पेरिस समझौते को लेकर सीरिया ने उठाया बड़ा कदम, अमेरिका के लिए बढ़ गई मुसीबत

सीरिया ने जलवायु परिवर्तन को लेकर पेरिस समझौते में शामिल होने का फैसला किया है। सीरिया के इस कदम के बाद अमेरिका दुनिया का अकेला देश रह गया है जो इसके विरोध में है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने इसी साल जून में अमेरिका को पेरिस समझौते से अलग कर लिया था। पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए सबसे अहम वैश्विक समझौता है। पेरिस समझौते को लेकर सीरिया ने उठाया बड़ा कदम, अमेरिका के लिए बढ़ गई मुसीबत

इस समझौत के तहत दुनियाभर के देश जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए एक साथ आए हैं। 2015 में जब पेरिस समझौता हुआ था तब सिर्फ सीरिया और निकारागुआ ही इससे बाहर थे। इसी साल अक्तूबर में निकारागुआ भी समझौते में शामिल हो गया था।

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अमेरिका का पक्ष

जून में अमेरिका ने पेरिस समझौते से बाहर होने का फैसला लिया था। हालांकि समझौते के नियमों के तहत अमेरिका 2020 में ही इससे बाहर हो सकेगा।

ट्रंप ने कहा था कि ये समझौता अमेरिका को दंडित करता है और इसकी वजह से अमेरिका में लाखों नौकरियां चली जाएंगी। ट्रंप ने ये भी कहा था कि समझौते की वजह से अमरीकी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा।

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ट्रंप ने कहा था कि पेरिस समझौता चीन और भारत जैसे देशों को फायदा पहुंचाता है। ये समझौता अमेरिका की संपदा को दूसरे देशों में बांट रहा है। इसी बीच फ्रांस के अधिकारियों ने कहा है कि दिसंबर में जलवायु परिवर्तन पर पेरिस में होने वाले सम्मेलन में राष्ट्रपति ट्रंप को न्यौता नहीं दिया गया है। इस सम्मेलन में दुनियाभर के सौ से ज्यादा देशों को निमंत्रण दिया गया है।

क्या है पेरिस समझौता?

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग का मतलब है उद्योगों और कृषि कार्यों से उत्सर्जित होने वाली गैसों से पर्यावरण पर होने वाला नकारात्मक और नुकसानदेह असर। पेरिस समझौते का मकसद हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम कर दुनियाभर में बढ़ रहे तापमान को रोकना है।

इस समझौते में प्रावधान है वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना और कोशिश करना कि वो 1।5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े। मानवीय कार्यों से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को इस स्तर पर लाना कि पेड़, मिट्टी और समुद्र उसे प्राकृतिक रूप से सोख लें। इसकी शुरुआत 2050 से 2100 के बीच करना।

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समझौते के तहत हर पांच साल में गैस उत्सर्जन में कटौती में प्रत्येक देश की भूमिका की प्रगति की समीक्षा करना भी उद्देश्य है। साथ ही इसमें विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष देना और भविष्य में इसे बढ़ाने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने की बात भी कही गई है।
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