दैवीय कारणों से होता है।

दुखों से मुक्ति के उपाय

दुखों से मुक्ति के उपाय खोजे गए आंतरिक तथा बाहरी उपायों से आधिभौतिक और आधिदैविक दुखों का निवारण संभव होता है। प्रश्न उठता है कि ये भीतरी और बाहरी उपाय कितने और कहां तक कारगर हैं?

हम देखते हैं कि उपाय करने के बाद भी दुखों का एकांतिक और आत्यंतिक निवारण नहीं होता यानी अनिवार्यतः और हमेशा के लिए निवारण नहीं होता है।

सांख्य दर्शन परम्परा के अनुसार प्रकृति तथा उससे उत्पन्न समस्त पदार्थ त्रिगुणात्मक हैं। सत्व, रज और तम तीनों गुणों का अपना स्वरूप और कार्य है। सत्वगुण लघु, प्रकाशक व सुख देने वाला होता है।

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रजोगुण उत्प्रेरक, प्रवर्तक व दुख देने वाला है। तमोगुण भारी और विषादात्मक होता है। प्रकृति में मौजूद समस्त व्यक्ति तथा वस्तु त्रिगुणात्मक होने से सुख, दुख तथा मोहात्मक होते हैं। समस्त सांसारिक पदार्थों में किसी समय कोई एक गुण प्रधान तथा दोनों अन्य गुण अप्रधान या गौण होते हैं।

सांख्य शास्त्रीय दृष्टि से मूलप्रकृति तथा उससे विकसित होने वाले बुद्धि, अहंकार, मन ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द नामक तन्मात्राएं व उनसे उत्पन्न होने वाले पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश महाभूतों की यह सृष्टि इन्हीं सत्व, रज, तम तीन गुणों तथा उनके परिणामों से युक्त है।

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इस शरीर व प्रत्येक सांसारिक वस्तु की त्रिगुणात्मक स्थिति होने के कारण हमारे जीवन में सुख, दुख और विषाद का अनवरत चक्र चलता रहता है।

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दुख से मुक्ति का उपाय इस विवेक अथवा समझ में निहित है कि मूल प्रकृति इस चराचर सृष्टि तथा इसके ज्ञाता, कत्र्ता, भोक्ता व द्रष्टा के रूप में पुरुष की वास्तविक स्थिति क्या है।

शरीर रूपी इस पुरी-नगरी में रहने वाली आत्मा ही पुरुष है। यह पुरुष गुणातीत है। यदि आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अध्यात्म में प्रवेश हो जाए तो सुख अथवा दुख दोनों के द्वंद्व से मुक्त हुआ जा सकता है।  

दुखों के पांच कारण

योगदर्शन में पांच क्लेशों के रूप में दुख का निरूपण हुआ है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। इनमें अविद्या दुख का प्राथमिक कारण है। वस्तु के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझना अविद्या है, जिसे विद्या से ही मिटाया जा सकता है।

दुख का दूसरा कारण है-अस्मिता। स्वाभाविक आनंद का अभाव अस्मिता कहलाता है। स्मित भीतर के आनंदभाव की अभिव्यक्ति है। जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण दुख का कारण या जन्मदाता है।

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दुख का तीसरा व चतुर्थ कारण है राग और द्वेष। संसार में व्यक्तियों और वस्तुओं के प्रति हमारी रुचि तथा अरुचि राग और द्वेष को उत्पन्न करती हैं। यह राग, द्वेष, काम-क्रोध शारीरिक और मानसिक रूप से मनुष्य को असंतुलित करते हैं, जिसका परिणाम आधि-व्याधि और अंततरू दुख में घटित होता है।

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मनुष्य जीवन में दुख का पांचवां कारण है अभिनिवेश। अपनी बात को ही सर्वोपरि रखना, अपने मंतव्य को ही सही और श्रेष्ठ समझने का पूर्वाग्रह अभिनिवेश कहलाता है। संसार के अधिकांश संघर्षों का कारण अभिनिवेश ही है। सदियों से अपने मतवाद ही सर्वोच्चता तथा अन्य मत-मतान्तरों के प्रति असहिष्णुता ने अनेक नरसंहार और महाविनाश किए हैं।

दुखों का निवारण

धर्म नितान्त अकृत्रिम, स्वाभाविक स्थिति है जो व्यक्ति या वस्तु को उनके स्वभाव में बनाए रखती है। धर्म सहज है जबकि मत या पंथ आरोपित या कृत्रिम स्थिति है। धर्म नित्य तथा सत्य होता है। ऊष्णता अग्नि का धर्म है। यह पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा।

धर्म वही हो सकता है जो सनातन है। धर्म का कोई रचयिता नहीं हो सकता। धर्म सभी को स्वीकार करता है। धर्म के साथ ही करुणा, अहिंसा, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, आनंद, सम्पन्नता, स्वाभिमान, अभय तथा अभ्युदय की प्राप्ति होती है।

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देश-काल-परिस्थिति के अनुसार सार्वभौमिक मूल्यों की प्रतिष्ठा धर्म को समृद्ध करती है व साथ ही अधर्म का निवारण भी धर्म का कार्य ही है। अभिनिवेशजन्य दुख का उपाय धर्म के द्वारा होता है।

धर्म के द्वारा ही निश्रेयस अथवा परम कल्याण की प्राप्ति होती है। निष्कर्ष यही है कि मनुष्य जीवन में आने वाले व्यक्तियों, वस्तुओं तथा अनुभवों के प्रति हमारा समतापूर्ण दृष्टिकोण ही हमें दुखों से छुटकारा दिला सकते हैं।

 

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