हिन्दी में जासूसी उपन्यासों की दुनिया

त्रिलोक दीप, वरिष्ठ पत्रकार    
अपराधी और अपराध संभवतः इंसान के धरती पर आने के बाद से ही मौजूद हैं। अपराध एक शाश्वत सत्य है।हिन्दी में रहस्य , रोमांच और तिलिस्म को लिखने और पढ़ने वालों का काफी बड़ा तबका रहा है। सन् 1888में देवकीनंदन खत्री ने चंद्रकांता , फिर चंद्रकांता संतति और फिर भूतनाथ श्रृंखला में जो उपन्यास लिखे वे इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें पढ़ने के लिये अनेक लोगों ने हिंदी सीखी। कहते हैं कि पाठकों में आगे की कड़ी जानने की इतनी उत्सुकता रहती थी कि पुस्तक का प्रूफ भी बिक जाता था और लोग प्रेस के बाहर लाइन लगा कर खड़े रहते थे।
खत्री जी ने जासूस के लिये ऐयार शब्द का इस्तेमाल किया था।
लेकिन सन्1900 में गोपाल राम गहमरी ने हिंदी में शुद्ध जासूसी उपन्यासों की विधा को विधिवत शुरू किया। वे पेशे से मूलतः पत्रकार थे और सरल भाषा लिखने के पक्षधर थे।
उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की चित्रांगदा का आधिकारिक अनुवाद किया था।
उन्होंने ऐयार की जगह जासूस शब्द का इस्तेमाल किया। उनके मौलिक और अनूदित रचनाओं की संख्या 200के करीब है।
उन्होंने ‘ जासूस’ नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन और संपादन किया था।
उनकी रचनाओं को पढ़ने के लिये भी कई लोगों ने हिंदी सीखी। उनके कुछ प्रमुख उपन्यासों के नाम हैं-बेकसूर को फांसी,सरकती लाश, अद्भुत लाश आदि।
वे अपनी मासिक पत्रिका में हर महीने एक उपन्यास प्रकाशित करते थे।
बगैर किसी के आर्थिक सहायता के वे इस पत्रिका को 38 साल तक प्रकाशित करते रहे। बिहार के गहमरी गांव में उनकी ननिहाल थी। वे वहीं से उसका प्रकाशन और वितरण करते थे और अपने नाम के पीछे गहमरी लिखते थे।
सस्ते काग़ज़ पर सरल और सुबोध भाषा में लिखे जाने के कारण उनके उपन्यास बेस्ट सेलर होते गये। हालांकि साहित्य के पंडितों ने उनकी रचनाओं को लुगदी साहित्य कह कर तिरस्कृत किया।
गहमरी जी के बाद जासूसी उपन्यासों का सिलसिला जारी रहा और प्रकाशन में नये कीर्तिमान बनाता रहा।
ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश कंबोज, कर्नल रंजीत ( यह ट्रेड नाम था), और सुरेंद्र मोहन पाठक ने हिंदी पुस्तकों की बिक्री में नये कीर्तिमान स्थापित किये।
वेदप्रकाश शर्मा शुरुआती दिनों में छद्म नाम से या दूसरों के लिये लिखते थे।उनका अपने नाम से प्रकाशित पहला उपन्यास था ‘आग के बेटे:,जो1973 में प्रकाशित हुआ था। इसमें पहले पन्ने पर उनका चित्र भी छपा था जो बाद में उनकी हर पुस्तक का ट्रेड मार्क बन गया।
पाठकों में उनकी पुस्तकों का क्रेज था। उनके उपन्यास “वर्दी वाला गुंडा ” की ढाई लाख प्रतियां हाथों हाथ बिक गयी थीं।
साहित्य के पंडित भले इन उपन्यासों को साहित्य की श्रेणी में नहीं रखते हों लेकिन इतना तो तय है कि जासूसी लेखकों ने हिंदी का विशाल पाठक वर्ग तैयार किया है और सरल सहज भाषा में बात कहने की लोकप्रिय शैली को जन्म दिया है।
दिग्गज जासूसी उपन्यासकारों में अभी सिर्फ सुरेंद्र मोहन पाठक जीवित हैं और लेखन कार्य जारी रखें हुए हैं। उनके उपन्यासों की खूबी है कि उनके पात्र बिल्कुल आम आदमी होते हैं और भगोड़े अपराधियों की मन: स्थिति का वर्णन भी बड़े सहज भाव से करते हैं।
संडे मेल के कार्यकारी संपादक त्रिलोक दीप उसके मित्रों में से हैं और उन पर अपनी यादें साझा कर रहे हैं।

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