
कहते हैं कि भाषा वह जो सबको समझ में आए और बयां ऐसा हो कि दिल मान ले। लेकिन हमारे नेता इस मसलहत पर यकीन नहीं करते। उनकी भाषा ऐसी होती जा रही है कि समझना तो दूर, सुनना भी अच्छा नहीं लगता। उनकी बात उन्हीं के दिल से नहीं निकलती तो किसी और के दिल को क्या छुएगी। इस समय दादरी से पटना तक एक ही तरह की भाषा और तेवर में सुनने को मिल रहे हैं। होड़ लगी है कि कौन कितना घटिया बोल सकता है।
बिहार में चुनाव हो रहा है और नेताओं के भाषण की पटकथा उत्तर प्रदेश के दादरी में लिखी जा रही है। दादरी कांड बिहार विधानसभा चुनाव में विकास और जाति के मुद्दे पर हावी होता हुआ दिख रहा है। भाजपा में अचानक कई गौरक्षक पैदा हो गए हैं, तो लालू यादव की नजर में गोमांस खाना कोई बड़ी बात नहीं है। उनके मुताबिक बहुत से हिंदू भी गोमांस खाते हैं। 21वीं सदी में डिजिटल इंडिया की बात करने वाला देश इस समय वेदों को खंगाल रहा है कि वैदिक काल में हिंदू गोमांस खाते थे या नहीं?
जिस जनतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था में हम रह रहे हैं, उसमें हर व्यक्ति को अपनी मर्जी का खाने, पहनने और बोलने की पूरी आजादी है, लेकिन हर आजादी अपने साथ जिम्मेदारी भी लाती है। हम भारतवासियों को आजादी पसंद है, लेकिन सिर्फ अपनी। हम अपनी आजादी के प्रति जितने सजग और संवेदनशील हैं, उतने दूसरों की आजादी के प्रति नहीं। यह बात व्यक्तियों, संगठनों और समुदायों पर समान रूप से लागू होती है। ऐसा नहीं होता तो हम अपनी ही नहीं, दूसरों की आजादी के लिए भी उसी तरह लड़ते, लेकिन जब उत्तेजना दोनों तरफ हावी हो तो सामान्य तरीके से संवाद भी कठिन हो जाता है।
यही हो रहा है। गोवध के विरोधियों को भी सोचना चाहिए कि क्या बिसाहड़ा में जो हुआ, वह किसी भी सभ्य समाज में होना चाहिए? क्या किसी की जान उस बात के लिए ली जा सकती है, जिसके लिए ली गई? बिसाहड़ा गांव इस घटना से पूर्व सांप्रदायिक वैमनस्य से परिचित नहीं था। कुछ घंटों में फिर ऐसा क्या हो गया कि जो साथ बैठ मिल-जुलकर खाते-पीते रहते थे वे जान लेने पर उतर आए और कोई उन्हें रोक नहीं सका।
बिसाहड़ा में जो हुआ, वह वहीं तक सीमित नहीं है। उसकी गूंज सबसे ज्यादा बिहार में सुनाई दे रही है। लालू यादव के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो चुका है, इस आरोप में कि उन्होंने एक समुदाय की भावना को ठेस पहुंचाई। मामला भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ भी दर्ज हुआ है। उन्होंने लालू यादव को चारा चोर कहा था। चुनाव के दौरान नेता एक-दूसरे के खिलाफ जो आरोप लगाते हैं, उसकी लक्ष्मणरेखा हमेशा टूटती है और चुनाव आयोग की कार्रवाई नाकाफी नजर आती है। आयोग भी एक सीमा के बाद बेबस नजर आता है, क्योंकि उसे जहां से समर्थन मिलना चाहिए, वहां से नहीं मिलता।
बहरहाल, लालू यादव हों या आजम खान या ऐसे ही अन्य नेता, किसी के बयान का मकसद प्रभावित परिवार या समुदाय के लोगों के हित की बजाय अपना राजनीतिक हित ज्यादा है। बिसाहड़ा के हिंदू-मुसलमान तो उस घटना को पीछे छोड़ आगे बढ़ना चाहते हैं, किंतु नेता उन्हें आगे बढ़ने दें तब ना! आजम खान की पार्टी की उत्तर प्रदेश में सरकार है और उनकी गिनती ‘चचा सीएम” में होती है। नाकामी राज्य सरकार की है और वे गुहार संयुक्त राष्ट्रसंघ से लगा रहे हैं। दरअसल आजम खान समाजवादी पार्टी में अस्मिता की राजनीति का खेल खेल रहे हैं। उन्हें मुसलमानों की नहीं, मुसलमानों में अपने जनाधार की चिंता है। उन्हें लगता है कि शायद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ही उसे बचा सकते हैं।
कहावत है कि नया मुल्ला प्याज ज्यादा खाता है। यह कहावत केंद्रीय संस्कृति और विमानन राज्यमंत्री डॉ. महेश शर्मा पर खरी उतरती है। उनकी नजर डेढ़ साल बाद होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर है। महत्वाकांक्षा जोर मार रही है। इसलिए संघ की नजर में चढ़ने की बेताबी है। उन्हें लगता है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर उनकी आक्रामकता उन्हें संघ की नजर में चढ़ा सकती है। अपने व्यक्तिगत राजनीतिक लाभ के चक्कर में वे पार्टी, सरकार, समाज और देश का नुकसान कर रहे हैं। पता नहीं, इसका उन्हें एहसास भी है कि नहीं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह राज्यों को एडवाजरी भेज रहे हैं कि सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने की किसी कोशिश को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। वित्त मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि ऐसी घटनाओं से देश की छवि खराब होती है। सवाल है कि महेश शर्मा जो बोल रहे हैं, वह किसकी सोच है? पार्टी, सरकार या संघ की? उन्हें रोकने की कोशिश हुई हो, ऐसा नजर नहीं आता।
कांग्रेस पार्टी हमेशा की तरह भ्रमित है। पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने 1930 में ही गो-हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रस्ताव पारित किया था। उनसे कोई पूछे कि हुजूर पांच दशक से ज्यादा समय तक आपकी पार्टी सत्ता में रही, उस समय इस प्रस्ताव की याद क्यों नहीं आई? दरअसल गाय इस समय देश के राजनेताओं के लिए राजनीतिक कामधेनु बन गई है, जिससे सबको दूध मिल रहा है। किसी को विरोध करके तो किसी को समर्थन करके। शोभा-डे जैसे लोग भी हैं जो मुद्दे को समझे बिना इसको सतही बनाने के लिए कह रहे हैं कि मैंने अभी गोमांस खाया है, आओ मुझे मारो। सस्ती लोकप्रियता की होड़ भी कई बार मुद्दे से भटका देती है। इखलाक अहमद की हत्या का मामला गोमांस खाने या न खाने के मसले से परे जाता है। यह समस्या राजनीति के कारण हमारे समाज में आ रहे बदलाव का नतीजा है।