दिलचस्प किस्से, रस्सी से लड़के को ऊपर भेजा, उसके टुकड़े गिरे और फिर जोड़ दिया
इरफ़ान खान की फिल्म ‘मदारी’ आज रिलीज हो रही है. नाम बड़ा दिलचस्प है. फिल्म में कोई बंदा किसी को खूब नचाएगा. मदारी शब्द से तो यही पता चलता है. आखिर हम सबने अपने बचपन में मदारियों को सांप, बंदर और भालू नचाते हुए देखा है. कुछ तो हवा में रस्सी बांध के उसके ऊपर चलते. कुछ आग के गोले में से पार कर जाते. पर वो ये करते कैसे थे? कहां से सीखते थे? कहां रहते थे? एक बार के बाद दुबारा नहीं दिखाई देते थे. जब सब के बच्चे पढ़ाई कर रहे थे तब इनके बच्चे क्या करते थे? और फिर टीवी, मल्टीप्लेक्स, स्मार्टफोन आने के बाद मदारी कहां चले गए? वो आए कहां से थे? और इन्हीं मदारियों में से एक इशामुद्दीन खान ने ऐसा क्या कर दिया था, जिसे दुनिया इतिहास में खोज रही थी?
इनका इतिहास इनके काम की तरह दिलचस्प है
मदारी एक घुमंतू ट्राइब है. ऐसा माना जाता है कि इनके पुरखे राजपूत बाप और मुस्लिम मां की संतान थे. ये हिन्दू और मुस्लिम दोनों के बीच में आते हैं. एक तरह से कहें तो ये धर्म से ऊपर हैं. कर्म से दिलचस्प. भारत के हर क्षेत्र में ये पाए जाते हैं. नार्थ, साउथ, ईस्ट, वेस्ट, हर जगह. हालांकि अब कई जगह ये हिन्दू और मुस्लिम में बांट दिए गए हैं.
मदारियों के समुदाय में मेन रूप से दो फंक्शन होते हैं: एक जन्म के समय और दूसरा शादी के समय. ये फंक्शन हिन्दू रिवाज की तरह होते हैं. पर मौत के बाद इनमें दफनाने की प्रथा है. ये मुस्लिम रिवाज है. मीट और दारू के ये बहुत शौक़ीन हैं. पर अपने फंक्शन में एकदम शाकाहारी रहते हैं.
एक जमाना था, जब ये गर्मियों में भी मोटा कुरता पहने, अजीब सी पगड़ी लगाए आते थे. कानों में बड़े-बड़े कुंडल. हाथों में मोटे कंगन. कोई-कोई पैरों में घुँघरू भी बांध के आता था. इनके साथ इनके दो-तीन बच्चे भी रहते. काजल किए हुए. उस वक्त ये सांप-भालू नचाने के साथ जड़ी-बूटियां भी लेकर आते थे. गांवों में डॉक्टर तो रहते नहीं थे. कोई गंभीर बीमारी थी किसी को तो लोग इनसे बूटी ले लेते. ये सोचकर कि शायद कारगर साबित हो जाये. फिर ये सबको डराते थे कि अब इंद्रजाल का खेल शुरू हो रहा है. बच्चे भाग जाएँ. उस वक़्त किसी की बहादुरी का ये बड़ा टेस्ट होता था. सब कुछ कह चुकने के बाद वो इंद्रजाल का खेल नहीं दिखाता था. बल्कि दाल-चावल मांगता था.
धीरे-धीरे इनकी गठरी का वजन हल्का होता गया. नियम-कानून और नए समाज में इनका रहना मुश्किल हो गया. थ्रिल के साथ ह्यूमर दिखाते थे ये. अब टीवी-इन्टरनेट पर सब कुछ मिल जाता है.
कानूनों ने इनका इतिहास और वर्तमान दोनों छीन लिया
इनका वर्तमान बड़ा भयावह है. ये वो समुदाय है जो भारत की हर प्रगति से दूर है. ये ‘डीनोटीफाइड’ ट्राइब है. जो आज़ाद भारत में बिना किसी आइडेंटिटी के रह रहा है. कोई जगह नहीं, कोई जमीन नहीं. सरकार ने कभी काउंट नहीं किया. कोई अधिकार नहीं. कोई पहचान-पत्र नहीं. कोई वोट नहीं. ना खाने का ठिकाना, ना रहने का. हालांकि मार्च 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने एक कमीशन बनाया था. ऐसी सभी ट्राइब्स की स्थिति की पड़ताल करने के लिए, पर उस कमीशन की रिपोर्ट पर कभी काम नहीं किया गया.
‘डीनोटीफाइड’ ट्राइब का ‘रुतबा’ ब्रिटिश लोगों का दिया हुआ है. 1871 में मिला था. क्योंकि ऐसी ट्राइब्स ने 1857 के विद्रोह में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. नतीजन ब्रिटिश सरकार ने इन सब ट्राइब्स को ‘क्रिमिनल’ घोषित कर दिया. मतलब जो भी इनके घर में पैदा हुआ, वो क्रिमिनल है. 1952 में भारत सरकार ने क्रिमिनल का टैग हटा दिया. पर इतने लम्बे वक़्त में ये टैग जनता के मन में बैठ गया. इन ट्राइब्स के लोगों ने अगर कहीं बसना भी चाहा, तो आम जनता ने बसने नहीं दिया.
फिर देश में नए-नए कानून बने. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट, प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट, एनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज एक्ट, प्रिवेंशन ऑफ़ बेगरी एक्ट. इससे इनके हुनर को धक्का लगा. अब ये न भालू नचा सकते थे, ना सांप. ना भीख मांग सकते थे, ना खुद आग पर चल के दिखा सकते थे. पढ़ाई-लिखाई के बारे में कभी सोचा नहीं था. इस देश में बस ये चलने वाले लोग थे. और कुछ नहीं. पैदा ही इसलिए हुए कि चलते जाना है और एक दिन मर जाना है. बीच में सरकार की जो भी स्कीम आई, उससे ये लोग अलग ही रहे. कोई डॉक्यूमेंट है नहीं तो कोई फायदा मिलेगा कैसे?
फिर वही हुआ. कूड़ा बीनना, वेश्यावृत्ति, बाल मजदूरी इनका धंधा बन गया. नाचना-गाना भी कुछ लोग करते हैं. पर सब नहीं कर सकते. 2012 में एक सर्वे हुआ था. इसके मुताबिक इनमें से 94% लोगों के पास BPL का भी कार्ड नहीं था. 98% के पास जमीन नहीं थी. सर्वे में इन लोगों ने बताया कि पुलिस से मार खाना तो आम बात है. इनकी औरतों से छेड़खानी भी उतनी ही आम बात है. इनके यहां ना जन्म की गिनती है, ना मौत की. सब यूं ही चल रहा है. बस. लेकिन सब यूं ही चलने के बीच इनमें से एक आदमी अलग निकला और पूरी दुनिया में छा गया.
इशामुद्दीन खान ने वो जादू दिखाया जो सैकड़ों सालों से खोजा जा रहा था
1995 में एक मदारी इशामुद्दीन खान ने क़ुतुब मीनार के सामने एक परफॉरमेंस दी. पूरी दुनिया इससे हैरान थी. क्योंकि खान के ट्रिक के पीछे एक कहानी थी. सैकड़ों सालों से दुनिया के लोग भारत के मदारियों के एक हुनर के बारे में खोज रहे थे. इसे The Great Indian Rope Trick कहा जाता था.
लोगों का मानना था कि ये ट्रिक भारत में मौजूद है, पर करने वाला सामने नहीं आता. जो क्लेम करते हैं, वो कर नहीं पाते. इस ट्रिक में एक रस्सी हवा में सीधी खड़ी की जाती है. ये रस्सी ऊपर ही चलती चली जाती है. एक लड़का इस रस्सी पर चढ़ता है और चलते-चलते गायब हो जाता है. फिर मदारी नीचे से आवाज लगाता है. लड़का नहीं सुनता. गुस्से में मदारी भी रस्सी पर चढ़ता है और गायब हो जाता है. फिर लड़के के शरीर के कटे हुए टुकड़े जमीन पर गिरते हैं. फिर मदारी रस्सी से नीचे उतरता है. कटे टुकड़े एक बास्केट में रखता है. ढक्कन बंद करता है. कुछ देर तक इमोशनल माहौल बनाता है. उसके बाद वो लड़का जिन्दा बास्केट से निकलता है.
ये ट्रिक राजा भोज की कहानियों से ली गई है. भोज ने आसमान में एक धागा फेंका था और उस पर चढ़ के स्वर्ग चला गया था. इब्न-बतूता ने अपनी किताब में इस ट्रिक का जिक्र किया है. जहांगीर की आत्मकथा में भी इस ट्रिक के बारे में लिखा गया है. इस आत्मकथा का अनुवाद 1829 में हुआ था. इसके बाद ब्रिटिश लोग इस ट्रिक में बहुत ज्यादा इंटरेस्टेड हो गए. 1934 में लंदन में ऐलान हुआ कि जो भी इस ट्रिक को परफॉर्म करेगा उसे 500 सोने के सिक्के दिए जायेंगे. कोई नहीं कर पाया था.
इशामुद्दीन की परफॉरमेंस के बारे में कहा जाता है कि ये बिल्कुल कहानी जैसी ही थी. हालांकि इसके बाद इशामुद्दीन की अपनी कहानी में बहुत बदलाव नहीं आया. 15 साल बाद पाया गया कि खान McDonald में काम कर रहे हैं. जब इतने बड़े लेवल का हुनरमंद अपने खर्चे-पानी से जूझ रहा है, तो छोटे-मोटे लोगों की क्या बिसात. हालांकि खान अभी इस तरह के हर हुनर को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
जो भी है, इरफ़ान खान खान की फिल्म के जरिये ही सही, मदारी को याद तो किया गया. अब शायद ही ये संभव है कि मदारियों का हुनर लौट के समाज में आये. पर ये जरूर संभव है कि वो एक अच्छी जिंदगी जी सकें.