कुंभ स्नान से होगी शुभ फलों की प्राप्ति, दूर होंगे सभी दुख
कुंभ एक महानतम मिलन है। भक्त और भगवान का। स्व-स्वरूप में स्थित होने का विराट आयोजन है यह कुंभ, जहां ज्ञान की सरस्वती, भक्ति की गंगा और कर्म की यमुना का महायोग होता है। वेदों की ऋचाएं भी तो ज्ञान, भक्ति और कर्म का ही अमृतमय शब्दरूप हैं, जो श्रुति मार्ग से जाकर हृदय देश में मिल जाती है। अमृत तो मिलन में ही बरसता है, वियोग में तो अश्रु प्रवाह होता है। ईश्वर की इसी संपूर्णता के लिए भक्त उमड़ रहे हैं।
यह केवल भारत में संभव है, यहां नदियां भी मिलती हैं, धर्म भी मिलते हैं, परंपराएं और मान्यताएं भी मिलती हैं। संत ग्रहस्त, विद्वान, महामंडलेश्वर, पशु, पक्षी, निर्गुण-निराकारवादी, सगुण-साकारवादी, भक्त, वेदांती सब भगवान के बहुरंगे रूप, गुण, कलाओं को यहां देखने आते हैं। यही इस देश की संस्कृति है, यही सनातनता है, जो मिलकर विलीन हो जाने को अपनी पूर्णता मानती है। कुंभ का जो स्वरूप इस वर्ष देखने को मिला है, वह कल्पनातीत है। ऐसा तो कोई व्यक्ति है ही नहीं, जो अंदर ही अंदर मन:शरीर से कुंभ में सम्मिलित न होना चाहे। परिस्थिति मन:स्थित एक अलग प्रसंग है।
जैसे वेद अपौरुषेय हैं, वैसे ही कुंभ की परिकल्पना भी अपौरुषेय है। अपौरुषेय व्यवस्था में जब शासन और व्यवस्था अपनी आस्था के पुष्प व्यवस्था में लगकर चढ़ाते हैं, तब वह सामाजिक भक्ति बनकर आस्था के समुद्र बनकर चिदाकाश बन जाता है और फिर भक्तों की भावना के बादलों का रूप लेकर भरपूर बरसता है। यहां पर कोई क्यों गया? कौन क्यों नहीं जा पाया, यह एक व्यक्तिगत धारणा और परिस्थिति है, पर हर कोई जाना चाहता है यह सत्य है, जहां त्रिवेणी तट पर महर्षि याज्ञवल्क्य ने महाराज श्री भरद्वाज को प्रथम बार रामकथा सुनाई। रामकथा में भी कुंभ की चर्चा है।
महर्षि अगस्त्य, जिन्होंने अपने उदर कुंभ में समुद्र को पी लिया, उन्हीं कुंभज के पास शंकर जी ने रामकथा सुनी। कुंभ, कुंभज, शिव, और रामकथा ये सब अनंत हैं। अनंत ही अनंत को पी सकता है। अनंत का प्रतिपादन भी अनंत ही कर सकता है। संगम का यह तट वही है, जिसमें महर्षि भरद्वाज ने रामानुज श्री भरत से कहा था कि मैंने प्रयागराज में रहकर अनेक वर्षों तक जो तपस्या जपादि किया, उसका फल हमें यह मिला कि प्रभु श्रीराम श्रीसीता तथा प्रिय श्रीलक्ष्मण जी ने मुझे दर्शन दिए। वह तीन लोगों की जो त्रिवेणी थी, पर आज उस त्रिवेणी के दर्शन का फल भरत रूपी भक्ति समुद्र के दर्शन के रूप में हो रहे हैं। यह हमारा ही नहीं, समस्त प्रयाग का यह सौभाग्य है।
आज इस महाकुंभ के अवसर पर जो लोग स्नान कर रहे हैं, उन्हें वह सौभाग्य प्राप्त है जहां पर भरत समुद्र भी स्नान कर चुका है, साक्षात ज्ञान श्रीराम, भक्ति श्रीसीता जी, कर्म श्री लक्ष्मण जी ने स्नान किया। कुंभ स्नान का फल यह है कि हमारे जीवन में भक्ति, ज्ञान और कर्म इस रूप में हो, जो भगवान के प्रति जो प्रेम समुद्र है, उसमें मिल जाएं। स्नान करने का तात्पर्य हैं अंग-प्रत्यंग डूब जाए जल में। कुछ बाकी न रहे। तभी तो आत्मा और शरीर का संगम होगा। तभी तो हम सब एक ही कुंभ में समा जाएंगे। यही घट है, यही मठ है। मठ रूप समाज घट रूप संगम में सराबोर हो जाए, तब होता है संगम।
समाज और व्यक्ति अमृतत्व की प्राप्ति की आकांक्षा को छुपाए-संजोए हुए भटक रहा है। कह नहीं रहा है, पर भटक रहा है। जब बड़ी और छोटी, भारी और हल्की सारी हस्तियां उस अमृतत्व को चाहती और पाती हैं तो महाकुंभ का अमृतमृतत्व तो स्वयंसिद्ध है। सबको मिला लेना, सबको स्वीकार कर लेना ही संगम है, यही समागम है और यही सनातन है। चित्रकूट, काशी, अयोध्या और अन्यान्य तीर्थ इस कुंभ का दर्शन करने आते हैं। सनातनता का कोई अंग शेष नहीं रह जाता, जो वहां दिखाई न देता हो।
कहीं यज्ञ हो रहा है, कहीं भंडारा हो रहा है, कहीं कथा हो रही है, कहीं संकीर्तन, नृत्य, ध्यान, दान, पाठ, सहयोग, सेवा, प्रसन्नता, स्नान, फलाहार, व्रत, अन्नदान, विद्यादान, चिकित्सा, पंचाग्नि में जप करते संत। कुछ संत अपने पूरे शरीर को पृथ्वी में डालकर समाधि सुख का अनुभव का दर्शन करा रहे हैं। इस कुंभ में सब कुछ है। सनातनता नारा नहीं लगाती है, वह तो नारा बन जाती है कि ऐसे बनो, ऐसा करो और ऐसे दिखो। चरैवेति चरैवेति का सिद्धांत भी कुंभ में देखने को मिलता है। पहले गंगा, यमुना, सरस्वती बनकर चलो, फिर मिलो और फिर समुद्र में मिलो और तत्पश्चात बादल बनकर वर्षा करो। संसार हर प्राणी को अपनी उपलब्धि का लाभ दो।
शासन की उदारता, व्यवस्था का स्वरूप यहां की सुगंध बनकर सारे विश्व में महक रही है। ऐसा लग रहा है कि इस लाभ को लेने के लिए लोग लोभी बनने तो आतुर हो रहे हैं। कीर्तन का कोई प्रकार ऐसा नहीं है, जो यहां नृत्य न कर रहा हो। भक्तों को निमंत्रण का एक भी पोस्टकार्ड नहीं जाता है और सबको सूचना मिल जाती है, व्यवस्था-अव्यवस्था को नजरंदाज कर सब राममय हो जाते हैं, शिवमय हो जाते हैं और श्याममय हो जाते हैं। हमारी संस्कृति की सनातनता, पावनता का मूर्त रूप है महाकुंभ।