उत्तराखंड की इस जगह के कोने-कोने में बसा है स्वर्ग…
हरे भरे पहाड़ों के ऊपर बादलों की अठखेलियां रोमानी भी लगती है और शरारती भी। घुमड़ते हुए बादल कभी सफेद रूई जैसी नर्म तो कभी काले काले घनघोर शीतल घटा में तब्दील हो जाती है। कभी तो यूं लगता है, जैसे बादल और पहाड़ आपस में लुका छुपी का खेल खेल रहे हों। फिर आखिर में बादल पहाड़ों की आगोश में समा जाता है। देखते ही देखते पूरी फिजा बारिश की बूंदों में तर बर तर हो जाती है। बादल पानी बन सख्त दिखने वाले रंग-बिरंगे पत्थरों के बीच कल कल बहने लगती है। ठंढी हवा के झोंकों से पहाड़ी को ओढ़े हरी भरी चादर भी झूमती नजर आती है। दिन के बाद रातों में झींगूरों की आवाज में झूमते जुगनू की अलग दुनिया आपको रोमांच से भर देगी। यह एहसास बिल्कुल वैसा है, जैसे बचपन में कभी जुगनू की रोशनी में बारिश का लुत्फ उठाया हो।
हर तरफ हरियाली ही हरियाली
उत्तराखंड का खंड-खंड प्रकृति ने करीने से सजाया है। इतना सुना तो जा कर देखना भी बनता ही था। वैसे भी शहर की भीड़भाड़ से दूर पहाड़ों के बीच की दूरी ज्यादा नहीं है। दिल्ली से करीब छह से सात घंटे की ड्राइव पर ही है कालागढ़। यह पौड़ी गढ़वाल के क्षेत्र में आता है। रातभर के बस के सफर के बाद सुबह बारिश में भींगते चीर, देवदार और पहाड़ों के दर्शन के साथ आंख खुलती है। ठंढी हवाएं और दूर-दूर तक सिर्फ हरियाली ही हरियाली बस और कुछ नहीं।
सुंदर सुबह की शुरुआत इससे अच्छी तो हो ही नहीं सकती। कोटद्वार से करीब 75 किमी. की दूरी तय करते हुए अपने रिजॉर्ट वनवासा पहुंचने के बीच सिर्फ पांच किमी. की दूरी का फासला बचा था, लेकिन यह पांच किमी. खूबसूरत नजारों के बीच हर मोड़ पर खाई में गिरने के डर के एहसास का मिलाजुला अनुभव था। सफर में थोड़ा डर जरूर लगा, क्योंकि पहाड़ी रास्ते के हर मोड़ पर रास्ता संकरा-सा दिखाई देता। संकरे मोड़ पर कभी आंखे मूंद लेती, तो कभी सांस थाम लेती तो कभी पहाड़ों की खूबसूरती को देख अपना ध्यान लगाती।
हर मोड़ पर लगता कि आ गया रिजॉर्ट, पर होता न था। आखिर कार धीरे-धीरे करीब एक घंटे से भी अधिक समय के बाद वहां पहुंचे। कहते हैं न भई इतनी कठिन चढ़ाई का फल तो सुहावना होता है, सो हुआ भी। इतनी खूबसूरत जगह तो मैने सिर्फ फिल्मों में ही देखी थी। दूर दूर तक सिर्फ पहाड़, बादल और घना जंगल। भीड़भाड़ से दूर जहां कुछ दो दर्जन भर स्टाफ के सिवाय कोई इंसान नहीं। हालांकि पास में ही एक जूहू नाम का गांव था, जिसके बारे में भी आगे अपने अनुभव साझा करूंगी। होटल में आराम करने के बाद कुछ देर पूरे कैंपस में घूमा।
रिजॉर्ट से कालागढ़ डैम भी साफ दिखाई देता है। यह डैम जिम कॉर्बेट पार्क से कुछ ही किमी. पर है। हर तरफ बेशुमार प्राकृतिक खूबसूरती, बेचैन से बादल और हम। रात हुई तो भी गजब का एहसास। गाडि़यों के चिलपो से अलग सिर्फ झींगूर का राज वह भी अलग अलग तरह के। कोई तेज, तो कई मंद। तो कभी कोरस गान, जिस पर थिरकते जुगनू। फिर चलते चलते चीर के पेड़ों के बीच बादलों के ओट से चांद और तारों की लुका छुपी का दीदार करना अलग ही प्यारा अनुभव।
यहां पहुंचने के लिए अपनी गाड़ी सबसे ज्यादा मुफीद है, क्योंकि यहां सार्वजनिक बस सेवा का कोई ठिकाना नहीं है। हालांकि रामपुर से बसें जरूर मिलती हैं, लेकिन पहाड़ों पर छोटी गाड़ी जैसे जीप सबसे सही और भरोसे मंद होती है। छोटी गाड़ी जिसमें पावर ब्रेक हो तो बेहतर है, क्योंकि पहाड़ी घुमावदार रास्ते पर जाने के लिए छोटी गाड़ी ही सही रहती है। वैसे यहां सबसे नजदीक रेलवे स्टेशन धामपुर, जो कि 50 किमी. की दूरी पर है। यहां के कुछ गांव और निजी रिजॉर्ट में बजट होटल मिल जाते हैं।