आलेख : लोकतंत्र का यही है आदर्श स्वरूप – ए सूर्यप्रकाश

indiandemcracy_02_10_2015आज केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों में जो लोग हैं, उन पर आधुनिक भारत के महत्वपूर्ण राजनीतिक चिंतक और दार्शनिक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का काफी गहरा प्रभाव है। उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दर्शन को समझाने के लिए अहम कदम पिछले हफ्ते उठाया गया। दीनदयाल उपाध्याय की सोच व उनके विचारों पर आधारित एक प्रदर्शनी नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय में लगाई गई।

दीनदयाल उपाध्याय भाजपा के पुराने स्वरूप भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में थे। उनका कहना था कि भारतीय संस्कृति की विभिन्न् खूबियों को एक साथ मिलाने वाले एकात्म मानववाद को भारत में शासन नीति का आधार होना चाहिए। उन्होंने जनवरी, 1965 में विजयवाड़ा में भारतीय जनसंघ की प्रतिनिधि सभा में विचार के लिए तैयार दस्तावेज में शासन के लिए अपने दर्शन की रूपरेखा तैयार की थी। इसी दस्तावेज में उन्होंने सबसे पहले एकात्म मानववाद के सिद्धांत को स्थापित किया था। एकात्म मानववाद के रूप में दीनदयाल उपाध्याय ने जो दर्शन हमें दिया है, उसमें बताया गया है कि सरकार किस तरह की होनी चाहिए और हम पर शासन करने वालों की राह दिखाने वाले आदर्श क्या होने चाहिए? हमारे लिए यह जानना भी बेहद उपयोगी होगा कि लोकतंत्र व व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर उनके विचार क्या थे?

दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार भारतीय शासन का आदर्श धर्मराज्य है और इसे यही होना भी चाहिए। ऐसे शासन में सभी धर्मों और मतों के लिए सहिष्णुता व आदर होना चाहिए। धर्मराज्य में पूजा पद्धति और विवेक की स्वतंत्रता की गारंटी सबको होनी चाहिए और न तो नीति बनाने या न उसके क्रियान्वयन में शासन को धर्म के आधार पर किसी के खिलाफ भेदभाव करना चाहिए। यह गैरपंथिक देश है, न कि धर्मतंत्र।

उनका कहना था कि यह भारतीय विचार उससे काफी अलग है, जो दुनिया में दूसरी जगह उपलब्ध हैं। धर्मराज्य का सबसे निकट अंग्रेजी समानार्थी शब्द कानून का शासन (रूल ऑफ लॉ) होगा। ऐसे शासन में कोई व्यक्ति या संस्था सार्वभौम रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। हर व्यक्ति पर कुछ कर्तव्यों और विधानों को पूरा करने का दायित्व है और चाहे वह विधायिका हो या विस्तारित रूप से जनता, सभी संस्थाओं और व्यक्तियों के अधिकार धर्म द्वारा नियंत्रित हैं और स्वेच्छाचारी काम की अनुमति किसी को नहीं है। एक तरफ तो धर्मराज्य निरंकुशता को नियंत्रित करेगा और दूसरी तरफ यह लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने से रोकेगा। खास बात यह है कि उनका मानना था कि दुनिया में दूसरी जगह स्थापित शासन के विचार व्यक्ति के अधिकारों की तरफ केंद्रित हैं, लेकिन धर्म- राज्य का भारतीय विचार कर्तव्य केंद्रित है।

लोकतंत्र को लेकर दीनदयाल उपाध्याय के विचार बहुत स्पष्ट थे। उनके लिए लोकतंत्र का अर्थ मात्र राजनीतिक या चुनावी अधिकार का उपयोग करना नहीं था। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र मात्र राजनीतिक क्षेत्र में नहीं, सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों में भी स्थापित करना होगा। दीनदयाल उपाध्याय के मुताबिक लोकतंत्र अविभाज्य है। उसे टुकड़ों में नहीं देखा जा सकता है। सहिष्णुता, व्यक्ति का सम्मान और जनता के साथ जुड़ाव की भावना- ये लोकतंत्र के आधारभूत तत्व हैं। इनके अभाव में लोकतंत्र का सिर्फ आडंबर ही होगा। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र को साथ-साथ होना चाहिए और शासन को सभी नागरिकों के लिए वयस्क मताधिकार, व्यवसाय की स्वतंत्रता और वस्तुओं को पाने का अधिकार तथा स्तर की समानता व बराबरी के अवसर सुनिश्चित करना होगा।

ये भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक के विचार हैं और आज भारत पर शासन करने वाली पार्टी के आदर्शवादी उद्देश्य हैं। मार्क्सवादी इनकी अनदेखी कर सकते हैं और कांग्रेस उनकी उपेक्षा कर सकती है, लेकिन भारत दीनदयाल उपाध्याय की अनदेखी नहीं कर सकता, क्योंकि वक्त बदल गया है।

हमें याद रखना होगा कि उनके विचार आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्यों, कई मुख्यमंत्रियों, उनकी पार्टी द्वारा शासित राज्यों के सैकड़ों मंत्रियों और संसद तथा राज्यों में एक हजार से भी ज्यादा कानून निर्माताओं को प्रभावित करते हैं। पूर्ण लोकतंत्र को सुनिश्चित करने पर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक- सभी आयामों को शामिल करने वाले दीनदयाल उपाध्याय के विचारों का प्रभाव देखिए। वे शासन से हर नागरिक के लिए अवसर की बराबरी, स्तर की बराबरी और पेशे की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना चाहते थे। मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई कई योजनाओं पर पंडित उपाध्याय के विचारों की छाप दिखाई देती है- चाहे वह गरीबों के लिए कम प्रीमियम वाली जीवन बीमा और दुर्घटना मृत्यु बीमा वाली जन धन योजना हो, डिजिटल इंडिया या अकुशलों को कुशलता का प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम हो।

किसी के पास जमा करने को एक पैसा न हो, तब भी गरीब व्यक्ति को बैंक खाता खोलने देने का अवसर देने वाली जन-धन योजना ने जरूर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दिल को हर्षित कर दिया होगा।

तब क्या दीनदयाल ‘दक्षिणपंथी” हैं? क्या उन्होंने धर्मतंत्र और एक ‘हिंदू” भारत के प्रति अनुरागी पार्टी के लिए आधारशिला रखी? यह दु:खद ही है कि उन जैसा विचारक मार्क्सवादी और नेहरूवादी विचारधाराओं के बीच बेईमान गठबंधन का शिकार रहा है। इन लोगों ने यह भी सुनिश्चित किया है कि स्वतंत्रता के बाद से ही दीनदयाल उपाध्याय जैसे निर्विवाद राजनीतिक विचारकों को शिक्षा-शोध तथा मीडिया क्षेत्रों से बाहर रखा जाए। यह सिलसिला अब बंद होना चाहिए।

 

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