जम्मू-कश्मीर में आसमानी आपदा की सामने आई वजह, विशेषज्ञों ने बताया कि क्यों किश्तवाड़ में आया सैलाब

आम बोलचाल में बेशक इसे हर कोई बादल फटना मान रहा है, लेकिन विशेषज्ञों को यह मानने के लिए अभी बारिश के आंकड़ों का इंतजार है। उनका कहना है कि पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।
पहले रामबन, फिर किश्तवाड़ और अब कठुआ। अत्यधिक बारिश ने जम्मू संभाग में कहर बरपा दिया है। किश्तवाड़ के चिशोती गांव में जहां नाले में आए सैलाब में अब तक 63 जानें चली गईं, वहीं कठुआ में दो अलग-अलग घटनाओं में सात लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। आम बोलचाल में बेशक इसे हर कोई बादल फटना मान रहा है, लेकिन विशेषज्ञों को यह मानने के लिए अभी बारिश के आंकड़ों का इंतजार है। पिछले कुछ समय से ऐसी घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। कुछ विशेषज्ञ इसे जलवायु में बदलाव का असर करार दे रहे हैं तो कुछ का कहना है कि पश्चिमी विक्षोभ और मानसून के एक साथ सक्रिय हो जाने से यह मुसीबत आई है।
20 साल के अरसे में गर्मियों में शिफ्ट हुई सर्दियों की बारिश
-डॉ. एसपी सती, वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक
पश्चिमी विक्षोभ की वजह से जो बारिश पहले जाड़ों में होती थी, पिछले 20 साल के अरसे में वह गर्मियों की तरफ शिफ्ट हो गई है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे हिमालयी क्षेत्रों के लिए यह ठीक नहीं। एक तो गर्मियों में मानसून सक्रिय हो जाता है। उसके साथ पश्चिमी विक्षोभ से पैदा हुई नमी के मिल जाने से स्थिति खतरनाक हो जाती है। इससे अत्यधिक वर्षा होती है।
वैश्विक स्तर पर काम करने वाली आईपीसीसी यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज जैसी कई संस्थाओं ने हिमालयी क्षेत्रों में ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते खतरे को लेकर पहले से ही चेतावनी दी हुई है। विशेषकर जम्मू-कश्मीर में आ रही आपदाओं की बात करें तो यहां पहले से ही आपदाओं का इतिहास रहा है। चाहे वह रामबन हो या फिर किश्तवाड़। यहां कई नाले बारिश में बेहद खतरनाक हो जाते हैं। ऐसे में जिन जगहों पर लोगों ने इनके किनारे या इनके बीच निर्माण किया होता है, वहां स्थिति और विकराल हो जाती है। ठीक वैसे ही जैसा फिलहाल किश्तवाड़ के चिशोती में देखने को मिला।
सामान्य रूप से इसे जलवायु परिवर्तन से ही जोड़ा जा सकता है
डॉ. नितिन जोशी, एसोसिएट प्रोफेसर, आईआईटी, जम्मू
बादल फटने या अत्यधिक वर्षा की बढ़ती घटनाओं को सामान्य रूप से जलवायु परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है। हिमालयी भू-भाग बेहद संवेदनशील है। जरूरी नहीं कि बादल फटना ही विनाशकारी साबित हो। कुछ दिन लगातार होने वाली बारिश भी मिट्टी की ढीली सतह और मलबे के साथ मिलकर फ्लैश फ्लड की वजह बन सकती है और कहर बरपा सकती है। बादल फटने के लिए एक मानक है। एक घंटे में एक निश्चित जगह अगर सौ मिलीमीटर से अधिक बारिश दर्ज की जाए तो उसे बादल फटना माना जाता है। करीब पांच वर्ष पूर्व डोडा जिले के ठाठरी में बादल फटने की घटना सामने आ चुकी है, लेकिन हां, इसके बाद बादल फटने की घटनाएं देखने में नहीं आई हैं। हाल-फिलहाल इनमें बढ़ोतरी दर्ज हुई है। लेकिन इसकी वजह क्या है या ऐसी घटनाओं का ट्रेंड क्यों बढ़ रहा है, इसके लिए मौसम विभाग के आंकड़ों का विश्लेषण करना होगा।
सर्दियों में होने वाली बारिश भी प्री-मानसून सीजन की तरफ शिफ्ट हो गई
-डॉ. अंकित टंडन, एसोसिएट प्रोफेसर, पर्यावरण विज्ञान विभाग, केंद्रीय विश्वविद्यालय जम्मू।
पश्चिमी विक्षोभ और ग्रीष्मकालीन मानसून एक साथ सक्रिय हो गए हैं। इसके अतिरिक्त सर्दियों में होने वाली बारिश भी प्री-मानसून सीजन की तरफ शिफ्ट हो गई है। इस वजह से ग्रीष्मकालीन मानसून सीजन के दौरान जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड सहित उत्तर पश्चिमी हिमालय में अधिक वर्षा और बादल फटने की घटनाएं अधिक हो रही हैं। अतिवृष्टि की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है।
पहाड़ी क्षेत्रों की संकरी घाटियों की भौगोलिक स्थिति वायु में उपस्थित अधिक नमी को कम समय में सघन बादलों में बदलने का काम करती है। यह स्थिति उनसे कम समय में अधिक बारिश कराने में सहायक होती है। इसी कारण पहाड़ी क्षेत्रों की संकरी घाटियों में बादल फटने जैसी घटनाएं इस ग्लोबल क्लाइमेट चेंज के दौर में ज्यादा घट रही हैं। महज एक-डेढ़ घंटे में ही सौ मिलीमीटर से अधिक पानी 7-10 किलोमीटर के क्षेत्र में बरस जा रहा है।
पूर्व मंत्री ने जीएमसी में घायलों का कुशलक्षेम जाना
नेशनल काॅन्फ्रेंस के अतिरिक्त महासचिव एवं पूर्व मंत्री अजय सडोत्रा ने चिशोती में बादल फटने से घायल हुए श्रद्धालु का जीएमसी में कुशलक्षेम पूछा। इस दौरान उन्होंने घायलों और उनके परिजनों से बातचीत की। साथ ही पीड़ित परिवारों के साथ एकजुटता व्यक्त की। उन्होंने विशेष उपचार प्रदान करने के लिए चिकित्सा टीमों की सराहना की और आशा व्यक्त की कि घायलों को हर संभव सहायता और सर्वोत्तम उपलब्ध देखभाल मिलती रहेगी।