आजाद भारत का सबसे खराब और नुकसानदेह फैसला है, नोटबन्दी!
अरविंद मोहन: भाजपा की पिछली सरकार मेँ मंत्री रहे अरुण शौरी का मानना है कि नोटबन्दी आजाद भारत का सबसे खराब और नुकसानदेह फैसला है।
उनसे आम तौर पर सहमति नहीँ रखी जा सकती क्योंकि वे उसी भूमंडलीकरण मुहिम के सबसे बडे पैरोकारों में रहे हैं, जिसने देश और दुनिया को भारी नुकसान पहुंचाया है और खतरनाक स्तर की गर बराबरी बढाकर कमजोरोँ और गरीबोँ का जीना मुश्किल किया है। पर इस मसले मेँ उनसे असहमत होना मुश्किल है। और शायद एक ही और फैसला-आपातकाल घोषित करने का, इसके कहीँ बराबर आ सके। पर तब के बारे मेँ यह खा जा सकता है कि उस फैसले से कुछ लोग अप्रभावित रह गए होंगे और आपातकाल बीतते ही उसके मूल्यांकन और ज्यादतियोँ-कष्टोँ की चर्चा वाली किताबोँ और लेखोँ की बाढ आ गई थी। आज हालत यह है कि मीडिया का अधिकांश हिस्सा तो इस कदम के गुणगान मेँ लगा है, कोई बडा अर्थशास्त्री मुन्ह खोलने को तैयार नहीँ है। विपक्ष बिना आपातकाल के ही घुटने टेके हुए है और अगर किसी मायावती, किसी केजरीवाल और लालू यादव ने मुन्ह खोला भी है तो उनका बाजार भाव इतना नीचे है कि उससे नरेन्द्र मोदी के इस फैसले को विश्वसनीयता ही मिली है। विपक्ष नैतिक बल से हीन तो है ही लोग कालेधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद की फंडिंग और नकली नोट की समस्या से इस तरह ऊबे हुये हैँ कि उन्हे लगता है कि जब कोई कुछ नहीँ कर रहा था और सब लूटने मेँ लगे थे तो अकेले मोदी ने ‘साहस’ दिखाया है और हमेँ ठोडी तकलीफ हो तब भी उन्हे समर्थन देने मेँ हर्ज नहीँ है। उनकी मंशा तो अच्छी है।
अब मोदी की मंशा को परखने का तो कोई ठोस पैमाना नहीँ हो सकता। पर जिन चार कारणोँ को गिना कर उन्होंने खुशखबरी के अन्दाज मेँ नोटबन्दी की घोषणा की थी उनमेँ से कोई भी एक पूरा हुआ नहीँ लगता या किसी के भी पूरा होने के हालात नहीँ दिखते। सत्तर से अधिक बदलावोँ से पैदा अनिश्चितता और कई किये हुए वायदोँ से मुकरने के सरकार और रिजर्व बैंक की बेशर्मी के बावजूद शुरौआती हफ्ते मेँ ही आतंकवादियोँ के पास से नकली नोट निकलने, भयंकर घूसखोरी से कालाधन सफेद कराने का नंगा नाच होने, बहुत ही कम नकली नोट निकलने के साथ ही सरकार के सारे दावे ध्वस्त हो गए। और हालत यह हो गई कि जो रिजर्व बैंक पहले रोज वापस आए पुराने नोटोँ की मात्रा की घोषणा कुछ इस अन्दाज मेँ कर रहा था मानो कालाधन आने लगा है वह प्रधानमंत्री द्वारा की गई पचास दिन मेँ सब कुछ ठीक होने की सीमा पास आने के साथ ही वह साप्ताहिक घोषणा भी भूल गया है कि अभी उसके खजाने मेँ कितने पुराने नोट आ गए हैँ। और यह अनुमान कई तरफ से आ चुका है कि रिजर्व बैंक के पास 31 दिसम्बर तक लगभग 97 फीसदी पुराने 500-1000 के नोट वापस आ चुके हैँ। अभी सीधे रिजर्व बैंक मेँ पुराने नोट जमा कराने की सीमा 31 मार्च है और कई सरकारी विभाग अपने पास पडे पुराने नोट जमा कराने वाले हैँ-जिलोँ की ट्रेजरी मेँ जब्त पडे नोट भी काफी होंगे।
अगर आधा फीसदी से भी कम नकली नोट निकले, अगर जमा रकम का एकाध फीसदी ही सन्देहास्पद/कालाधन लग रहा है, अगर आतंकियोँ तक फिर से नए नोट पहुंचाने वाला नेटवर्क बचा ही हुआ है, अगर बीस फीसदी की दर से काला-सफेद का खेल इस मुश्किल दर मेँ चलाने वाली व्यवस्था मजे से काम कर रही थी, तब इस फैसले की क्या जरूरत थी। जाहिर है इतने मोर्चोँ पर तैयारी करने स एकोई फायदा होता, पर यहाँ तो नोट छाप लेने और एटीएम को नए नोटोँ के अनुरुउप दुरुस्त कर लेने वाला बुनियादी काम भी नहीँ हुआ। पूरे युरोप मेँ जब सारी पुरानी करेंसी हटाकर युरो लागू किया गया तो किसी भी देश से और किसी भी जगह से नोट बदलने मेँ परेशानी की शिकायत सुनाई नहीँ दी। एक-दो दिन कुछ जगहोँ पर लाइन लगने की खबरेँ आईँ पर उसे तुरंत निपटाने के उपाय भी हुए। यहाँ तो फौज लगाकर, वायुसेना की मदद लेकर भी कोई नतीजा नहीँ निकला। बल्कि इसी मारामारी मेँ यह खबर भी आई कि जब प्रधानमंत्री कानपुर और बनारस के चुनावी दौरे पर गए तब उस तरफ के सारे एटीएम मशीन नए नोट स एलबालब कर दिये गए। अब इस स्तर की चिरकुटई के लिये समय हो, समझ हो और पूरे देश और आम लोगोँ की चिंता न हो तो क्या कहा जाएगा। और अब यह अनुमान आ रहा है कि नोट बदलने के इस अभियान पर करीब डेढ लाख करोड का खर्च सरकारी खजाने पर पडा है। तीस हाजार करोड से ज्यादा का खर्च तो अने नोट छापने पर ही आया है।
निश्चित रूप से इस बेवकूफी से हर आदमी सीधे कम या ज्यादा परेशान हुआ। अगर नाटक के तौर पर ही सही किसी राहुल गान्धी को कतार मेँ खडा दिखाना पडा हो या प्रधान मंत्री की माँ को, पर आम तौर पर बडे लोग सीधे नोट बदलते या पुराना नोट जमा कराते नहीँ दिखे, पर बाकी कोई नहीँ बचा। और लोगोँ की परेशानियोँ का रिकारड तो सैकडोँ के लाइन मेँ मरने तक गया है। अब यह परेशानी कुछ कम हुई है। पर अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान हुआ है यह अनुमान लगाने को कोई तैयार नहीँ है। सरकार ने खुद विकास दर मेँ आधी फीसदी कमी आने का अनुमान किया है तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष एक फीसदी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिन्ह दो फीसदी कमी की भविष्यवाणी कर चुके हैँ। पर यह सब ऊपरी और मोटा अनुमान है। अगले साल क्या असर होगा वह अलग गिनती है। पर सबसे बडा झटका तो उस असंगठित क्षेत्र को लगा है जो इस अर्थव्यवस्था की रीढ रहा है और जिसमेँ बैंक खाता, कार्ड से भुगतान और कैशलेस कारोबार का नाम तक नहीँ सुना गया था। और बेशर्मी यह की कि जैसे ही नोटबन्दी की असफलता के लक्षण दिकह्ने लगे प्रधान मंत्री समेत पूरी भाजपा और संघ परिवार कैशलेस इकानामी की बात करने लगा। और यह बात कुछ ऐसे अन्दाज मेँ कही गई मानो नोटबन्दी का उद्देश्य कैशलेस इकानामी लाना ही था।
मंशा की बात ऊपर कही गई है और सच पूछिये तो अभी तक यह बात साफ नहीँ हुई है कि नरेन्द्र मोदी ने यह फैसला क्योँ किया और फिर अनुचित ढंग स एरिजर्व बैंक के ऊपर क्योँ थोपा। एक मान्यता है कि उन्हे कालेधन की मात्रा और नोटबन्दी से न लौटने वाले धन का गलत अनुमान बताया गया था। उनके सलाहकारोँ ने, जिसमेँ एक अनाम कुल-गोत्र वाली संस्था भी है, शायद यह बता दिया था कि अगर साढे पन्द्रह लाख करोड के बडे नोट बन्द किये गए तो कम स एकम बीस फीसदी रकम अर्थात तीन लाख करोड से ज्यादा रकम नहीँ लौटेगी। बैंक के जो नोट नहीँ लौटते उन्हें बैंक का मुनाफा मान लिया जाता है। प्रधान मंत्री को यह लगा होगा कि अगर तीन-चार लाख करोड रुपए अतिरिक्त हाथ आ गए तो फिर उसे बांटकर काफी दाएँ-बाएँ किया जा सकता है। साथ ही कालाधन पकड मेँ आया तो भी सरकारी खजाना भरेगा ही। पर ये सारी मान्यताएँ बेकार निकलीँ। और जब सरकार स्विस बंक के खाताधारकोँ के हाथ आए नाम जाहिर करना नहीँ चाहती, उनके खिलाफ ढाई साल मेँ कोई कदम नहीँ उठा सकी, भ्रष्टाचार के उस किसी भी मामले को परवान नहीँ चढा सकी जिसका नाम लेकर उसने चुनाव जीता था, अपनी पार्टी के भी एक भी भ्रष्ताचारी को सजा देने की कौन कहे, किनारे करने का काम नहीँ कर सकी तो उससे क्या उम्मीद की जाए। और अगर उसका खुफिया नेटवर्क या आयकर विभाग इतना ही चौकस होता तो इतना सारा काला धन बनता कैसे। और फिर उसे यह भी पता नहीँ है कि आज करेंसी मेँ कालाधन रखना पिछडेपन की निशानी है। जो कालाधन पकड मेँ आता है उसका सिर्फ छह फीसदी हिस्सा ही नकदी रहता है।