सिंघम, सिंघम रिटर्न्स, शिवाय, रेड और सिम्बा जैसी फिल्में देख लगता है अजय देवगन को फिजूल की कोई बात पसंद नहीं लेकिन बोल बच्चन, गोलमाल अगेन और टोटल धमाल जैसी फिल्मों में एक अलग ही रूप देखने को मिलता है तो असली अजय देवगन कैसा है, बाजीराव सिंघम जैसा या फिर टोटल धमाल के गुड्डू जैसा?
मेरा अपना ये मानना है कि कलाकार की अपनी कोई इमेज नहीं होती। इमेज जो होती हैं, लोगों के दिमाग में होती है। बाजीराव सिंघम को पसंद करने वाले मुझे सीरियस या नो नॉनसेंस एक्टर के रूप में भले सोचते हों लेकिन मैं असल जिंदगी में बहुत ही मस्तमौला और मस्ती पसंद करने वाला इंसान हूं। मेरा मानना है कि जैसा किरदार आप करते जाते हैं, वैसे ही इमेज आपकी बदलती रहती है। एक कलाकार के तौर पर मैं अलग अलग तरह के किरदार करना चाहता हूं। एक जैसा काम करते रहने से मेरे जैसा कलाकार बोर हो जाता है।
तकरीबन सौ फिल्मों कर लेने के बाद कभी आप पलटकर अपनी फ्लॉप फिल्मों के बारे में देखते हैं तो कहां कमी पाते हैं?
किसी फिल्म की कामयाबी या नाकामी की कोई एक वजह नहीं होती। हम सबसे पहले फिल्म की पटकथा सुनते हैं और हमारे दिमाग में फिल्म का एक खाका बनने लगता है। दिक्कत तब शुरू होती है जब फिल्म की शूटिंग करते समय आपको एहसास होने लगता है कि जैसी फिल्म हमने सोची थी, वैसी नहीं यह तो कुछ और ही बन रही है। सब कुछ निर्देशक की सोच पर आकर टिक जाता है। इसके अलावा भी तमाम अलग-अलग लोग फिल्म में हिस्सेदार होते हैं। कोई एक आदमी डिश बनाए वैसी बात यहां नहीं है। यहां नमक कोई डाल रहा होता है तो मिर्ची कोई और। फिल्म देखने वालों का नजरिया भी अलग-अलग होता है। फिल्म अच्छी नहीं बनती तो दर्शक हमें बताते हैं कि कमी कहां रह गई।
तो यही वजह रही आपके फिल्म निर्माता बनने की?
फिल्म निर्माता बनने से भी ये दिक्कतें कम नहीं होती। हां, ये जरूर है कि फिल्म मेकिंग के तमाम सारे विभागों पर तब निर्माता के तौर पर हमारी नजर रहती है और गड़बड़ी होने की गुंजाइश भी कम होती जाती है लेकिन सब कुछ आकर फिर भी निर्देशक की सोच और उसकी दृष्टि पर ही टिक जाता है। हम दफ्तर में क्या सोचते हैं, जरूरी नहीं कि निर्देशक सेट पर भी वही सोच रहा हो। अक्सर शूटिंग शुरू होने पर निर्देशक एक अलग ही दायरे में चला जाता है।
निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा मानते हैं कि हिंदी सिनेमा में बायोपिक का दौर उनकी फिल्म भाग मिल्खा भाग से शुरू हुआ लेकिन ये काम तो आप 17 साल पहले द लीजेंड ऑफ भगत सिंह में कर चुके हैं। अब फिर से आप एक साथ कई बायोपिक कर रहे हैं तो किसी बायोपिक को चुनने का आपका पैमाना क्या है?
बायोपिक बनाने का फैसला हम कभी लेते नहीं हैं। हम अच्छी कहानियों की तलाश में कभी-कभी ऐसे किरदारों से टकरा जाते हैं कि आपको यकीन ही नहीं होता कि ऐसा कुछ भी हमारे आसपास पहले हो चुका है। एक ऐसी कहानी आपके सामने होती है कि सिर्फ आश्चर्यचकित रह जाने के अलावा आप कुछ दूसरा सोच ही नहीं पाते। तब लगता है कि इस कहानी पर फिल्म बननी ही चाहिए।
आपकी फिल्म तानाजी के बारे में तो तकरीबन सब लोग जान चुके हैं, आप एक फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम पर भी फिल्म बना रहे हैं, उस कहानी ने आपको कैसे फिल्म बनाने पर मजबूर कर दिया?
फुटबॉल को लेकर देश के युवाओं में दिलचस्पी तो है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो भारत आज फुटबॉल में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन, कम लोगों को ही पता होगा कि हमारे देश को कभी एशिया का ब्राजील भी कहा जाता था। देश को फुटबॉल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कप जो अब तक हासिल हुआ है वह इस शख्स की वजह से है। इस शख्स ने इस कप को जीतने के लिए जो जंग लड़ी, ये फिल्म उसी की कहानी है। एक इंसान जिसके पास कोई सरकारी मदद नहीं है और जो छह महीने में कैंसर से मरने वाला है, उसके भीतर देश के लिए कुछ कर दिखाने के ऐसे जज्बे वाली कहानी रोंगटे खड़ी कर देती है।
अजय, आप अभिनेता और निर्माता होने के अलावा फिल्म वितरक और प्रदर्शक भी हैं। उत्तर प्रदेश में तमाम थिएटर्स आप खोल रहे हैं, क्या लगता है कारोबार के मामले में भारतीय सिनेमा अब भी चीन या अमेरिका से पीछे क्यों है?
चीन में हर दो महीने में एक नया थिएटर बन रहा है। वहां एक फ्लॉप फिल्म भी हजार करोड़ से ज्यादा का बिजनेस कर लेती है। इसकी वजह है कि वहां एक फिल्म करीब 35 से 50 हजार थिएटर्स में एक साथ रिलीज होती है। हमारे यहां पूरे देश में ले देकर कुल पांच हजार थिएटर्स भी नहीं हैं और, कितनी ही बड़ी फिल्म क्यों न हो उसे सारे थिएटर्स मिल जाएं ये भी मुमकिन नहीं है। आबादी के अनुपात में थिएटर्स के मामले में दक्षिण भारत फिर भी काफी आगे है और यही वजह है कि तमिल, तेलुगू फिल्में इतना बड़ा कारोबार करती हैं। मैं ऐसी जगहों पर थिएटर बना रहा हूं जहां आबादी काफी होने के बावजूद लोग पचास-पचास किमी दूर जाकर फिल्में देखते हैं। छोटे शहरों से शुरूआत की है मैंने, धीरे धीरे बड़े शहरों में भी हम आएंगे।
डायरेक्टर इंद्र कुमार अजय देवगन के बारे में कहते हैं कि ‘अजय को अक्सर लोग उनके लुक्स की वजह से काफी सीरियस इंसान समझ लेते हैं। मैं इसे बहुत करीब से जानता रहा हूं और मुझे तब जब ये सारी एक्शन फिल्में कर रहा था, लगा था कि ये कॉमेडी कमाल की करेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि आपसी बातचीत में भी अजय वन लाइनर बड़े कमाल के मारता है। शरारती भी रहा है अजय। दिखने में भले अजय बहुत भोला हो पर इसके भीतर कॉमेडी कूट कूट कर भली है। इसके साथ कॉमेडी फिल्म बनाने में फिल्ममेकिंग का कोई प्रेशर नही रहता, इतना हंसाता है ये सबको सेट पर।’