क्या है ग्रे मार्केट, जहां तय होता है GMP, यह कितना भरोसेमंद?

अगर आप शेयर मार्केट में निवेश करते हैं तो आप ग्रे मार्केट पर पैनी नजर जरूर रखते होंगे। किसी कंपनी के IPO के दौरान उसका GMP कितना है? वो बढ़ा या घटा, इस बात पर भी ध्यान देते होंगे। लेकिन सवाल ये है कि आखिर ग्रे मार्केट है क्या, जहां GMP तय होता है। ये कितना सच्चा और कितना झूठा है? कई बार आपके मन में भी सवाल उठता होगा कि ग्रे मार्केट भरोसेमंद है भी या नहीं? तो चलिए इस आर्टिकल में जानते हैं आपके मन में उठने वाले हर सवाल का जवाब।
क्या है ग्रे मार्केट?
ग्रे मार्केट एक ऐसा बाज़ार है, जहां IPO से पहले शेयरों की अनौपचारिक ट्रेडिंग होती है। यह निवेशकों को अंदाजा देता है कि शेयर लिस्टिंग के बाद कितना मुनाफा दे सकता है। यह स्टॉक एक्सचेंज से बाहर का खेल है, जहां कीमतें डिमांड पर चलती हैं। यहां कोई औपचारिक नियम नहीं होता। निवेशक ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में दांव लगाते हैं। हालांकि, ये काफी रिस्की होता है, क्योंकि कीमतें अस्थिर होती हैं।
इक्विटी में ग्रे मार्केट क्या है?
ग्रे मार्केट वह इनफॉर्मल मार्केट है, जहां स्टॉक्स को IPO प्रोसेस पूरी होने और उन्हें आधिकारिक तौर पर एक्सचेंजों पर लिस्ट होने से पहले खरीदा और बेचा जाता है। इस बाजार को सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया यानी SEBI या किसी अन्य आधिकारिक संस्था द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता है।
इसमें NSE या BSE की भागीदारी नहीं होती। यहां लेन-देन नकद में होते हैं और डीलर छोटे कागज के टुकड़ों को एक्सचेंज करते हैं। हालांकि, कुछ वेबसाइट्स और ऑनलाइन फोरम निवेशकों को ट्रेड करने की सुविधा देते हैं। लेकिन मुख्य काम मौखिक बातचीत और आपसी भरोसे पर चलता है। इसमें कोई डिजिटल रिकॉर्ड नहीं रखा जाता।
GMP यानी ग्रे मार्केट प्रीमियम क्या है?
GMP यानी किसी IPO का इश्यू प्राइस और ग्रे मार्केट में शेयरों की ट्रेडिंग कीमत के बीच का अंतर। अगर GMP ज्यादा है, तो यह दिखाता है कि निवेशक शेयरों के लिए प्रीमियम देने को तैयार हैं। यह कंपनी (या लिस्टिंग) को लेकर निवेशकों के उत्साह को दिखाता है। GMP को IPO का इवेल्यूशन करने के लिए सबसे ज्यादा देखा जाने वाला क्राइटेरिया माना जाता है। लेकिन इसे पूरी सच्चाई नहीं माना जाना चाहिए।
कितने प्रकार का होता है ग्रे मार्केट?
इसमें सेलर अपने नाम पर अलॉटेड शेयर को तय कीमत पर बेचने के लिए तैयार होता है। इसमें एप्लीकेशन आधारित डील्स दो प्रकार की होती हैं। पहली- कोस्टाक रेट और दूसरी सब्जेक्ट टू सौदा।
कोस्टाक रेट : इसमें मार्केट पार्टिसिपेंट किसी और की IPO
Application के लिए पैसे देता है। भले ही शेयर मिले या न मिले, लेकिन एप्लिकेंट को पैसे मिल जाते हैं।
सब्जेक्ट टू सौदा: इसमें पेमेंट तभी होती है, जब सेलर को शेयर अलॉट हो जाएं।
क्या ये मार्केट सिर्फ भारत में है?
नहीं, प्री-आईपीओ शेयर कई देशों में ट्रेड होते हैं, जैसे- अमेरिका का वॉल स्ट्रीट। लेकिन अमेरिका में यह प्रक्रिया ज्यादा व्यवस्थित और सुविधाजनक है। वहां सिर्फ मान्यता प्राप्त निवेशक या खास ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स के जरिए रिटेल निवेशक इन शेयरों में निवेश कर सकते हैं। हालांकि, भारत में भी बड़े ब्रोकर हाई-वैल्यू क्लाइंट्स को प्री-IPO शेयर मुहैया कराते हैं, लेकिन इसके लिए न्यूनतम निवेश की शर्त हो सकती है। कुछ एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड्स (ETFs) भी प्राइवेट कंपनियों में निवेश करते हैं।
क्या रिटेल निवेशकों को निवेश करना चाहिए?
प्री-IPO शेयरों की सप्लाई बहुत कम होती है और इन्हें इनसाइडर्स कंट्रोल करते हैं, जिससे कीमतें अस्थिर रहती हैं। इससे कंपनी का सही मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है। एक्सपर्ट्स सलाह देते हैं कि ग्रे मार्केट प्राइस (GMP) को निवेश का एकमात्र आधार नहीं बनाना चाहिए।
बेहतर होगा कि आप GMP को अन्य विश्वसनीय सूचनाओं के आधार पर फैसला लें। जैसे कंपनी क्या काम करती है? उसकी परफॉर्मेंस कैसी है? इसलिए एक्सपर्ट्स रिटेल निवेशकों को ग्रे मार्केट से दूर रहने की सलाह देते हैं, क्योंकि यह काफी जोखिम भरा है।